नीति गोपेंद्र भट्ट
नई दिल्ली।राजस्थान में यह पहली बार नही है कि हाई कमान के पसन्द के विपरीत कोई नेता मुख्यमंत्री बनाहों । हाईकमान की इच्छा के विरुद्ध मुख्यमंत्री बनने की परम्परा राजस्थान में दशकों से चली आ रही है।
राजस्थान में विधायकों की राय के आगे एक बार नही दो बार नही तीन तीन बार कांग्रेस हाई कमान को झुकनापड़ा है और प्रदेश में विधायकों की राय पर ही हाई कमान को मुख्यमंत्री बनाने पड़े है । सबसे पहले सात दशकपूर्व 1949 में राजस्थान के पहलें मुख्यमंत्री हीरा लाल शास्त्री को प्रधानमंत्री पं जवाहर लाल नेहरु का पसन्दका नेता होने के बावजूद मारवाड़ के नेता जय नारायण व्यास की विधायक दल में बहुमत होने के कारणमुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा था और कांग्रेस हाईकमान की इच्छा के बावजूद विधायकों के बहुमत से जयनारायणव्यास मुख्यमंत्री बने थे। इसी प्रकार जयनारायण व्यास को भी विधायक दल में बहुमत खोने पर उन परपं.जवाहर लाल नेहरू का वरद हस्त होने के बावजूद 1951 में मेवाड़ के युवा तुर्क मोहन लाल सुखाडिया कोमुख्यमंत्री बनाना पड़ा और सुखाडिया ने लगातार सोलह वर्ष मुख्यमंत्री रह कर एक रिकार्ड बनाया था।राजस्थान में ऐसा ही तीसरा उदाहरण 1973 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी के कार्यकाल में देखा गयाजब इन्दिरा गाँधी के पसन्द के उम्मीदवार राम निवास मिर्धा को बरकतुल्लाह ख़ान के निधन के बाद खाली हुएमुख्यमंत्री के रिक्त हुए पद पर हाई कमान का प्रत्याशी होने के बावजूद विशाल दल नेता के चुनाव में वागड़ केहरिदेव जोशी के आगे विधायक दल के नेता का चुनाव हार गए थे और हरिदेव जोशी प्रदेश के मुख्यमंत्रीनिर्वाचित घोषित हुए थे ।जोशी भी तीन बार मुख्यमंत्री रहें। जोशी को उनके कार्यकाल के दौरान असंतुष्टों केदवाब में प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने मुख्यमंत्री के पद से हटा कर असम मेघालयऔर प बंगाल का राज्यपालबना कर प्रदेश से बाहर भेज दिया गया था लेकिन राजीव गाँधी को राजस्थान के विधायकों की राय पर उन्हेंपुनः तीसरी बार राजस्थान बुला कर मुख्यमंत्री बनाना पड़ा।
राजस्थान के वर्तमान परि दृश्य में क्या एक बार फिर से इतिहास की पुनरावृत्ति होंगी? यह देखना होगा।