विपक्ष की सियासत का अखाड़ा बनती अदालतें

Courts are becoming the arena for opposition politics

अजय कुमार

भारत का सर्वोच्च न्यायालय, जिसे संविधान का रक्षक और न्याय का अंतिम गढ़ माना जाता है, अक्सर विपक्षी दलों की याचिकाओं को गंभीरता से लेता है। यह सवाल बार-बार उठता है कि आखिर क्यों अदालत ऐसी याचिकाओं को इतना महत्व देती है, जिनमें कई बार सियासत की बू आती है। जनता द्वारा चुनावों में ठुकराए गए नेता और राजनीतिक दल अदालतों के जरिए अपनी खोई हुई साख को पुनर्जनन देने की कोशिश करते हैं। यह एक ऐसा जटिल मसला है, जिसमें न्याय, लोकतंत्र, और राजनीति का त्रिकोण उभरकर सामने आता है। सर्वोच्च न्यायालय का मूल उद्देश्य संविधान की रक्षा करना और नागरिकों के मौलिक अधिकारों को सुनिश्चित करना है। संविधान का अनुच्छेद 32 अदालत को मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामलों में रिट याचिकाओं के जरिए हस्तक्षेप करने की शक्ति देता है। इसके अलावा, जनहित याचिकाओं (पीआईएल) ने अदालत को एक व्यापक मंच प्रदान किया है, जहां न केवल व्यक्ति, बल्कि समूह या संगठन भी सार्वजनिक महत्व के मुद्दों को उठा सकते हैं। विपक्षी दल, जो अक्सर सत्ता से बाहर होते हैं, इन प्रावधानों का उपयोग करके अपनी बात को जनता और सरकार तक पहुंचाने की कोशिश करते हैं। लेकिन क्या यह सिर्फ सियासत है, या इसके पीछे कोई गहरा लोकतांत्रिक मकसद भी छिपा है?

विपक्षी दलों की याचिकाएं कई बार उन मुद्दों पर केंद्रित होती हैं, जो जनता के व्यापक हित से जुड़े होते हैं। उदाहरण के लिए, चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता, सरकारी नीतियों में जवाबदेही, या मौलिक अधिकारों का उल्लंघन जैसे विषयों पर याचिकाएं दायर की जाती हैं। ये याचिकाएं भले ही राजनीति से प्रेरित दिखें, लेकिन कई बार ये सरकार की जवाबदेही को सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। मिसाल के तौर पर, सर्वोच्च न्यायालय ने हाल के वर्षों में कई ऐसे मामलों में हस्तक्षेप किया है, जहां विपक्षी दलों ने चुनावी बांड योजना, मतदाता सूची में गड़बड़ी, या सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को उठाया। इनमें से कुछ याचिकाओं ने सरकार को नीतिगत बदलाव करने के लिए मजबूर किया, जिससे लोकतंत्र को मजबूती मिली।

हालांकि, यह भी सच है कि कई बार विपक्षी दल ऐसी याचिकाओं का इस्तेमाल अपनी राजनीतिक छवि को चमकाने के लिए करते हैं। जनता द्वारा चुनावों में हारने के बाद ये दल अदालतों को एक मंच के रूप में देखते हैं, जहां वे अपनी प्रासंगिकता साबित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, अगर कोई विपक्षी दल किसी नीति के खिलाफ याचिका दायर करता है और सर्वोच्च न्यायालय उस पर सुनवाई करता है, तो यह दल मीडिया और जनता के बीच यह संदेश देने में सफल हो जाता है कि उनकी बात में दम है। भले ही याचिका खारिज हो जाए, लेकिन सुनवाई की प्रक्रिया ही उनके लिए एक नैतिक जीत बन जाती है। यह एक तरह से सियासत का नया अखाड़ा बन गया है, जहां अदालतें अनजाने में राजनीतिक दलों के लिए एक मंच प्रदान कर देती हैं।

