
मंत्र महर्षि डॉ. योगभूषण महाराज
सृष्टि का चक्र अनवरत गतिशील है-गर्मी, वर्षा और शीत ऋतु इसका पर्याय हैं। इन्हीं ऋतुओं में से एक वर्षा ऋतु-न केवल पर्यावरणीय दृष्टि से, बल्कि आध्यात्मिक और धार्मिक जगत के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। जैन धर्म में इस अवधि को “चातुर्मास” या “वर्षायोग” कहा जाता है, जैन परम्परा में आषाढ़ी पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक का समय तथा वैदिक परम्परा में आषाढ़ से आसोज तक का समय चातुर्मास कहलाता है। इस दौरान दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परंपराओं के मुनि स्थिर एक ही स्थान पर विराजमान रहते हैं। यह नियम प्राकृतिक कारणों से भी जुड़ा है-जैसे वर्षा ऋतु में जीव-जंतु अधिक उत्पन्न होते हैं, जिससे भ्रमण करने से अहिंसा का उल्लंघन हो सकता है। वास्तव में आज के व्यस्त, तनाव एवं हिंसाग्रस्त और भौतिकतावादी युग में चातुर्मास हमें आत्ममूल्यांकन और आंतरिक शांति की प्रेरणा देता है। यह समय पर्यावरणीय संतुलन, नैतिक जीवनशैली और आध्यात्मिक चिंतन की ओर समाज को मोड़ने में सक्षम है। यदि युवा वर्ग इसे आत्मसात करे, तो समाज में सकारात्मक परिवर्तन आ सकता है।
वास्तव में पुराने समय में वर्षाकाल पूरे समाज के लिए विश्राम काल बन जाता था किन्तु संन्यासियों, श्रावकों, भिक्षुओं आदि के संगठित संप्रदायों ने इसे साधना काल के रूप में विकसित किया। इसलिए वे निर्धारित नियमानुसार एक निश्चित तिथि को अपना वर्षावास या चातुर्मास शुरू करते थे और उसी तरह एक निश्चित तिथि को उसे समाप्त करते थे। धन-धान्य की अभिवृद्धि के कारण उपलब्धियों भरा यह समय स्वयं से स्वयं के साक्षात्कार, आत्म-वैभव को पाने एवं अध्यात्म की फसल उगाने की दृष्टि से भी सर्वोत्तम माना गया है। इसका एक कारण यह है कि निरंतर पदयात्रा करने वाले जैन साधु-संत भी इस समय एक जगह स्थिर प्रवास करते हैं। उनकी प्रेरणा से धर्म जागरणा में वृद्धि होती है। जन-जन को सुखी, शांत और पवित्र जीवन की कला का प्रशिक्षण मिलता है। गृहस्थ को उनके सान्निध्य में आत्म उपासना का भी अपूर्व अवसर उपलब्ध होता है।
जैन धर्म एक अत्यंत अनुशासित और तपोमयी परंपरा है, जिसमें आत्मशुद्धि, अहिंसा, संयम और साधना को सर्वाेपरि माना गया है। वर्षभर की विविध धार्मिक गतिविधियों में चातुर्मास का विशेष स्थान है। यह समय आत्मनिरीक्षण, तप, स्वाध्याय और उपवास जैसी साधनाओं का काल है, जिसमें श्रावक और साधु-साध्वियाँ दोनों ही अपनी आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर होते हैं। श्रावक इस दौरान अधिक समय धर्म, पूजन, व्रत, स्वाध्याय और दान में लगाते हैं। यह आत्म-निरीक्षण और जीवन शैली को बदलने का काल बन जाता है। चातुर्मास में पर्युषण पर्व, दशलक्षण पर्व, अनंत चतुर्दशी जैसे पर्व आते हैं जो धर्म की गहराई को समझने का अवसर प्रदान करते हैं। इस समय एकासन, उपवास, अनेक तरह के त्याग जैसे अनेक व्रतों का पालन किया जाता है। इससे आत्मिक बल और संयम में वृद्धि होती है। चातुर्मास में मुनियों के प्रवचनों के माध्यम से धर्म ग्रंथों की गूढ़ व्याख्या होती है, जिससे श्रद्धालु ज्ञान और विवेक के पथ पर आगे बढ़ते हैं। संयमित जीवन और वैराग्य की भावना इस काल में जागृत होती है, जिससे सांसारिक मोह कम होता है।
जैन चातुर्मास केवल एक धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि आत्मिक उत्कर्ष की एक सुंदर प्रक्रिया है। यह काल हमें भीतर झाँकने, अपनी त्रुटियों को पहचानने और एक संतुलित, अहिंसात्मक जीवन की ओर बढ़ने का अवसर देता है। साधना और संयम की यह अनूठी परंपरा न केवल जैन समाज को बल्कि सम्पूर्ण मानवता को आध्यात्मिक दिशा देने की सामर्थ्य रखती है। चातुर्मास धार्मिक संस्कृति की आत्मा है। यह काल समाज को एक साथ जोड़ता है-सामूहिक साधना, संयम और सेवा की भावना को पोषित करता है। संतों की सेवा, रोगी-वृद्ध मुनियों की देखभाल, आहार-विहार की व्यवस्था, सत्संग और स्वाध्याय में सहयोग देना-ये सभी कार्य श्रावकों के लिए धर्म का अंग बन जाते हैं। चातुर्मास न केवल तपस्वियों के जीवन का अमृतकाल है, अपितु पूरे समाज के लिए जागृति और नवचेतना का समय है। यह चार महीने धर्म के बीज को बोने, सेवा का जल सींचने, संयम की धूप में तपाने और श्रद्धा के वृक्ष को विकसित करने का सर्वाेत्तम काल है। जब मन, वचन और काया तीनों पवित्र हों-तभी चातुर्मास सफल होता है। अपेक्षा है कि सभी संकल्प करें- इस चातुर्मास को केवल परंपरा के निर्वाह के रूप में नहीं, बल्कि आत्मिक विकास और सामाजिक समर्पण के माध्यम के रूप में अपनाएं।
