
डॉ. वीरेन्द्र प्रसाद
कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को मनाया जाने वाला लोक आस्था का महापर्व छठ भारतीय परंपरा का वह अनूठा उत्सव है, जो न केवल धार्मिकता बल्कि प्रकृति, अनुशासन, पारिवारिक एकता और सामाजिक समानता का भी संदेश देता है। सूर्य उपासना पर आधारित यह पर्व भारत के बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल तथा नेपाल के तराई क्षेत्रों में विशेष श्रद्धा और भक्ति भाव से मनाया जाता है। आज यह सीमाओं से परे, विश्व के उन देशों में भी उतने ही उत्साह से मनाया जा रहा है, जहाँ भारतीय प्रवासी समुदाय निवास करता है।
छठ पर्व का मूल उद्देश्य सूर्य, प्रकृति, जल, वायु और छठी मैया की उपासना है — जिनके प्रति भारतीय समाज आदिकाल से जीवनदायिनी शक्ति के रूप में कृतज्ञता व्यक्त करता आया है। यह पर्व चार दिनों तक चलने वाले संयम, तप, आस्था और आत्मशुद्धि के अनुष्ठानों का जीवंत उदाहरण है।
पौराणिक और ऐतिहासिक आधार
छठ पर्व की उत्पत्ति अत्यंत प्राचीन मानी जाती है। मान्यता है कि मुंगेर स्थित सीताचरण मंदिर में माता सीता ने सर्वप्रथम इस व्रत का अनुष्ठान किया था। वहीं एक अन्य कथा के अनुसार देवमाता अदिति ने असुरों पर देवताओं की विजय की कामना से छठी मैया की आराधना की थी, जिसके फलस्वरूप उन्हें तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति हुई। महाभारत काल में द्रौपदी द्वारा संकट निवारण हेतु छठ व्रत करने की कथा भी प्रसिद्ध है।
इन पौराणिक उल्लेखों से स्पष्ट है कि यह पर्व न केवल धार्मिक आस्था से जुड़ा है, बल्कि यह उस सांस्कृतिक निरंतरता का प्रतीक है, जिसमें प्रकृति और मानव का गहरा संबंध निहित है।
व्रत की पवित्र परंपरा और चरण
चार दिवसीय यह महापर्व नहाय-खाय से प्रारंभ होकर खरना, संध्या अर्घ्य और उषा अर्घ्य के साथ पूर्ण होता है।
पहला दिन – नहाय-खाय :
इस दिन घर की शुद्धि-सफाई के बाद व्रती नदी या तालाब में स्नान कर पवित्र गंगाजल लाते हैं। उसी जल से निर्मित सात्विक भोजन – कद्दू की सब्जी, चना दाल और अरवा चावल – को प्रसाद रूप में ग्रहण किया जाता है। यही ‘कदुआ भात’ कहलाता है।
दूसरा दिन – खरना :
इस दिन व्रती निर्जला उपवास रखते हैं और संध्या बेला में गुड़-गन्ने के रस की खीर बनाकर सूर्य को अर्पित करते हैं। शांत, एकांत वातावरण में प्रसाद ग्रहण करने की यह प्रक्रिया आत्मसंयम और पवित्रता का प्रतीक है। इसके बाद 36 घंटे का कठिन निर्जला उपवास प्रारंभ होता है।
तीसरा दिन – संध्या अर्घ्य :
सूर्यास्त से पहले श्रद्धालु सूप में प्रसाद और फल सजाकर नदी तट पर पहुंचते हैं। महिलाएं मंगल गीत गाते हुए छठ माता का स्मरण करती हैं। डूबते सूर्य को अर्घ्य देने के साथ परिवार और समाज एकाकार हो जाता है। यह क्षण मानो सूर्य को धन्यवाद देने का सामूहिक उत्सव होता है।
चौथा दिन – उदीयमान सूर्य को अर्घ्य :
अंतिम दिन प्रातःकाल व्रती परिवार सहित घाट पर पहुंचकर उदयमान सूर्य को अर्घ्य अर्पित करते हैं। यही इस पर्व की चरम परिणति है। पूजा के पश्चात व्रती ‘पारण’ करते हैं, अर्थात उपवास तोड़ते हैं।
आस्था, अनुशासन और विज्ञान का संगम
छठ व्रत केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि आत्मसंयम, सहिष्णुता और पर्यावरणीय चेतना का अद्भुत संगम है। इस पर्व की सबसे बड़ी विशेषता इसकी पवित्रता, सादगी और आत्मनिर्भरता है — यहाँ न तो किसी पुरोहित की आवश्यकता होती है, न ही आडंबर की। व्रती स्वयं प्रकृति को साक्षी मानकर पूजा करते हैं।
सूर्य को ऊर्जा का सार्वभौमिक स्रोत मानते हुए की जाने वाली यह उपासना वैश्विक सांस्कृतिकता का भी प्रतीक है। सामूहिक रूप से मनाया जाने वाला यह पर्व जाति, वर्ग, भाषा और लिंग के भेद से ऊपर उठकर एकता और समरसता का संदेश देता है। बांस से बने दऊरा, सूप, और मौर जैसे प्रसाद पात्र समाज के तथाकथित निम्न वर्गों की आजीविका से भी जुड़े हैं — इस तरह छठ सामाजिक-आर्थिक सहजीविता का भी उत्कृष्ट उदाहरण है।
स्वच्छता, समभाव और पारिवारिक एकता का संदेश
छठ पर्व का सार है – स्वच्छता में ईश्वरता का दर्शन। व्रती जहां अंतःकरण को शुद्ध करते हैं, वहीं बाह्य स्वच्छता का भी पालन करते हैं। पूरा परिवार, यहां तक कि प्रवासी सदस्य भी, इस अवसर पर घर लौट आते हैं। इस प्रकार यह पर्व पारिवारिक बंधनों को मजबूत करने और सामूहिक सौहार्द को बढ़ाने में सेतु का कार्य करता है।
छठ केवल सूर्य उपासना का पर्व नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की जीवनदायिनी परंपरा का जीवंत रूप है, जहाँ प्रकृति, समाज और मनुष्य एकाकार होते हैं। यह पर्व बताता है कि आस्था जब अनुशासन और समर्पण से जुड़ती है, तो वह लोक से लेकर वैश्विक चेतना तक प्रसारित होती है।
आस्था, स्वच्छता, समानता और समरसता का यह अद्वितीय महापर्व आज भी भारत की सनातन जीवनदृष्टि का सबसे उज्ज्वल प्रतीक है।
– डॉ. वीरेन्द्र प्रसाद
लेखक : शेष कितना तमस
संप्रति- विशेष सचिव (बिहार सरकार) के पद पर कार्यरत