सर्वोच्च न्यायालय का रुख भी इस मामले में विचारणीय है। अदालत का यह दायित्व है कि वह हर उस याचिका पर विचार करें, जिसमें संवैधानिक या सार्वजनिक महत्व का प्रश्न उठाया गया हो। कई बार ऐसी याचिकाएं, जो सतह पर सियासी लगती हैं, वास्तव में संवैधानिक सिद्धांतों या कानूनी प्रक्रियाओं से जुड़ी होती हैं। उदाहरण के लिए, 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने राजनीति के अपराधीकरण पर एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया, जिसमें राजनीतिक दलों को अपने प्रत्याशियों के आपराधिक रिकॉर्ड को सार्वजनिक करने का आदेश दिया गया। यह आदेश एक विपक्षी दल की याचिका के आधार पर आया था, लेकिन इसका प्रभाव पूरे राजनीतिक तंत्र पर पड़ा। ऐसे में, यह कहना गलत होगा कि हर याचिका सिर्फ सियासत से प्रेरित होती है।

दूसरी ओर, यह भी देखा गया है कि कुछ याचिकाएं केवल प्रचार के लिए दायर की जाती हैं। ऐसी याचिकाएं, जिनमें कोई ठोस कानूनी आधार नहीं होता, अदालत का समय और संसाधन बर्बाद करती हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार ऐसी याचिकाओं को खारिज करते हुए याचिकाकर्ताओं पर जुर्माना भी लगाया है। फिर भी, अदालत की उदारता और पीआईएल की सुगम प्रक्रिया के चलते ऐसी याचिकाओं की बाढ़ नहीं रुकती। यह एक दोधारी तलवार है। एक ओर अदालत का दरवाजा हर नागरिक के लिए खुला रखना जरूरी है, ताकि वास्तविक अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई जा सके; दूसरी ओर, इस प्रक्रिया का दुरुपयोग सियासी मकसदों के लिए हो रहा है।

विपक्षी दलों के लिए अदालतें एक तरह से वैकल्पिक मंच बन गई हैं, जहां वे सरकार को कठघरे में खड़ा कर सकते हैं। खासकर तब, जब संसद में उनकी आवाज दब रही हो या जनता का समर्थन कम हो। लेकिन यह प्रक्रिया हमेशा नकारात्मक नहीं होती। कई बार ऐसी याचिकाओं ने सरकार को जवाबदेह बनाया है। मिसाल के तौर पर, पर्यावरण, शिक्षा, या स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर विपक्षी दलों की याचिकाओं ने नीतिगत बदलावों को प्रेरित किया है। फिर भी, यह सवाल बना रहता है कि क्या अदालतों को इतनी आसानी से सियासी खेल का हिस्सा बनने देना चाहिए?

सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका न केवल कानून की व्याख्या करना है, बल्कि लोकतंत्र के संतुलन को बनाए रखना भी है। अगर अदालत हर याचिका को खारिज करने लगे, तो यह संवैधानिक अधिकारों के हनन का रास्ता खोल सकता है। लेकिन अगर वह हर याचिका को गंभीरता से लेती रहे, तो सियासी दलों को अपनी राजनीति चमकाने का एक आसान रास्ता मिल जाता है। इस स्थिति में अदालत को एक संतुलन बनाना होगा। शायद याचिकाओं की जांच के लिए और सख्त मानदंड तय करने की जरूरत है, ताकि केवल वही मामले सुनवाई के लिए स्वीकार हों, जो वास्तव में सार्वजनिक हित से जुड़े हों।

यह कहना उचित होगा कि सर्वोच्च न्यायालय की उदारता और उसका हर आवाज को सुनने का रवैया ही उसे लोकतंत्र का मजबूत स्तंभ बनाता है। लेकिन इस उदारता का दुरुपयोग रोकने के लिए भी कदम उठाने होंगे। विपक्षी दलों की याचिकाएं भले ही सियासत से प्रेरित हों, लेकिन कई बार यही याचिकाएं लोकतंत्र को मजबूत करने का काम करती हैं। यह एक ऐसा विरोधाभास है, जो भारत के लोकतंत्र और न्यायिक व्यवस्था को और भी जटिल और रोचक बनाता है।