हिन्दू धर्म में देवशयनी एकादशी से ही चातुर्मास की शुरुआत होती है जो कार्तिक के देव प्रबोधिनी एकादशी तक चलती है, इस समय में श्री हरि विष्णु योगनिद्रा में लीन रहते हैं इसलिए किसी भी शुभ कार्य को करने की मनाही होती है। इसी अवधि में ही आषाढ़ के महीने में भगवान विष्णु ने वामन रूप में अवतार लिया था और राजा बलि से तीन पग में सारी सृष्टी दान में ले ली थी। उन्होंने राजा बलि को उसके पाताल लोक की रक्षा करने का वचन दिया था। फलस्वरूप श्री हरि अपने समस्त स्वरूपों से राजा बलि के राज्य की पहरेदारी करते हैं। इस अवस्था में कहा जाता है कि भगवान विष्णु निद्रा में चले जाते हैं। यों तो हर व्यक्ति को जीने के लिये तीन सौ पैंसठ दिन हर वर्ष मिलते हैं, लेकिन उनमें वर्षावास की यह अवधि हमें जागते मन से जीने को प्रेरित करती है, यह अवधि चरित्र निर्माण की चौकसी का आव्हान करती है ताकि कहीं कोई कदम गलत न उठ जाये। यह अवधि एक ऐसा मौसम और माहौल देती है जिसमें हम अपने मन को इतना मांज लेने को अग्रसर होते हैं कि समय का हर पल जागृति के साथ जीया जा सके। संतों के लिये यह अवधि ज्ञान-योग, ध्यान-योग और स्वाध्याय-योग के साथ आत्मा में अवस्थित होने का दुर्लभ अवसर है। वे इसका पूरा-पूरा लाभ लेने के लिये तत्पर होते हैं। वे चातुर्मास प्रवास में अध्यात्म की ऊंचाइयों का स्पर्श करते हैं, वे आधि, व्याधि, उपाधि की चिकित्सा कर समाधि तक पहुंचने की साधना करते हैं। वे आत्म-कल्याण ही नहीं पर-कल्याण के लिये भी उत्सुक होते हैं। यही कारण है कि श्रावक समाज भी उनसे नई जीवन दृष्टि प्राप्त करता है। स्वस्थ जीवनशैली का निर्धारण करता है। संतों के अध्यात्म एवं शुद्धता से अनुप्राणित आभामंडल समूचे वातावरण को शांति, ज्योति और आनंद के परमाणुओं से भर देता है। इससे जीवन-रूपी सारे रास्ते उजालों से भर जाते हैं। लोक चेतना शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक तनावों से मुक्त हो जाती है। उसे द्वंद्व एवं दुविधाओं से त्राण मिलता है। भावनात्मक स्वास्थ्य उपलब्ध होता है।
वर्षावास में सभी श्ऱद्धालु आत्मा से परमात्मा की ओर, वासना से उपासना की ओर, अहं से अर्हम् की ओर, आसक्ति से अनासक्ति की ओर, भोग से योग की ओर, हिंसा से अहिंसा की ओर, बाहर से भीतर की ओर आने का प्रयास करते हैं। वह क्षेत्र सौभाग्यशाली माना जाता है, जहां साधु-साध्वियों का चातुर्मास होता है। उनके सान्निध्य का अर्थ है- बाहरी के साथ-साथ आंतरिक बदलाव घटित होना। जीवन को सकारात्मक दिशाएं देने के लिये चातुर्मास एक सशक्त माध्यम है। यह आत्म-निरीक्षण का अनुष्ठान है। चातुर्मास संस्कृति की एक अमूल्य धरोहर है।
चातुर्मास का महत्व शांति और सौहार्द की स्थापना के साथ-साथ भौतिक उपलब्धियों के लिये भी महत्वपूर्ण माना गया है। इतिहास में ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जहां चातुर्मास या वर्षावास और उनमें संतों की गहन साधना से अनेक चमत्कार घटित हुए हैं। जिस क्षेत्र की स्थिति विषम हो। जनता विग्रह, अशांति, अराजकता या अत्याचारी शासक की क्रूरता की शिकार हो, उस समस्या के समाधान हेतु शांति और समता के प्रतीक साधु-साध्वियों का चातुर्मास वहां करवाया जाकर परिवर्तन को घटित होते हुए देखा गया है। क्योंकि संत वस्तुतः वही होता है जो औरों को शांति प्रदान करे। जरूरत है इस सांस्कृतिक परम्परा को अक्षुण्ण बनाने की। ऐसी परम्पराओं पर हमें गर्व और गौरव होना चाहिए कि जहां जीवन की हर सुबह सफलताओं की धूप बांटें और हर शाम चारित्र धर्म की आराधना के नये आयाम उद्घाटित करें। क्योंकि यही अहिंसा, शांति और सह-अस्तित्व की त्रिपथगा सत्यं, शिवं, सुंदरम् का निनाद करती हुई समाज की उर्वरा में ज्योति की फसलें उगाती है।
(लेखक आध्यात्मिक गुरु, सोऽहम् योग प्रवर्तक एवं संस्थापक धर्मयोग फाउंडेशन है।)