दलाई लामा के चयन पर चीन का साजिशपूर्ण हस्तक्षेप

China's conspiratorial interference in the selection of the Dalai Lama

ललित गर्ग

तिब्बत के आध्यात्मिक नेता एवं वर्तमान 14वें दलाई लामा, तेनजिन ग्यात्सो की उत्तराधिकार प्रक्रिया न केवल बौद्ध धर्म और तिब्बत की संस्कृति से जुड़ा विषय है, बल्कि यह अंतरराष्ट्रीय राजनीति, मानवाधिकार और भारत-चीन संबंधों के संदर्भ में भी अत्यंत महत्वपूर्ण हो गया है। चीन द्वारा इस धार्मिक एवं सांस्कृतिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने का प्रयास न केवल धार्मिक स्वतंत्रता का हनन है, बल्कि यह वैश्विक जनमत की भी अवहेलना है। इन स्थितियों में उत्तराधिकार के मसले पर भारत की भूमिका एक निर्णायक मार्गदर्शक के रूप में उभरती है और इसे दृष्टि में रखते हुए भारत ने दलाई लामा का पक्ष लिया है। ऐसा करने में कुछ भी अप्रत्याशित नहीं हैं। भारत शुरू से तिब्बतियों के अधिकार, उनके हितों और उनकी परंपराओं व मूल्यों के समर्थन में खड़ा रहा है। केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू का बयान चीन के लिए यह संदेश भी है कि इस संवेदनशील मसले पर उसकी मनमानी नहीं चलेगी।

चीन, दलाई लामा के उत्तराधिकारी के चयन में हस्तक्षेप करने की कोशिश कर रहा है, यह दावा करते हुए कि यह धार्मिक और ऐतिहासिक प्रक्रिया का हिस्सा है। हालांकि, दलाई लामा और तिब्बती समुदाय का कहना है कि यह अधिकार केवल उनके पास है और चीन का हस्तक्षेप धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन है। चीन, ‘स्वर्ण कलश’ प्रणाली का उपयोग करके अपने पसंदीदा उम्मीदवार को स्थापित करना चाहता है। चीन का कहना है कि दलाई लामा का उत्तराधिकारी चुनने का अधिकार उसे ‘स्वर्ण कलश’ प्रणाली के माध्यम से है, जो 1793 में किंग राजवंश के समय से चली आ रही है। इस प्रणाली में, संभावित उत्तराधिकारियों के नाम एक कलश में डाले जाते हैं और फिर एक नाम निकाला जाता है।

दलाई लामा केवल तिब्बत के धार्मिक नेता नहीं हैं, वे तिब्बती अस्मिता, स्वतंत्रता और आत्म-सम्मान के प्रतीक हैं। वर्तमान 14वें दलाई लामा, तेनजिन ग्यात्सो, 1959 में चीन की दमनकारी नीतियों के कारण तिब्बत छोड़कर भारत आए और धर्मशाला में निर्वासित तिब्बती सरकार की स्थापना हुई। भारत ने न केवल उन्हें शरण दी, बल्कि एक शांतिपूर्ण संघर्ष के पथप्रदर्शक के रूप में वैश्विक स्तर पर उनके विचारों को मंच भी प्रदान किया। वर्तमान दलाई लामा ने इस पद के लिए अगले शख्स को चुनने की सारी जिम्मेदारी गाडेन फोडरंग ट्रस्ट को दे दी है। उन्होंने कहा है कि इस मामले में किसी और को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। उनका इशारा चीन की ओर था। रिजिजू ने भी इस बात का समर्थन किया है। वहीं, चीन ने इस मसले में साजिशपूर्ण हस्तक्षेप करते हुए कहा है कि उत्तराधिकारी का चयन चीनी मान्यताओं के अनुसार और पेइचिंग की मंजूरी से होना चाहिए। चीन दलाई लामा की उत्तराधिकार प्रक्रिया पर नियंत्रण चाहता है ताकि तिब्बती जनता को अपने ही धार्मिक नेता से अलग किया जा सके। 2007 में चीनी सरकार ने एक ‘धार्मिक मामलों पर नियंत्रण कानून’ लागू किया जिसके अंतर्गत दलाई लामा जैसे धार्मिक नेताओं की नियुक्ति भी राज्य की अनुमति से ही संभव बताई गई। यह न केवल बौद्ध धर्म के सिद्धांतों के विरुद्ध है, बल्कि यह तिब्बती जनता की आस्था और पहचान का गला घोंटने जैसा है।

1959 में जब दलाई लामा को कम्युनिस्ट सरकार के दमन के चलते भारत में शरण लेनी पड़ी थी, तब से हालात बिल्कुल बदल गए हैं- चीन बेहद ताकतवर हो चुका है और तिब्बत कमजोर। इसके बाद भी अगर तिब्बत का मसला जिंदा है, तो वजह हैं दलाई लामा। चीन इसे समझता है और इसी वजह से इस पद पर अपने प्रभाव वाले किसी शख्स को बैठाना चाहता है। चीन की योजना यह है कि जब वर्तमान दलाई लामा का देहांत हो, तो वह अपनी पसंद का एक ‘दलाई लामा’ घोषित करे, जिसे वैश्विक समुदाय भले ही स्वीकार न करे, लेकिन चीन उसकी पहचान को जबरन वैधता प्रदान करे। यह एक “राजनीतिक कठपुतली” खड़ी करने जैसा है, जिससे तिब्बत पर उसका शासन वैचारिक रूप से मजबूत हो सके। लेकिन भारत, जो दलाई लामा और तिब्बती निर्वासित समुदाय का स्वागत करता रहा है, अब उस नाजुक मोड़ पर है जहाँ केवल नैतिक समर्थन पर्याप्त नहीं होगा। चीन की विस्तारवादी नीति और आक्रामक कूटनीति को देखते हुए भारत को अपनी रणनीतिक स्थिति स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करनी होगी।

