अवनीश कुमार गुप्ता
मुस्लिम समाज में जातिगत पहचान और असमानता का मुद्दा सदियों से एक जटिल सामाजिक समस्या रहा है, जिसे इस्लामिक शिक्षाओं के नाम पर अक्सर नजरअंदाज कर दिया गया है। कुरान और हदीस की शिक्षाओं के अनुसार, इस्लाम में सभी इंसानों को बराबरी का दर्जा दिया गया है। पैगंबर मुहम्मद ने जातिगत विभाजन की निंदा की थी और सभी मुसलमानों को एक ही भाईचारे का हिस्सा बताया था। लेकिन क्या वास्तविकता इस आदर्श से मेल खाती है? शायद नहीं। अंतरराष्ट्रीय और भारतीय परिप्रेक्ष्य में मुस्लिम समाज के भीतर जातिगत भेदभाव और उसके दुष्परिणामों की कहानी काफी हद तक छिपाई गई है।
इस्लाम के प्रारंभिक समय में जातिगत भेदभाव की कोई जगह नहीं थी। पैगंबर मुहम्मद के सबसे करीबी अनुयायियों में से एक, हज़रत बिलाल, जो अफ्रीकी मूल के थे, उन्हें समान अधिकार और सम्मान दिया गया था। लेकिन जैसे-जैसे इस्लामिक समाज का विस्तार हुआ, वैसे-वैसे सामाजिक असमानताओं ने जड़ें जमा लीं। इस्लाम का प्रचार-प्रसार करने वाले अरब, तुर्क, और मुग़ल शासक अपने सांस्कृतिक और सामाजिक परंपराओं को साथ लेकर आए, जिन्होंने इस्लामी समाज में जातिगत भेदभाव को बढ़ावा दिया। उदाहरण के लिए, भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम समाज ने स्थानीय जातिगत ढांचे को अपनाया, और यहीं से “अशराफ” और “पसमांदा” जैसी श्रेणियों की शुरुआत हुई।
अशराफ वर्ग में सैयद, शेख, मुग़ल, और पठान जैसी जातियाँ आती हैं, जो खुद को उच्च वर्ग मानती हैं। वहीं, पसमांदा वर्ग में बुनकर, लोहार, मोची, धोबी जैसे पिछड़े और गरीब समुदाय आते हैं, जिन्हें मुस्लिम समाज में नीची नज़रों से देखा जाता है। इस तरह के भेदभाव से आर्थिक, सामाजिक, और शैक्षिक असमानताओं ने जन्म लिया, और पसमांदा मुसलमानों को जीवन के हर क्षेत्र में पीछे धकेल दिया गया। यह विडंबना है कि एक ऐसा धर्म, जो समानता और भाईचारे का संदेश देता है, उसी में ऐसे गहरे असमानता के बीज बोए गए हैं।
भारतीय मुस्लिम समाज में जातिगत विभाजन कोई नई बात नहीं है। ब्रिटिश काल के दौरान, मुस्लिम समाज में जातिगत पहचान को और अधिक प्रचलित किया गया। अंग्रेजों ने “डिवाइड एंड रूल” की नीति के तहत, मुसलमानों में जाति के आधार पर विभाजन को बढ़ावा दिया। इस नीति का परिणाम यह हुआ कि मुस्लिम समाज के उच्च वर्ग, विशेषकर अशराफ वर्ग, अंग्रेजों के साथ मिलकर सत्ता में आ गए, जबकि पसमांदा मुसलमानों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया।
पसमांदा मुसलमानों को मिले अपमान और शोषण का एक उदाहरण बंगाल के नबीपुर इलाके से मिलता है, जहाँ ये जातियाँ अत्यधिक गरीबी और अशिक्षा से जूझ रही थीं। इस तरह का शोषण न केवल सामाजिक बल्कि धार्मिक नेताओं की असंवेदनशीलता का भी प्रतीक है। यह विडंबना है कि इस्लामिक शिक्षाओं का अनुसरण करने का दावा करने वाले धार्मिक नेता और समाज सुधारक, जातिगत असमानता के इस ज्वलंत मुद्दे पर चुप्पी साधे रहते हैं।
एशिया के अन्य देशों, जैसे पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी, मुस्लिम समाज में जातिगत असमानता व्यापक रूप से देखी जाती है। पाकिस्तान में “मुहाजिर” और “सिंधी”, या “पंजाबी” और “पठान” के बीच भेदभाव की घटनाएँ आम हैं। इन विभाजनों ने केवल मुस्लिम समाज को कमजोर ही किया है और उन्हें राजनीतिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा रखा है।
इस्लामिक धर्मग्रंथों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अल्लाह के सामने सभी इंसान बराबर हैं। कुरान की एक आयत में कहा गया है: “हे मानव जाति! हमने तुम्हें एक पुरुष और एक स्त्री से बनाया और तुम्हें विभिन्न जातियों और कबीलों में विभाजित किया ताकि तुम एक-दूसरे को जान सको। अल्लाह के निकट सबसे प्रतिष्ठित वही है जो सबसे धर्मी है।” (कुरान 49:13)।
