संभल की दुर्भाग्यपूर्ण घटना से उपजे जटिल सवाल

Complex questions arising from the unfortunate incident of Sambhal

ललित गर्ग

यह दुर्भाग्यपूर्ण एवं त्रासद है कि उत्तर प्रदेश के संभल में एक बार फिर एक सम्प्रदाय विशेष के लोगों ने जो हिंसा, नफरत एवं द्वेष को हथियार बनाकर अशांति फैलायी, वह भारत की एकता, अखण्डता एवं भाईचारे की संस्कृति को क्षति पहुंचाने का माध्यम बनी है। स्थानीय अदालत के आदेश पर एक मस्जिद के सर्वे के दौरान हिंसा एवं उन्माद का भड़क उठना और इसके चलते तीन लोगों की जान चले जाना, चुनौतीपूर्ण, विडम्बनापूर्ण एवं शर्मनाक है। इस घटना में कई अन्य लोग घायल भी हुए, जिनमें 30 से अधिक पुलिसकर्मी भी हैं। इस हिंसा को टाला जा सकता था यदि अदालत के आदेश पर हो रहे सर्वेक्षण का हिंसक विरोध नहीं किया जाता। ध्यान रहे कि जब ऐसा होता है तो बैर बढ़ने के साथ देश की छवि पर भी बुरा असर पड़ता है। निःसंदेह इस सम्प्रदाय विशेष को भी यह समझने की आवश्यकता है कि जब देश कई चुनौतियों से दो-चार है, तब राष्ट्रीय एकता एवं सद्भाव को बल देना सबकी पहली और साझी प्राथमिकता बननी चाहिए। एक उन्मादी, विभाजित और वैमनस्यग्रस्त समाज न तो अपना भला कर सकता है और न ही देश को आगे ले जा सकता है। समय आ गया है कि उन मूल कारणों पर विचार किया जाए, जिनके चलते साम्प्रदायिक तनाव, नफरत एवं द्वेष बढ़ाने वाली घटनाएं थम नहीं रही हैैं।

संभल की स्थानीय अदालत ने उस याचिका पर जामा मस्जिद के सर्वेक्षण का आदेश दिया था, जिसमें दावा किया गया था कि मुगल बादशाह बाबर ने इस मस्जिद का निर्माण एक मंदिर के स्थान पर किया था। स्थानीय अदालत के आदेश पर इसी मंगलवार को जब प्रारंभिक सर्वे किया गया था तब भी इलाके में तनाव फैला था, लेकिन उसे दूर कर लिया गया था। समझना कठिन है कि गत दिवस सर्वे के दौरान ऐसे प्रयास क्यों नहीं किए गए जिससे किसी तरह की अव्यवस्था और अशांति न फैलने पाए। रविवार को सर्वे के दौरान जिस तरह पुलिस पर पथराव किया गया और वाहनों में तोड़फोड़ करने के साथ उन्हें आग के हवाले किया गया, उससे लगता है कि कुछ उन्मादी तत्वों ने उपद्रव की तैयारी कर रखी थी। ऐसी घटनाएं सामाजिक तानेबाने को क्षति पहुंचाने के साथ कानून एवं व्यवस्था के समक्ष चुनौती भी खड़ी करती हैं। यह चिंता की बात है कि यह एक चलन सा बनता जा रहा है कि जब सार्वजनिक स्थलों पर कोई धार्मिक आयोजन होता है, किसी अदालती आदेश पर जांच कार्य होता है तो प्रायः पहले किसी बात को लेकर विवाद होता है और फिर हिंसा शुरू हो जाती है। कई बार तो यह हिंसा बड़े पैमाने पर और किसी सुनियोजित साजिश के तहत होती दिखती है। उत्तर प्रदेश के संभल में हुई भीषण हिंसा यही संकेत करती है कि उसे लेकर पूरी तैयारी की गई थी।