चीन ने तिब्बत की पहचान को मिटाने की हर मुमकिन कोशिश कर ली है। दलाई लामा के पद पर दावा ऐसी ही एक और कोशिश है। उसकी वजह से यह मामला धर्म से आगे बढ़कर वैश्विक राजनीति का रूप ले चुका है, जिसका असर भारत और उन तमाम जगहों पर पड़ेगा, जहां तिब्बत के लोगों ने शरण ली है। भारत पर तो चीन लंबे समय से दबाव डालता रहा है कि वह दलाई लामा को उसे सौंप दे। चीन और तिब्बत की लड़ाई भारतीय भूमि पर दशकों से चल रही है और नई दिल्ली-पेइचिंग के बीच तनाव का एक बड़ा कारण बनती रही है। दलाई लामा की घोषणा के अनुसार, उनका उत्तराधिकारी तिब्बत के बाहर का भी हो सकता है- अनुमान है कि भारत में मौजूद अनुयायियों में से कोई एक, तो यह तनाव और बढ़ सकता है। लेकिन, इसमें भारत के लिए मौका भी है। वह चीन पर कूटनीतिक दबाव डाल सकता है, जो पहलगाम जैसी घटना में भी पाकिस्तान के साथ खड़ा रहा और बॉर्डर से लेकर व्यापार तक, हर जगह राह में रोड़े अटकाने में लगा है।

धर्मशाला, जहाँ वर्तमान दलाई लामा रहते हैं, अब विश्व स्तर पर तिब्बती संस्कृति एवं बौद्ध परंपराओं का केंद्र बन गया है। भारत को इस केंद्र को आधिकारिक मान्यता देनी चाहिए और संयुक्त राष्ट्र जैसे मंचों पर इस धार्मिक स्वतंत्रता के प्रश्न को उठाना चाहिए। अब जबकि दलाई लामा स्वयं कह चुके हैं कि उनके उत्तराधिकारी का चयन भारत में हो सकता है तो भारत सरकार को इस पर एक स्पष्ट नीति बनानी चाहिए कि वह चीन द्वारा घोषित किसी भी ‘नकली’ दलाई लामा या अनुचित हस्तक्षेप को मान्यता नहीं देगा। भारत को अमेरिका, जापान, यूरोपीय संघ जैसे लोकतांत्रिक देशों के साथ समन्वय स्थापित करके इस विषय पर वैश्विक समर्थन, कूटनीतिक दबाव और अंतरराष्ट्रीय समन्वय तैयार करना चाहिए। अमेरिका भी पहले ही कह चुका है कि दलाई लामा का उत्तराधिकारी केवल तिब्बती परंपराओं के अनुसार चुना जाएगा। अमेरिका में तिब्बती बौद्धों की धार्मिक स्वायत्तता को लेकर डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन पार्टी दोनों ही मुखर रही हैं। इतना ही नहीं अमेरिकी सरकार अगले दलाई लामा के चयन में चीन के दखल को भी अमान्य करार देती आई है।

चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक माओत्से तुंग की कमान में चीनी सेना लंबे समय तक तिब्बत पर कब्जे की कोशिश में जुटी रही। इसके खिलाफ जब दलाई लामा के नेतृत्व में तिब्बती बौद्धों ने आवाज उठाई तो चीनी सेना ने इसे बर्बरता से कुचल दिया। इसके बाद 1959 में चीन के तिब्बत पर कब्जा करने के बाद दलाई लामा तिब्बतियों के एक बड़े समूह के साथ भारत आ गए और यहां से ही तिब्बत की निर्वासित सरकार का संचालन करने लगे। तिब्बत में इस घटना ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। तब से दलाई लामा ने हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला को अपना घर बना लिया, जिससे बीजिंग नाराज हो गया और वहां उनकी उपस्थिति चीन और भारत के बीच विवाद का विषय बनी रही। भारत में बसे तिब्बती शरणार्थियों को शिक्षा, रोज़गार और यात्रा से संबंधित नागरिक अधिकार देने की दिशा में ठोस कदम उठाकर भारत उनके प्रति अपनी प्रतिबद्धता को और मजबूत कर सकता है। भारत में इस वक्त करीब 1 लाख से ज्यादा तिब्बती बौद्ध रहते हैं, जिन्हें पूरे देश में पढ़ाई और काम की स्वतंत्रता है। दलाई लामा को भारत में भी काफी सम्मान दिया जाता है।

दलाई लामा के उत्तराधिकारी का प्रश्न केवल एक व्यक्ति के चयन का विषय नहीं, बल्कि यह बौद्ध संस्कृति, तिब्बती आत्मनिर्णय और धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा का सवाल है। चीन की तानाशाही मानसिकता इसे नियंत्रित करना चाहती है, जबकि भारत को इसकी स्वतंत्रता की रक्षा करनी है। भारत को इस धर्म-राजनीति के संघर्ष में विवेकपूर्ण, दृढ़, निर्णायक और न्यायोचित भूमिका निभाते हुए न केवल तिब्बती जनता का, बल्कि विश्व भर के धार्मिक अधिकारों का भी संरक्षक बनना चाहिए। यही भारत की ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की नीति की सच्ची अभिव्यक्ति होगी।