
पवन शर्मा
काँच की दीवारों से छनकर आती धूप में वह स्त्री नाच रही थी। उसके गीले बाल कंधों पर लहराते, जैसे कोई पुरानी नदी अपनी पहचान फिर से तलाश रही हो। लाल साड़ी की सिलवटें रंगों में भीगती जा रही थीं और हवा में उड़ते रंग उसकी देह के भावों के साथ सहमेल में नाच रहे थे। कमरे में कोई संगीत नहीं था, लेकिन उसकी आत्मा के भीतर कोई पुराना राग झंकृत हो रहा था — वही राग, जिसे उसने बरसों पहले दफना दिया था।
कमरे के कोने में बैठा उसका बेटा उसे टकटकी लगाए देख रहा था, “माँ… ” उसने धीमे से पुकारा, “आप अब भी रंगों से डरती हैं?”
वह थम गई। उसकी देह की लय ठहर गई, पर रंग अब भी उसके चारों ओर बहते रहे — जैसे समय ने खुद रुककर उसकी छुअन को महसूस किया हो।
“नहीं डरती बेटा।” वह मुस्कुराई, मगर उसकी आँखें कहीं और देख रही थीं, “बस भूल गई थी कि ये रंग मेरे अपने हैं। कभी किसी ने कहा था कि नाचनेवाली औरतें घर नहीं बसातीं, वे उजाड़ती हैं, तब से रंगों से परहेज़ कर लिया था। संगीत को भी बंद कर दिया था और देह से दोस्ती तोड़ ली थी।”
बेटा उठकर आया। वह अब किशोर नहीं था, पर उसकी आँखों में अब भी माँ के लिए वही आदर और जिज्ञासा थी। उसने माँ की हथेली में पीले रंग का गुलाल रखा।
“ये घर है, माँ… और आप इसका उत्सव। नाचिए, ऐसे ही। मैं यहीं हूँ — जैसे था, जैसे रहूँगा।”
उसने अपनी आँखें मूँदीं और रंग को अपने गाल पर मल लिया, फिर बाँहें ऊपर उठाईं, जैसे ब्रह्मांड को छू लेना चाहती हो। उसकी देह अब प्रदर्शन नहीं, प्रार्थना थी।
उस दिन उसके भीतर की स्त्री ने पहली बार देह को दोष नहीं माना। उस दिन रंगों ने उसे छुआ नहीं, उसने रंगों को अपनाया। उसकी मुस्कान अब स्थायी थी — जैसे वर्षों के मौन ने स्वर पा लिया हो।