ज्ञानेन्द्र पाण्डेय
रविवार 4 सितंबर 2022 को दिल्ली के रामलीला मैदान में केंद्र की भाजपा सरकार के खिलाफ आयोजित हल्ला बोल रैली से देश की सबसे पुरानी पार्टी काँग्रेस एक बार फिर जन चर्चा के केंद्र में आ गई है । इस रैली को संबोधित करते हुए पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने जिस आक्रामकता के साथ केंद्र की भाजपा सरकार और पार्टी की नीतियों को आड़े हाथों लिया , उस पर बहुत कुछ कहा – सुना जा चुका है , इस पर बहुत कुछ कहने की गुंजाइश नहीं है लेकिन इस बहाने काँग्रेस के अतीत पर कहने की गुंजाइश जरूर बची रहती है । इस साल ( 2022 ) 28 दिसम्बर को इस पार्टी की स्थापना के 135 साल पूरे हो जाएंगे । देश की सबसे पुरानी पार्टी की कई विशेषताएं हैं । इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जिस तरह केंचुआ कटने पिटने के बाद हर परिस्थिति में जीने के लिए तैयार मिलता है वैसे ही काँग्रेस भी अपने जीवन में उतार – चढ़ाव के तमाम थपेड़े खाने के बाद भी खुद को नई परिस्थितियों का जीवटता से सामना करने के लिए तैयार कर लेती है । इस बार भी काँग्रेस कुछ ऐसी ही परिस्थितियों का सामना कर रही है । यह भी एक संयोग ही कहा जाएगा कि जिस दिन काँग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी पार्टी की रैली को संबोधित कर रहे थे उसी दिन पार्टी के इसी पूर्व अध्यक्ष को बहाल – बुरा कहते हुए पार्टी से बाहर गए जम्मू – कश्मीर के एक बड़े नेता गुलाम नबी आजाद ने लगभग उसी व्यक्त जम्मू की एक रैली में अपनी नई पार्टी बनाने की घोषणा की थी । गुलाम नबी आजाद जैसे नेता के पार्टी से अलग होकर नई पार्टी बनाए , ऐसा काँग्रेस में पहली बार भी नहीं हुआ है । इस पार्टी की एक खूबी इस रूप में भी देखी जा सकती है कि अपने 137 साल की आयु में यह पार्टी कितनी ही बार टूटी है और फिर से ताकतवर बन कर उभरी है । काँग्रेस से टूट कर अभी तक 60 से अधिक पार्टियां बन चुकी हैं इनमें ज्यादातर का आज कोई वजूद नहीं हैं लेकिन बाद के दौर में बनी ममता बनर्जी की तृणमूल कॉंग्रेस और शरद पवार की राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी सरीखी कई पार्टियां अपने क्षेत्रीय रूप में आज भी वजूद में हैं ।
याद हो कि ब्रिटिश साम्राज्य के दौर में जब लॉर्ड डफरिन इस देश के वायसराय थे तब अंग्रेजी शासन के विरोध में थियोसोफिकाल सोसाइटी के एक ही अंग्रेज सदस्य ए ओ ह्यूम ने दो भारतीयों – दादाभाई नौरोजी और दिनशा वाचा के साथ मिल कर इस पार्टी की स्थापना की थी । तब यह तय किया गया था कि 25 दिसम्बर 1885 को पूना में पार्टी का पहला अधिवेशन होगा लेकिन बाद में यह तय किया गया कि काँग्रेस का पहला अधिवेशन 28 से 31 दिसम्बर को बॉम्बे के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज में होगा । यही हुआ भी । काँग्रेस के इस पहले अधिवेशन में 72 लोगों ने भाग लिया था और इसकी अध्यक्षता व्योमेश चंद्र बनर्जी ने की थी । इन्हीं बनर्जी ने पार्टी की स्थापना के सात साल बाद 1892 में सम्पन्न पार्टी के इलाहाबाद अधिवेशन की अध्यक्षता भी की थी । तब से लेकर आज तक काँग्रेस के 87 अध्यक्ष बन चुके हैं और अंतरिम अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी को काँग्रेस का 88 वां अध्यक्ष कहा जा सकता है । तमाम तरह की अटकलबाजियों के बीच काँग्रेस अध्यक्ष के चुनाव की तारीख का ऐलान भी हो चुका है । सब कुछ योजना के मुताबिक चलता रहा तो 18 अक्टूबर तक नए काँग्रेस अध्यक्ष का नाम घोषित हो जाएगा । इससे पहले 22 सितंबर को चुनाव की अधिकृत घोषणा के साथ ही उम्मीदवारों के नामांकन और नाम वापस लेने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी और नाम वापसी की तिथि के बाद एक से अधिक उम्मीदवार मैदान में बचे रहे तो 17 अक्टूबर को चुनाव होगा अन्यथा उसी दिन नए अध्यक्ष के नाम की घोषणा कर दी जाएगी ।
काँग्रेस अध्यक्ष बनने के लिए राहुल गांधी पर जबरदस्त दबाब है लेकिन वो 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी की शर्मनाक पराजय के बाद पार्टी मुखिया के पद से अलग होने के मुद्दे को आज भी प्रासंगिक मानते हैं इसलिए इस पद के इच्छुक नहीं हैं । पार्टी में भी दो तरह के विचार हैं । एक तबका किसी भी तरह राहुल को अध्यक्ष बनाए जाने की वकालत करता है तो दूसरा तबका गांधी परिवार के किसी भी सदस्य को पार्टी के अध्यक्ष पद से दूर रखने का समर्थक है । बहरहाल चुनाव के बाद इस कुहासे से भी पर्दा उठ जाएगा । गुलाम नबी आजाद के अलग होकर नई पार्टी बनाने के फैसले से काँग्रेस को कितना नुकसान होगा और काँग्रेस की प्रतिद्वंदी पार्टियां इसका कितना फायदा उठा पायेंगी , इसका पता को कश्मीर के आगामी विधानसभा और 2024 के लोकसभा चुनाव परिणाम सामने आने के बाद लग ही जाएगा लेकिन इतना जरूर है कि काँग्रेस इसके बाद भी अपना वजूद बना कर रखेगी । यह बात इतिहास की घटनाओं से सिद्ध भी हो चुकी है । किसी भी राजनीतिक संगठन में टूटने – जुडने की परिस्थितियाँ पार्टी नेताओं के बीच पनपने वाले वैचारिक मतभेद के चलते ही बनती हैं और यह सिलसिला बना ही रहता है . गौरतलब है कि आजादी के आंदोलन का संचालन करने के लिए 1885 में जिस काँग्रेस की स्थापना की गई थीउसी काँग्रेस में स्थापना के 22 साल बाद पहला विभाजन साल 1907 के सूरत अधिवेशन में हो गया था । इस विभाजन की वजह यह थी कि पार्टी का एक तबका आजादी के लिए अंग्रेजों के साथ आक्रामक रूप से लड़ने का पक्षधर था तो दूसरा धड़ अहिंसक असहयोग आंदोलन के जरिए आंदोलन करने का पक्षधर था । काँग्रेस के आक्रामक तेवर वाले तबके को गरम दल नाम दिया गया था और दूसरे तबके को नरम दल नाम दिया गया था । गरम डाल के काँग्रेस नेताओं में पंजाब केसरी लाला लाजपत राय , बाल गंगाधर तिलक और विपिन चंद्र पाल जैसे नेताओं के नाम थे और नरम दल के नेता थे – महात्मा गांधी , जवाहरलाल नेहरू सरदार बल्लभ भाई पटेल , व्योमेश चंद्र बनर्जी और दादाभाई नौरोजी ।