संभल की ताजा घटनाओं के मूल में भड़काऊ नारे एवं संकीर्ण धार्मिकता के मनसूंबे सामने आये हैं। इस तरह की घटनाओं का बार-बार होना अच्छा नहीं है, मंदिर-मस्जिद के एक और मामले ने तनाव की स्थिति उत्पन्न करके शांति एवं सौहार्द को खण्डित किया। यदि मस्जिद पक्ष का यह मानना है कि जामा मस्जिद के सर्वे का आदेश सही नहीं तो उसे ऊपरी अदालत का दरवाजा खटखटाना चाहिए था। अदालत के आदेश की अवहेलना करने के लिए हिंसा का सहारा लेने का कहीं कोई औचित्य नहीं और तब तो बिल्कुल भी नहीं जब निचली अदालत के किसी फैसले के खिलाफ ऊंची अदालतों में जाने का रास्ता खुला हो। यह भी देखा जाना चाहिए कि क्या कुछ राजनीतिक दल एवं सम्प्रदाय विशेष के लोग किसी भी बहाने भड़कने और हिंसा करने के लिए तैयार बैठे रहते हैं? वास्तव में जैसे यह एक सवाल है कि क्या भारतीय संस्कृति के अस्तित्व एवं अस्मिता से जुड़े इन धार्मिक स्थलों के नाम पर पथराव, तोड़फोड़ और आगजनी करना जरूरी समझ लिया गया है? इन प्रश्नों पर संकीर्ण धार्मिकता से परे होकर गंभीरता के साथ विचार होना चाहिए। इसी तरह पुलिस प्रशासन को भी यह देखना होगा कि वैमनस्य बढ़ाने वाली घटनाएं क्यों बढ़ती चली जा रही हैं?

यह सही है कि 1991 का पूजा स्थल अधिनियम किसी धार्मिक स्थल में बदलाव का निषेध करता है, लेकिन इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि यह अधिनियम ऐसे किसी स्थल के सर्वेक्षण की अनुमति भी प्रदान करता है और इसी कारण वाराणसी में ज्ञानवापी परिसर का सर्वेक्षण हुआ और धार में भोजशाला परिसर का भी। मथुरा में ईदगाह परिसर के सर्वेक्षण का मामला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष विचाराधीन है। मंदिर-मस्जिद के विवाद नए नहीं हैं। इन विवादों को सुलझाने की आवश्यकता है। इसका एक तरीका न्यायपालिका का सहारा लेना है और दूसरा आपसी सहमति से विवाद को हल करना। इससे बेहतर और कुछ नहीं कि जहां भी ऐसे विवाद हैं, उन्हें दोनों समुदाय आपस में मिल-बैठकर हल करें। इसका सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि समाज में सद्भाव, सौहार्द एवं शांति बनी रहेगी। यह समझा जाना चाहिए कि इन दोनों उपायों के अतिरिक्त हिंसा एवं नफरत कोई उपाय नहीं है। इसी के साथ यह भी समझना होगा कि देश को अतीत से अधिक भविष्य की ओर देखने और मंदिर-मस्जिद विवादों से बाहर निकलने की आवश्यकता है। इससे इन्कार नहीं कि विदेशी आक्रमणकारियों ने अनगिनत मंदिरों का ध्वंस किया। अतीत में हुए इन ज्यादतियों, अत्याचारों एवं विध्वंस घटनाक्रमों को सुधारने की संभावनाएं किसी भी दृष्टि से गलत नहीं कही जा सकती।

