यूपी पंचायत जंग से पहले कांग्रेस-सपा साथ टूटा, 2027 की लड़ाई के संकेत साफ

Congress-SP alliance breaks up ahead of UP Panchayat battle, signals clear for 2027 battle

स्वदेश कुमार

उत्तर प्रदेश की सियासत में वह जोड़ी जिसने 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को कड़ी टक्कर दी थी, अब पंचायत चुनाव के ठीक पहले टूट चुकी है। “दो लड़कों की जोड़ी” कहे जाने वाले राहुल गांधी और अखिलेश यादव की दोस्ती जिस तेजी से परवान चढ़ी थी, उसी तेजी से अब दूरियां भी बढ़ती जा रही हैं। कांग्रेस ने तय किया है कि 2026 में होने वाले ग्राम पंचायत, क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत चुनाव वह पूरी तरह अपने दम पर लड़ेगी। इस फैसले के पीछे सिर्फ राजनीतिक रणनीति नहीं, बल्कि आने वाले 2027 के विधानसभा चुनाव की मजबूत तैयारी छिपी है।कांग्रेस के प्रदेश प्रभारी, प्रदेश अध्यक्ष, और सभी सांसदों के साथ दिल्ली में हुई बैठक के बाद एक स्पष्ट संदेश दिया गया अब यूपी में संगठन को जड़ों से मजबूत किया जाएगा, और हर बूथ, हर गांव में कांग्रेस की अपनी पहचान बनेगी। पार्टी का मानना है कि गठबंधन में रहकर छोटे कार्यकर्ताओं को अवसर सीमित हो जाते हैं। पंचायत चुनाव सिंबल पर भले न होते हों, लेकिन गांव की राजनीति का आधार इन्हीं चुनावों से तैयार होता है। कांग्रेस इसी जमीन को फिर से हासिल करना चाहती है, जिसे 1990 के दशक के बाद वह लगातार खोती गई।

उत्तर प्रदेश में कुल 57,694 ग्राम पंचायतें हैं। इन पंचायतों में ग्राम प्रधानों और लगभग साढ़े सात लाख से अधिक पंचायत सदस्यों का चुनाव होना है। इनके अलावा 74,345 क्षेत्र पंचायत सदस्य चुने जाएंगे, जो आगे चलकर 826 ब्लॉक प्रमुखों के लिए मतदान करेंगे। जिला स्तर पर 3,011 जिला पंचायत सदस्य चुनकर आगे जिला पंचायत अध्यक्ष के पद का फैसला करेंगे। इन सभी चुनावों की तैयारी अप्रैल से जुलाई 2026 के बीच मानी जा रही है। ग्रामीण इलाकों में इन चुनावों की गूंज विधानसभा चुनाव से भी ज्यादा होती है, क्योंकि यहां की राजनीति रिश्तों, जातीय समीकरणों और स्थानीय पकड़ पर आधारित रहती है। इसीलिए पंचायत चुनाव को 2027 के विधानसभा चुनाव का सेमीफाइनल कहा जा रहा है।कांग्रेस के अंदर यह बात साफ है कि यदि पंचायत चुनावों में 10 से 12 जिले भी ऐसे निकल आए जहां जिला पंचायत सदस्य ज्यादा संख्या में जीत हासिल कर लें, तो विधानसभा टिकट वितरण में पार्टी की मोलभाव की क्षमता काफी बढ़ जाएगी। 2024 के लोकसभा चुनाव में सपा ने कांग्रेस को सिर्फ 17 सीटें दी थीं। कांग्रेस को भरोसा है कि अब आंकड़े बदलेंगे और सीटों की संख्या बढ़ाने के लिए यह चुनाव उसके लिए बहुत बड़ा मौका है।