लेकिन इन शिक्षाओं का पालन मुस्लिम समाज में कहीं नजर नहीं आता। यह विडंबना है कि इस्लामिक धर्मगुरु और समाज सुधारक इस आयत को केवल धार्मिक समारोहों में पढ़ते हैं, लेकिन इसे व्यवहार में नहीं लाते। इस संदर्भ में तुर्की के एक इस्लामी विद्वान अली शारीती का एक बयान उल्लेखनीय है: “इस्लाम का असली खतरा उसके बाहरी दुश्मनों से नहीं, बल्कि उसके भीतर के ढोंगी धर्मगुरुओं से है।” ऐसे धर्मगुरु जिन्होंने समाज में जातिगत भेदभाव को बनाए रखा है, वे वास्तव में इस्लाम के असली दुश्मन हैं।
भारत में मुस्लिम समाज के जातिगत विभाजन को समाप्त करने के लिए कुछ ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है। सबसे पहले, भारतीय मुस्लिम समाज को अपनी परंपराओं और सोच को बदलने की जरूरत है। जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के लिए धार्मिक शिक्षा में सुधार किया जाना चाहिए। इस्लामी मदरसों और शिक्षण संस्थानों में समानता और भाईचारे की शिक्षा दी जानी चाहिए, न कि ऊँच-नीच के विचारों को बढ़ावा दिया जाए।
भारत सरकार को भी पसमांदा मुसलमानों को आरक्षण देने की दिशा में विचार करना चाहिए, ताकि वे भी समाज के मुख्यधारा में शामिल हो सकें। जैसे अनुसूचित जातियों और जनजातियों को आरक्षण के जरिए विकास के अवसर मिलते हैं, वैसे ही पसमांदा मुसलमानों को भी समान अधिकार और अवसर मिलने चाहिए। जातिगत जनगणना का विचार भी इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है, जिससे मुस्लिम समाज के पिछड़े वर्गों की वास्तविक स्थिति सामने आ सकेगी।
इस बदलाव के लिए इस्लामिक धर्मगुरुओं को जागरूकता अभियान चलाने की आवश्यकता है। यह जिम्मेदारी बनती है कि वे इस्लाम के वास्तविक सिद्धांतों का पालन करें और अपने अनुयायियों को जातिगत भेदभाव के खिलाफ जागरूक करें। भारत में इस्लामिक धर्मगुरु यदि जातिगत भेदभाव को समाप्त करने की दिशा में कदम उठाते हैं, तो इसका सकारात्मक प्रभाव पूरे समाज पर पड़ेगा।
धर्मगुरुओं को चाहिए कि वे स्थानीय मस्जिदों और धार्मिक सभाओं में जातिगत असमानता के खिलाफ उपदेश दें। वे इसे अपने अनुयायियों तक स्पष्ट करें कि इस्लाम में कोई जातिगत भेदभाव नहीं है और सभी मुसलमान एक समान हैं। साथ ही, धार्मिक ग्रंथों का वास्तविक अर्थ समझाते हुए, भाईचारे और समानता की शिक्षा को बढ़ावा दें।
भारतीय समाज में सुधार की शुरुआत तभी हो सकती है जब मुस्लिम समाज भी इस दिशा में कदम बढ़ाए। यह सरकार और मुस्लिम समाज दोनों की जिम्मेदारी है कि वे मिलकर ऐसे कदम उठाएँ, जिनसे समाज में जातिगत असमानता समाप्त हो। पसमांदा मुसलमानों के हक और अधिकारों की रक्षा के लिए, उन्हें सामाजिक और आर्थिक रूप से सशक्त बनाने के प्रयास किए जाने चाहिए। यह तभी संभव है जब मुस्लिम समाज के भीतर से जातिगत असमानता को जड़ से समाप्त करने का दृढ़ संकल्प लिया जाए।
देश के मुस्लिम समाज को चाहिए कि वे अपनी जातिगत पहचान के साथ समझौता न करें, बल्कि इस पर गर्व करें। यह समाज के लिए एक चेतावनी भी है कि अगर समय रहते इस दिशा में सुधार नहीं किए गए, तो इससे देश के सामाजिक ताने-बाने में दरारें आ सकती हैं। नए भारत में, जहाँ समानता, समावेशिता, और सामाजिक न्याय की बात की जाती है, मुस्लिम समाज का भी यह कर्तव्य है कि वह इन आदर्शों को अपने भीतर उतारे।
जातिगत भेदभाव एक ऐसी समस्या है, जिसे केवल सरकारी नीतियों से हल नहीं किया जा सकता। इसके लिए मुस्लिम समाज को खुद जागरूक होना पड़ेगा और अपने भीतर के भेदभाव को दूर करना होगा। इस्लामिक धर्मगुरु, समाज सुधारक, और राजनीतिक नेता, सभी को मिलकर एक ऐसी सामाजिक संरचना बनानी होगी जिसमें सभी मुसलमानों को समान अधिकार और सम्मान मिले।
भारत का भविष्य तभी उज्जवल हो सकता है, जब समाज के सभी वर्गों को समान अवसर और अधिकार मिलें। जातिगत असमानता को समाप्त करना केवल मुस्लिम समाज का ही नहीं, बल्कि पूरे भारतीय समाज का कर्तव्य है। यही नए भारत की सच्ची संकल्पना होगी, जहाँ सबको बराबरी का हक हो और किसी भी तरह का भेदभाव न हो।
सूचना: यदि आवश्यकता अनुभव हो, तो लेख को उचित रूप में संक्षिप्त करने की स्वीकृति आपको दी जाती है।
अवनीश कुमार गुप्ता
साहित्यकार, स्वतंत्र स्तंभकार, समीक्षक एवं पुस्तकालयाध्यक्ष