देश का चरित्र बनाना है तथा स्वस्थ, सौहार्दपूर्ण एवं शांतिपूर्ण समाज की रचना करनी है तो हमें एक ऐसी आचार संहिता को स्वीकार करना होगा जो जीवन में पवित्रता दे। राष्ट्रीय प्रेम व स्वस्थ समाज की रचना की दृष्टि दे एवं कदाचार-संकीर्णता-कट्टरता के इस अंधेरे कुएँ से निकाले। बिना इसके देश का विकास और भौतिक उपलब्धियां बेमानी हैं। व्यक्ति, परिवार और राष्ट्रीय स्तर पर हमारे इरादों की शुद्धता महत्व रखती है, जबकि हमने इसका राजनीतिकरण कर परिणाम को महत्व दे दिया। घटिया उत्पादन के पर्याय के रूप में जाना जाने वाला जापान आज अपनी जीवन शैली को बदल कर उत्कृष्ट उत्पादन का प्रतीक बन विश्वविख्यात हो गया। यह राष्ट्रीय जीवन शैली की पवित्रता का प्रतीक है। इसी तरह भारत भी आज विश्वविख्यात होने की दिशा में अग्रसर हो रहा है, तो उसकी बढ़ती साख एवं समझ को खण्डित करने वाली शक्तियों को सावधान करना ही होगा। भारत जैसी माटी में जन्म लेना बड़ी मुश्किल से मिलता है। विश्व बंधुत्व एवं वसुधैव कुटुम्बकम की विचारधारा वाला यह राष्ट्र विभिन्न संस्कृतियों एवं सम्प्रदायों को अपने में समेटे है तो यह यहां के बहुसंख्यक समुदाय की उदार सोच का ही परिणाम रहा है, इसी बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय को आखिर कब तक कमजोर किया जाता रहेगा? क्यों किया जायेगा? कल पर कुछ मत छोड़िए। कल जो बीत गया और कल जो आने वाला है- दोनों ही हमारी पीठ के समान हैं, जिसे हम देख नहीं सकते। आज हमारी हथेली है, जिसकी रेखाओं को हम देख सकते हैं। अब हथेली की रेखाओं को कमजोर करने एवं उसे लहूलुहान होते हुए नहीं देखा जा सकता?

एक सम्प्रदाय विशेष के हिंसक हमलों ने आज तेजी के साथ हिंसा, असहिष्णुता, नफरत, बिखराव और घृणा की साम्प्रदायिक जीवन शैली का रूप ग्रहण कर लिया है। यह खतरनाक स्थिति है, कारण सबको अपनी-अपनी पहचान समाप्त होेने का खतरा दिख रहा है। भारत मुस्लिम सम्प्रदायवाद से आतंकित रहा है। आवश्यकता है धर्म को प्रतिष्ठापित करने के बहाने राजनीति का खेल न खेला जाए। धर्म और सम्प्रदाय के भेद को गड्मड् न करें। धर्म सम्प्रदाय से ऊपर है। धर्म में धार्मिकता आये, कट्टरता न आये। राजनीति में सम्प्रदाय न आये, नैतिकता आए, आदर्श आए, श्रेष्ठ मूल्य आएँ, सहिष्णुता आये, सह-अस्तित्व के प्राचीन मूल्य एवं जीवनशैली आये। अतः सम्प्रदायवाद से ऊपर उठकर सार्वभौम धर्म का साक्षात्कार ही हममें नवीन आत्मविश्वास, सशक्त भारत-विकसित भारत का संचार करेगा। उपनिषदों में कहा गया है कि सभी मनुष्य सुखी हों, सभी भयमुक्त हों, सभी एक-दूसरे को भाई समान समझें। यह भारतीय धर्म चिन्तन का निचोड़ है और यही हिन्दू धर्म का निचोड़ है। जहां विश्व एक ही नीड़-सा लगे। भारत में हिन्दू-मुस्लिम हित परस्पर टकरा रहे हैं, इसलिए साम्प्रदायिकता बढ़ रही है। धार्मिकता नष्ट हो रही है। साम्प्रदायिकता का जन्म अनेक जटिल तत्वों से जुड़ा है – आर्थिक, धार्मिक एवं मनोवैज्ञानिक। इसमें मनोवैज्ञानिक ज्यादा महत्वपूर्ण है। हमारा जीवन दिशासूचक बने। गिरजे पर लगा दिशा-सूचक नहीं, वह तो जिधर की हवा होती है उधर ही घूम जाता है। कुतुबनुमा बने, जो हर स्थिति मे ंसही दिशा बताता है।