अजय कुमार
मुंबई की राजनीति में वह क्षण एक बार फिर सामने है, जब चुनाव सिर्फ एक स्थानीय निकाय का नहीं, बल्कि पूरे राज्य की दिशा तय करने वाला माना जाता है। बृहन्मुंबई महानगरपालिका (बीएमसी) के दिसंबर-जनवरी में प्रस्तावित चुनावों को लेकर इस बार सबसे बड़ा राजनीतिक धमाका तब हुआ, जब कांग्रेस ने महा विकास आघाड़ी (एमवीए) में बने रहने के बावजूद अकेले चुनाव मैदान में उतरने का निर्णय ले लिया। यह फैसला जितना साहसिक दिखाई देता है, उतना ही यह संकेतों और संदेशों से भरा हुआ भी है। मुंबई जैसे आर्थिक और राजनीतिक रूप से अत्यंत प्रभावशाली शहर में जहां हर सीट का महत्व है, वहां कांग्रेस का यह कदम पूरी राजनीति की रफ़्तार बदल सकता है। मुंबई कांग्रेस की अध्यक्ष वर्षा गायकवाड़ और संगठन के वरिष्ठ नेताओं ने यह मांग लंबे समय से उठाई थी कि पार्टी को बीएमसी जैसे विशाल मंच पर अपनी स्वयं की पहचान को सामने रखना चाहिए। पिछले कुछ वर्षों में गठबंधन राजनीति ने कांग्रेस के लिए उम्मीद से कम परिणाम दिए, विशेषकर स्थानीय निकायों में। वर्ष 2017 के बीएमसी चुनाव में कांग्रेस 31 सीटें लेकर तीसरे स्थान पर रही थी, जबकि भाजपा 82 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी थी। लेकिन इस बार समीकरण बिल्कुल बदल चुके हैं और यही कारण है कि कांग्रेस ने यह दांव खेला है। पार्टी के महाराष्ट्र प्रभारी रमेश चेन्निथला ने भी स्पष्ट कर दिया कि स्थानीय इकाई ने जबरदस्त उत्साह से यह मांग की, और नेतृत्व ने उनका मत स्वीकार किया।
कांग्रेस का यह फैसला यूं ही नहीं हुआ। बिहार विधानसभा चुनावों में जिस तरह गठबंधन का हिस्सा होकर कांग्रेस को उम्मीद से कम सीटें मिलीं, उससे पार्टी कार्यकर्ताओं में यह विश्वास पैदा हुआ कि स्वतंत्र लड़ाई अधिक फायदेमंद साबित हो सकती है। कई विश्लेषकों का मानना है कि कांग्रेस अगर बिहार में अकेले लड़ती, तो वह कम से कम छह सीटें जीत सकती थी और उसका वोट प्रतिशत 12 से 14 प्रतिशत तक जा सकता था। लेकिन गठबंधन की मजबूरी ने कांग्रेस को वह अवसर नहीं दिया। कार्यकर्ताओं और जमीनी नेताओं का उत्साह लगातार घट रहा था, और यही हताशा मुंबई में बड़े बदलाव का कारण बनी।मुंबई में कांग्रेस की स्थिति बिहार जितनी कमजोर नहीं है। यहां उसका परंपरागत वोट बैंक अभी भी काफी स्थिर है मुस्लिम वोटर लगभग 20–22 प्रतिशत, दलित 10–12 प्रतिशत और दक्षिण भारतीय समुदाय 8–10 प्रतिशत। यह तीनों समूह लंबे समय से कांग्रेस के कोर सपोर्टर रहे हैं। 2017 के चुनावों में जिन इलाकों में मुस्लिम बहुलता थी, वहां कांग्रेस ने बेहतर प्रदर्शन किया था। आज भी मुंबई के दक्षिण और मध्य इलाकों तथा बांद्रा, अंधेरी, वर्ली जैसे क्षेत्रों में कांग्रेस का संगठन मजबूत माना जाता है। यही नहीं, पार्टी ने हाल के वर्षों में 50,000 से अधिक नए सदस्य जोड़े हैं और 1000 से अधिक टिकट आवेदन प्राप्त हुए हैं। यह संगठनात्मक ऊर्जा कांग्रेस को अकेले मैदान में उतरने का आत्मविश्वास देती है।
लेकिन कांग्रेस की इस चाल के पीछे सिर्फ आत्मविश्वास ही नहीं, बल्कि राजनीतिक रणनीति भी है। पार्टी को सबसे अधिक असहजता एमएनएस से बढ़ती नज़दीकियों को लेकर थी। जब उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे के बीच हाल के महीनों में सहयोग के संकेत मिले मतदाता सूची में गड़बड़ियों के विरोध में हुई संयुक्त रैली इसका उदाहरण है तो कांग्रेस की चिंता गहराने लगी। राज ठाकरे की राजनीति पर कांग्रेस हमेशा सवाल उठाती रही है, खासकर ‘मराठी मानूस’ और प्रवासी-विरोधी अभियानों के कारण। वर्षा गायकवाड़ ने खुलकर कहा कि कांग्रेस कभी भी एमएनएस के साथ हाथ नहीं मिला सकती। यदि यह गठबंधन और मजबूत होता, तो न सिर्फ कांग्रेस को कम सीटें मिलतीं बल्कि उसका सेक्युलर वोट बैंक भी बिखर सकता था।