
संजय सक्सेना
पश्चिम एशिया में ईरान और इजरायल के बीच चल रहे तनाव और अमेरिका द्वारा ईरान के परमाणु ठिकानों पर किए गए हमलों ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक नई उथल-पुथल ला दी है। कांग्रेस की वरिष्ठ नेता सोनिया गांधी द्वारा हाल ही में एक अंग्रेज़ी अख़बार में प्रकाशित लेख ने खासा विवाद खड़ा कर दिया है। उन्होंने नरेंद्र मोदी सरकार की विदेश नीति, विशेषकर ईरान को लेकर, तीखी आलोचना की है और कहा है कि मौजूदा सरकार ने नैतिक मूल्यों और पारंपरिक कूटनीतिक संतुलन से समझौता किया है। सोनिया गांधी के इस बयान के बाद भाजपा ने उन्हें आड़े हाथों लिया और उनके लेख को ‘राजनीतिक घड़ियाली आंसू’ करार दिया। सवाल उठने लगे कि क्या सोनिया गांधी वास्तव में भारत-ईरान संबंधों को लेकर चिंतित हैं या यह सिर्फ एक रणनीतिक राजनीतिक दांव है, जिससे अल्पसंख्यक वोट बैंक को साधा जा सके? इन तमाम सवालों और आरोप-प्रत्यारोप के बीच यह जरूरी हो गया है कि भारत और ईरान के रिश्तों के इतिहास, वर्तमान और संभावित भविष्य को गहराई से समझा जाए।
भारत और ईरान के बीच रिश्ते हजारों साल पुराने सांस्कृतिक और व्यापारिक संबंधों पर आधारित हैं। दोनों देशों के बीच संबंधों की नींव सभ्यताओं के आदान-प्रदान, साहित्य, वास्तुकला, व्यापार और धर्म से जुड़ी है। आधुनिक काल में इन रिश्तों को ऊर्जा सुरक्षा, रणनीतिक साझेदारी और भू-राजनीतिक संतुलन ने नया आयाम दिया। खासकर चाबहार बंदरगाह परियोजना भारत के लिए न केवल मध्य एशिया तक पहुँच का एक अहम जरिया है, बल्कि यह चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (CPEC) का जवाब भी है।लेकिन भारत और ईरान के इन गहरे रिश्तों में 2005 में एक बड़ी दरार आई, जब मनमोहन सिंह की अगुआई वाली यूपीए सरकार ने अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) में ईरान के खिलाफ वोट दिया। यह एक ऐतिहासिक मोड़ था, क्योंकि यह पहली बार था जब भारत ने अपने पारंपरिक मित्र देश ईरान के खिलाफ खुले तौर पर अंतरराष्ट्रीय मंच पर विरोध जताया।
2005 में भारत अमेरिका के साथ नागरिक परमाणु समझौते को अंतिम रूप देने की प्रक्रिया में था। अमेरिका चाहता था कि भारत ईरान के परमाणु कार्यक्रम के खिलाफ IAEA में प्रस्ताव का समर्थन करे। अमेरिका के स्पष्ट दबाव और यह चेतावनी कि अगर भारत ईरान का समर्थन करेगा तो न्यूक्लियर डील रुक सकती है इन परिस्थितियों में भारत ने अमेरिका का साथ दिया और ईरान के खिलाफ मतदान किया।इस फैसले का घरेलू राजनीति में जबरदस्त विरोध हुआ। वामपंथी दलों, जो उस समय यूपीए को समर्थन दे रहे थे, ने इसे अमेरिका के सामने आत्मसमर्पण बताया। यही नहीं, उस समय कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी इस मुद्दे पर चुप्पी साधे रखी, जो आज के उनके लेख को संदिग्ध बनाती है। अगर 2005 में ईरान को ‘धोखा’ देना एक राष्ट्रीय विवेक था, तो 2025 में संतुलन साधने की नीति पर आपत्ति कैसे उचित ठहराई जा सकती है?
2024 में जब IAEA में अमेरिका और उसके सहयोगियों ने ईरान के खिलाफ प्रस्ताव लाया, तो भारत ने मतदान से दूरी बनाकर एक संतुलित रुख अपनाया। यह नीति बताती है कि भारत अब अमेरिका और पश्चिमी देशों के दबाव में नहीं, बल्कि अपने राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता दे रहा है। इस बीच भारत ने न तो ईरान के परमाणु हथियार कार्यक्रम का समर्थन किया, और न ही इजरायल-अमेरिका की हर सैन्य कार्रवाई का समर्थन।भारत ने हमेशा कहा है कि वह ईरान के शांतिपूर्ण परमाणु कार्यक्रम के पक्ष में है, लेकिन हथियारों के विकास को लेकर चिंतित है। यही संतुलन भारत की विदेश नीति की सबसे बड़ी ताकत है, जो न केवल उसे वैश्विक मंच पर जिम्मेदार राष्ट्र के रूप में पेश करती है, बल्कि उसे अमेरिका, इजरायल और ईरान तीनों के साथ रिश्ते बनाए रखने की क्षमता भी देती है।
वर्तमान में जब सोनिया गांधी ईरान को भारत का पुराना मित्र बताकर सरकार को घेर रही हैं, तो यह भी याद रखना चाहिए कि ईरान ने कई बार भारत के आंतरिक मामलों में दखल दिया है। 2024 में ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामेनेई ने एक बयान में कहा कि “अगर हम भारत, म्यांमार या गाजा में मुसलमानों की पीड़ा से अनजान हैं तो हम मुसलमान नहीं हैं।” भारत ने इस बयान को ‘ग़लत सूचना और अस्वीकार्य’ करार दिया था। इससे पहले ईरान ने अनुच्छेद 370 के हटाए जाने और CAA को लेकर भी भारत की आलोचना की थी।क्या ऐसे देश को “सदाबहार मित्र” कहना उचित है, जिसने बार-बार भारत के संप्रभु अधिकारों पर सवाल उठाए? क्या कांग्रेस इस बात को नजरअंदाज कर सिर्फ राजनीतिक लाभ के लिए ईरान के पक्ष में खड़ी हो रही है?