दूसरी ओर, समाजवादी पार्टी ने पहले से ही पंचायत चुनाव से एक कदम पीछे खींच लिया था। संगठन के भीतर उनका तर्क था कि पंचायत चुनाव में सपा कार्यकर्ताओं को अक्सर प्रशासनिक दबाव का सामना करना पड़ता है और परिणाम अपेक्षित नहीं आते। सपा स्थानीय चुनावों में अपनी ऊर्जा को विधानसभा 2027 तक बचाना चाहती है। इसी दूरी ने कांग्रेस को यह समझा दिया कि यदि अभी भी साझेदारी में रही तो अपना कोई खास विस्तार नहीं हो पाएगा। यही वजह रही कि अब अकेले चलने की रणनीति पर मुहर लग गई।केवल कांग्रेस ही नहीं, बल्कि भाजपा के सभी सहयोगी दल अपना दल (एस), आरएलडी, निषाद पार्टी और सुभासपा ने भी पंचायत चुनाव अपने दम पर लड़ने का ऐलान पहले ही कर दिया है। यह अपने-अपने जातीय आधार को गर्म रखने और कार्यकर्ताओं को ज्यादा टिकट देने की नीति है। भाजपा भले शासन में हो, लेकिन सहयोगी दलों की इच्छा होती है कि उनके वोटर समझें कि दल स्वतंत्र भी है, सिर्फ सहारे पर नहीं टिका। यही सोच कांग्रेस ने भी अपनाई है।पंचायत चुनाव की राजनीति सीधे-सीधे जाति और जमीन के समीकरणों पर निर्भर होती है। जहां कुर्मी बहुल इलाकों में अपना दल मजबूत होती है, वहीं पूर्वांचल में निषाद समाज पर संजय निषाद की पकड़ रही है। पश्चिम यूपी में जाट-गुर्जर मतदाताओं पर आरएलडी का प्रभाव है। कांग्रेस इस जातीय नक्शे को नए सिरे से देख रही है और दावा कर रही है कि वह जाति से ऊपर विकास और संविधान की रक्षा की राजनीति करेगी। लेकिन जमीनी सच यह है कि बिना जातीय जोड़तोड़ के पंचायत चुनाव जीतना लगभग नामुमकिन है।

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती है अपनी निष्क्रिय हो चुकी पंचायत स्तरीय इकाइयों को जागृत करना। लेकिन पार्टी ने इसके लिए 100-दिवसीय अभियान की शुरुआत कर दी है। जो कार्यकर्ता अधिक सदस्य बनाएगा, उसे प्रधान, बीडीसी या जिला पंचायत सदस्य के टिकट की प्राथमिकता दी जाएगी। इसी तरह जो नेता पंचायत में जीतता हुआ दिखेगा, उसे 2027 की विधानसभा टिकट की कतार में आगे रखा जाएगा। इस तरह कांग्रेस अपने कार्यकर्ताओं को सीधी प्रेरणा दे रही है लाओ जीत, पाओ टिकट। 2024 की जीत ने कार्यकर्ताओं में हौसला तो बढ़ाया, लेकिन कांग्रेस का अपना संगठन हर जिले में सक्रिय नहीं हो पाया है। खासकर बुंदेलखंड, तराई और पश्चिम यूपी के कुछ जिलों में पार्टी को जमीन तलाशने में काफी मेहनत करनी पड़ रही है। जबकि अवधी और पूर्वांचल के लगभग 200 विधानसभा क्षेत्रों को कांग्रेस ए-कैटेगरी मानकर वहां बड़ा फोकस करने वाली है। यहीं से पार्टी अपने परंपरागत वोट बैंक दलित, गरीब, अल्पसंख्यक मतदाताओं को फिर से एक छत के नीचे लाना चाहती है।कांग्रेस का यह भी मानना है कि पंचायत चुनावों के परिणाम मतदाता की मानसिकता का आईना होते हैं। यदि पार्टी यहां बढ़त पाती है, तो यह संदेश जाएगा कि भाजपा-सपा के बीच के संघर्ष में कांग्रेस तीसरा विकल्प बनकर उभर रही है। और यदि संगठन मजबूत हो गया, तो 2027 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को सीट-बंटवारे में मोलतोल की शक्ति हासिल होगी।

फिलहाल विपक्ष की इस टूट से भाजपा को तात्कालिक लाभ तो जरूर मिलेगा, लेकिन यह भी सच है कि भाजपा के सहयोगी भी अकेले लड़ रहे हैं। यह संकेत देता है कि यूपी की राजनीति अपनी नई रूपरेखा बनाने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रही है। हर दल अपने दम पर अस्तित्व की लड़ाई लड़ने को तैयार है। गठबंधन अब सिर्फ संसद के लिए होंगे, जमीन की राजनीति हर कोई खुद संभालेगा।अगले कुछ महीनों में यूपी की सियासत में पंचायत स्तर से उठने वाले नतीजे यह बताएंगे कि कौन-सा दल कितने पानी में है। कांग्रेस और सपा की दोस्ती की अगली परीक्षा 2026 के बाद होगी तभी पता चलेगा कि यह दूरी अस्थायी है या 2027 की राजनीति में एक-दूसरे के सामने खड़े होने का संकेत।फिलहाल, यह तय है ग्रामीण राजनीति के इस महायुद्ध में हर दल “एकला चलो” के रास्ते पर निकल चुका है। पंचायत चुनाव सिर्फ स्थानीय सत्ता का सवाल नहीं, बल्कि 2027 की कुर्सी तक पहुंचने का पहला बड़ा कदम है। और इसी राह पर अब कांग्रेस ने अपनी जंग शुरू कर दी है बिना सहारे, बिना समझौते, पूरी ताकत के साथ।