1918 के बॉम्बे अधिवेशन में भी पार्टी को एक और विभाजन का सामना करना पड़ा था । यह काँग्रेस का दूसरा विभाजन था । देश की आजादी से पहले इसके अलावा दो बार और भी काँग्रेस में विभाजन की नौबत आ गई थी । इसके चलते ही 1923 में मोतीलाल नेहरू और चित्तरंजन दास ने स्वराज पार्टी का गठन किया था 1939 में सुभाष चनद्र बोस ने शीलभद्र याजी और शार्दूल सिंह के साथ मिल कर फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन किया था । देश की आजादी के चार साल बाद एक चुनाव लड़ने वाली राजनीतिक पार्टी के रूप में अखिल भारतीय काँग्रेस पार्टी को साल 1951 में पहली बार विभाजन का सामना तब करना पड़ा था जब आचार्य जे बी कृपलानी ने काँग्रेस से अलग होकर किसान मजदूर प्रजा पार्टी और प्रोफेसर एन जी रंगा ने हैदराबाद स्टेट प्रजा पार्टी का गठन किया ठा । इसी साल सौराष्ट्र में भी क्षेत्रीय स्तर की काँग्रेस पार्टी का गठन हुआ था । इसी कड़ी मेंसाल 1956 में सी राजगोपालाचारी ने इंडियन नैशनल डेमोक्रेटिक पार्टी का गठन किया था । इसी तरह 1959 में देश के बिहार, ऑडिशा , गुजरात और राजस्थान राज्यों में काँग्रेस पार्टी का विभाजन हुआ था । 1964 में केरल में के एम जॉर्ज ने केरल काँग्रेस नाम से एक नई पार्टी का गठन किया था । 1967 में उत्तर भारत के प्रभावशाली काँग्रेस नेता चौधरी चरण सिंह ने भारतीय क्रांति दल के नाम से एक नई पार्टी बनाई थी । यही पार्टी बाद में भारतीय लोक दल भी कहलाई ।
1969 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में काँग्रेस का एक ऐसा विभाजन हुआ जिसने इंदिरा गांधी और उनके परिवार के किसी व्यक्ति के नेतृत्व वाले काँग्रेस संगठन को ही अखिल भारतीय स्तर की काँग्रेस पार्टी की पहचान दिलवा दी है । 1969 का यह काँग्रेस विभाजन देश की राजनीति में इसलिए भी अहं स्थान रखता है क्योंकि इसी विभाजन के चलते ही काँग्रेस को पार्टी के अधिकृत चुनाव चिन्ह दो बैलों की जोड़ी से हाथ धोना पड़ा था और इसके स्थान पर उस समय की इंदिरा काँग्रेस को गाय का दूध पीता हुआ बछड़ा चुनाव चिन्ह आबंटित हुआ था । बाद में इसके स्थान पर हाथ का पंजा काँग्रेस का अधिकृत चुनाव चिन्ह बना । बाद के दौर में 1988 में वी पी सिंह ने काँग्रेस से अलग होकर जनतादल का गठन किया था । स्वर्गीय अर्जुन सिंह , स्वर्गीय नारायण दत्त तिवारी सरीखे नेताओं ने तिवारी काँग्रेस स्वर्गीय माधान राव सिंधिया ने मध्य प्रदेश विकास काँग्रेस और जी के मऊपनार ने तमिल मनीला काँग्रेस जैसी कई अलग – अलग तरह की काँग्रेस पार्टियों का गठन किया जरूर था लेकिन बाद में इन सभी ने सोनिया गांधी की नेतृत्व वाली अखिल भारतीय काँग्रेस पार्टी में विलय करना ही ठीक समझा । अलबत्ता इसके समानांतर जगमोहन रेड्डी के नेतृत्व में अलग होकर बनी वाई एस आर काँग्रेस , ममता बनर्जी की नेतृत्व वाली तृणमूल काँग्रेस और शरद पवार की नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी क्षेत्रीय पार्टी के रूप में अपना वजूद जरूर बनाए हुए है । काँग्रेस से अलग होकर बनी 80 फीसदी से अधिक पार्टियां वाजोड़ में नहीं हैं । इससे एक बात और सिद्ध होती है कि काँग्रेस को अपनी राष्ट्रीय पहचान बनाए रखने के लिए गांधी – नेहरू परिवार के किसी सदस्य को अपना मुखिया बनाए रखना उसकी एक राजनीतिक विवशता ही है । क्षेत्रीय नेता ऐसी किसी पार्टी को क्षेत्रीय पहचान तो दे सकते हैं लेकिन राष्ट्रीय पहचान नहीं । शायद इसी वजह से काँग्रेस का एक बड़ा तबका राहुल गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाने के लिए जोर देता दिखाई दे रहा है ।