21 जून 2025 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित अपने लेख में सोनिया गांधी ने मोदी सरकार पर गाजा, फिलिस्तीन और ईरान के मुद्दों पर चुप्पी साधने का आरोप लगाया। उन्होंने लिखा कि “भारत की नैतिक स्थिति कमजोर हो गई है” और यह “एक आत्मघाती विदेश नीति है।” उन्होंने इस लेख में यह भी कहा कि भारत को फिलिस्तीन और ईरान जैसे पुराने मित्रों के साथ खड़ा होना चाहिए लेकिन यह लेख ऐसे समय में आया है जब कांग्रेस मुस्लिम वोट बैंक को फिर से अपने पक्ष में लाने की कोशिश कर रही है। पिछले वर्षों में यह वोट बैंक तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, AIMIM और आरजेडी जैसे क्षेत्रीय दलों की ओर खिसक गया है। इस पृष्ठभूमि में सोनिया गांधी का लेख और प्रियंका गांधी का संसद में फिलिस्तीन झंडे वाला बैग लाना भाजपा के आरोपों को बल देता है कि कांग्रेस एक बार फिर तुष्टिकरण की राजनीति की ओर लौट रही है।
भारत में इजरायल के राजदूत रूवेन अजार ने सोनिया गांधी के लेख पर नाराजगी जताते हुए कहा कि “जिस व्यक्ति का आप जिक्र कर रहे हैं, उन्होंने 7 अक्टूबर के हमलों की वैसी निंदा नहीं की जैसी होनी चाहिए थी। उन्होंने यह भी कहा कि ईरान की आक्रामकता को नजरअंदाज करना अस्वीकार्य है। अगर ईरान क्षेत्रीय आक्रामकता छोड़ दे और परमाणु हथियारों की दिशा में काम करना बंद करे, तो बातचीत का रास्ता हमेशा खुला है। यह बयान दर्शाता है कि भारत के लिए एक जिम्मेदार वैश्विक शक्ति की तरह संतुलन बनाए रखना कितना आवश्यक और जटिल कार्य है।
इस पूरे घटनाक्रम के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ईरान के राष्ट्रपति से सीधी बातचीत कर क्षेत्र में शांति बनाए रखने की अपील की। भारत ने स्पष्ट किया कि वह युद्ध नहीं, संवाद और स्थिरता का पक्षधर है। यही कारण है कि भारत न तो ईरान के खिलाफ प्रस्ताव का समर्थन कर रहा है, और न ही खुलकर उसका पक्ष ले रहा है।भारत की इस ‘विषम संतुलन’ नीति को अंतरराष्ट्रीय मंच पर सराहना भी मिल रही है, क्योंकि यह न केवल भारत के हितों की रक्षा करती है, बल्कि उसे उस रणनीतिक ‘स्वतंत्रता’ की स्थिति में भी रखती है, जो कई देशों के लिए मुश्किल है।
भारत की विदेश नीति आज सिर्फ अतीत की दोस्तियों या भावनात्मक संबंधों पर नहीं, बल्कि रणनीतिक विवेक, ऊर्जा सुरक्षा, क्षेत्रीय स्थिरता और वैश्विक जिम्मेदारी पर आधारित है। 2005 में कांग्रेस सरकार ने अमेरिका के दबाव में ईरान के खिलाफ वोट दिया, और अब वही कांग्रेस भाजपा सरकार पर अमेरिका की कठपुतली बनने का आरोप लगा रही है। यह विरोधाभास कांग्रेस की नीयत पर सवाल खड़ा करता है।भारत का मौजूदा रुख इस बात का प्रतीक है कि वह अब ‘गुटनिरपेक्षता’ से आगे बढ़कर ‘बहुपक्षीय संतुलन’ की नीति अपना चुका है। आज जब दुनिया दो ध्रुवों में बंटने की ओर बढ़ रही है भारत एक ऐसे राष्ट्र के रूप में उभरा है, जो सभी के साथ बात कर सकता है, लेकिन किसी का मोहरा नहीं बनता। यही भारत की असली कूटनीतिक जीत है।