उद्धव ठाकरे ने कांग्रेस के अकेले लड़ने के फैसले पर कहा कि हर दल को अपने निर्णय लेने की स्वतंत्रता है और शिवसेना (यूबीटी ) भी उसी तरह स्वतंत्र है। यह बयान दिखाता है कि एमवीए में सतही शांति के बावजूद अंदरूनी तनाव मौजूद है। कांग्रेस का मानना है कि यदि शिवसेना और एमएनएस मिलकर एक मजबूत मराठी फ्रंट बनाते हैं, तो कांग्रेस को सिर्फ 50–60 सीटें मिल सकती थीं, जबकि वह कम से कम 100 से अधिक सीटों पर लड़ने का दावा रखती है। कांग्रेस को यह भी आशंका है कि ‘मराठी बनाम अन्य’ की राजनीति में वह ‘आउटसाइडर’ बन जाएगी, जिससे उसके कोर वोटर्स दूर हो सकते हैं।
कांग्रेस की रणनीति में यह पहलू बेहद महत्वपूर्ण है कि अकेले लड़ने से उसे मुस्लिम और दक्षिण भारतीय वोटों का और अधिक एकजुट समर्थन मिल सकता है। एमएनएस के साथ शिवसेना की नजदीकी बढ़ने से मुस्लिम वोटर असहज हो सकते थे, और कांग्रेस इसी भावना का लाभ उठाकर स्वयं को एकमात्र मजबूत सेक्युलर विकल्प के रूप में प्रस्तुत करना चाहती है। यह कांग्रेस के लिए सिर्फ वोटों की राजनीति नहीं, बल्कि अपनी वैचारिक स्थिति का भी बयान है।हालांकि इस फैसले से सबसे अधिक लाभ भाजपा को होने की आशंका है। भाजपा 2017 से अब तक बीएमसी में सबसे बड़ी ताकत रही है। यदि विपक्ष विभाजित होकर लड़ता है, तो भाजपा को बहुत फायदा मिल सकता है। लेकिन कांग्रेस का तर्क है कि ‘कब तक हम अपनी कीमत पर दूसरों का फायदा कराते रहेंगे?’ पार्टी का मानना है कि एमवीए में उसकी भूमिका लगातार छोटी होती जा रही थी, और अब उसे अपनी ताकत और कमजोरी का आकलन खुद करना होगा।मुंबई कांग्रेस के दो लाख से अधिक सक्रिय कार्यकर्ता, वर्षों से सड़कों पर सक्रिय पार्षद और मजबूत बूथ संरचना कांग्रेस के फैसले को वजन देती है। यह सिर्फ चुनाव लड़ने का नहीं, बल्कि अपना खोया हुआ राजनीतिक आधार पुनः हासिल करने का मौका है। मुंबई जैसे शहर में जहां हर समुदाय की राजनीतिक समझ अलग होती है, कांग्रेस की सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि वह इस विविधता के भीतर अपनी जगह दोबारा बनाए। लेकिन अगर उसका वोट बैंक एकजुट हो गया, तो अकेले लड़ने का यह दांव उसके लिए गेम-चेंजर साबित हो सकता है।
बहरहाल, यह फैसला कांग्रेस के लिए जोखिम और अवसर दोनों लेकर आया है। मुंबई की बीएमसी का बजट 40,000 करोड़ रुपये से अधिक है देश की किसी भी नगरपालिका से बड़ा। यहां की राजनीति सिर्फ वार्डों तक सीमित नहीं रहती, बल्कि राज्य और राष्ट्रीय राजनीति तक असर डालती है। कांग्रेस ने इस चुनाव में अपने भविष्य को दांव पर लगा दिया है। अगर यह दांव सफल रहा, तो महाराष्ट्र की राजनीति में कांग्रेस की वापसी की कहानी लिखी जाएगी; लेकिन अगर यह असफल हुआ, तो पार्टी को गहरे संगठनात्मक पुनर्विचार की जरूरत पड़ेगी।मुंबई की राजनीति अब एक नए मोड़ पर है एक तरफ शिवसेना का अपना अस्तित्व बचाने का संघर्ष, दूसरी तरफ भाजपा की आक्रामक रणनीति, और अब कांग्रेस का अपने पैरों पर खड़े होने का ऐलान। यह चुनाव सिर्फ एक निकाय का नहीं, बल्कि मुंबई की पहचान, उसकी राजनीति, और महाराष्ट्र की सत्ता संतुलन का भी फैसला करेगा। कांग्रेस ने अपनी चाल चल दी है, अब जनता की बारी है कि वह तय करे कि क्या यह आत्मविश्वास मुंबई में नई राजनीति का द्वार खोलेगा या फिर विपक्ष को और ज्यादा विभाजित कर देगा।





