शिशिर शुक्ला
मानव और प्रकृति का नितांत गहरा संबंध है। सौरमंडल में पृथ्वी ही एकमात्र ऐसा ग्रह है जिस पर प्रकृति ने अपनी विशेष कृपा बरसाई है। पृथ्वी पर मानव के प्रादुर्भाव के साथ ही मानव और प्रकृति के मध्य एक अटूट संबंध जुड़ गया था। प्रकृति ने इस संबंध में एक नियंता एवं संरक्षक की भूमिका का निर्वहन किया एवं मानव ने प्रकृति में माता के रूप के दर्शन करते हुए स्वयं को उसके समक्ष सदैव एक शिशु की भांति प्रस्तुत किया। प्रकृति ने मनुष्य को नदी, सागर, वृक्ष, पौधे, फूल, फल, पशु, पक्षी इत्यादि के रूप में संसाधनों का एक अमूल्य व अथाह कोष प्रदान किया। मानव सभ्यता के विकास के प्रारंभिक चरण में मानव प्रकृति का पूजक हुआ करता था। प्रकृति के द्वारा उसे जो कुछ भी प्राप्त हुआ, उसने प्रकृति की कृपा एवं वरदान समझकर उसे ग्रहण किया। किंतु शनैःशनैः मानव सभ्यता विकास के पथ पर उत्तरोत्तर तीव्र गति से अपने कदमों को आगे बढ़ाने लगी और एक समय ऐसा भी आया जब विज्ञान एवं तकनीकी ने इस सीमा तक प्रगति कर ली कि अब उसने मानव के जीवन के प्रत्येक क्षण को अपनी गिरफ्त में ले लिया। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अपनी बुद्धि एवं विवेक के बल पर तकनीकी को अत्युन्नत दशा में पहुंचाने में सफल हो जाने के कारण मानव के अंदर “अहम् ब्रह्मास्मि” जैसी अहंकारयुक्त भावना ने जन्म ले लिया। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि मनुष्य जो अभी तक प्रकृति में ईश्वर का दर्शन किया करता था, अब उस पर विजय पाने का प्रयास करने लगा। मानव के इन दुष्प्रयासों से स्वयं उसका ही अहित होना आरंभ हो गया। प्रकृति के साथ मनमाने ढंग से छेड़छाड़ व खिलवाड़ करने के कारण शीघ्र ही प्रकृति ने अपने विनाशकारी रूप के दर्शन भी मनुष्य को करा दिए। किंतु कटुसत्य तो यह है कि मानव की प्रकृति को जीतने की जिद एवं प्रकृति के साथ लगी होड़ ने धीरे धीरे एक संघर्ष का रूप धारण कर लिया है जिसमें मानव प्रकृति से किसी भी कीमत पर हार मानने को तैयार नहीं है।
भूगोल में किए गए शोधों के अनुसार पृथ्वी की आंतरिक प्लेटों के विस्थापन एवं उनमें हुए टकराव के परिणामस्वरूप पर्वत जैसी स्थलाकृतियों का जन्म हुआ। भारतवर्ष में हिमालय, अरावली एवं विंध्य जैसी पर्वत श्रंखलाएं इसी प्रक्रिया से बनी है। हिमालय पर्वत श्रृंखला अंटार्कटिका एवं आर्कटिक के बाद विश्व में हिम का तीसरा सबसे बड़ा भंडार है। पर्वत श्रृंखलाओं पर हजारों वर्षों के समय में हिम की परतें जमा हो जाने से हिमनदों (ग्लेशियर) का निर्माण हुआ। ये ग्लेशियर ही वस्तुतः गंगा जैसी सदानीरा एवं जीवनदायिनी सरिताओं के स्रोत हैं। भारत के उत्तराखंड में गंगोत्री ग्लेशियर जोकि अनेक ग्लेशियरों का समूह है, गंगा की प्रारंभिक धारा भागीरथी का स्रोत है। किंतु ग्लेशियरों के संबंध में वर्तमान आंकड़े चौंकाने वाले एवं चिंताजनक हैं। ऐसा प्रकाश में आया है कि गंगोत्री ग्लेशियर, जोकि लगभग 4 किमी ऊंचाई पर स्थित है, प्रतिवर्ष 12 से 15 मीटर पीछे की तरफ खिसक रहा है। पिछले 15 वर्षों में इसके पिघलने की गति तीव्रतर हुई है। इस ग्लेशियर का मुहाना जोकि गाय के मुख सदृश आकृति का था, वर्तमान में विलुप्त हो चुका है और पिछले 150 वर्षों में ग्लेशियर अपने मुहाने से 4 किलोमीटर पीछे चला गया है। जीवनदायिनी मां गंगा को जीवन देने वाले ग्लेशियर के अस्तित्व पर दिन प्रतिदिन खतरा मंडरा रहा है।
प्रश्न यह उठता है कि आखिरकार इस प्राकृतिक असंतुलन के पीछे कौन जिम्मेदार है। प्रकृति के इस क्षय के लिए तकनीकी का सहारा लेकर अपनी सीमाओं को लांघती मानवीय गतिविधियां एवं प्रकृति के साथ मानव का अतिहस्तक्षेप ही पूर्णतया उत्तरदायी है। औद्योगिकरण की बढ़ती लहर के फलस्वरूप प्रतिक्षण ग्रीन हाउस गैसों का बढ़ता उत्सर्जन एवं ग्लोबल वार्मिंग का बढ़ता स्तर, साथ ही साथ हमारे सुरक्षा कवच के रूप में विद्यमान वृक्षों की निरंतर कटाई, दिन प्रतिदिन पर्यावरण प्रदूषण का बढ़ता स्तर इत्यादि कुछ ऐसे कारक हैं जिनका सीधा सा दुष्परिणाम वैश्विक ताप की वृद्धि के रूप में सामने आता है। नतीजा यह होता है कि ग्लेशियरों के पिघलने की दर हिमीकरण की दर से कई गुना अधिक बढ़ जाती है। नदियों में बाढ़, समुद्र का जलस्तर बढ़ना, तटीय इलाकों का जलमग्न होना, जैव विविधता एवं जलवायु का असंतुलन, कृषि उत्पादन में कमी, ताजे जल एवं उपजाऊ मिट्टी की कमी इत्यादि गंभीर दुष्परिणाम ग्लेशियरों के ताप में वृद्धि के परिणामस्वरूप उत्पन्न होते हैं। पृथ्वी के लिए ग्लेशियरों पर जमी बर्फ की चादर अतिरिक्त ऊष्मा को अंतरिक्ष में भेजकर एक सुरक्षा कवच का कार्य करती है। गंगा नदी जोकि भारत की आबादी के एक प्रमुख हिस्से की प्यास बुझाती है, अपने अस्तित्व के लिए गंगोत्री ग्लेशियर पर आश्रित है। मैदानों में उपजाऊ मिट्टी का जमाव नदियों द्वारा बहाकर लाई गई ग्लेशियरों की तलछट से ही होता है।
ग्लोबल वार्मिंग एवं पर्वतीय क्षेत्रों में बढ़ रही मानवीय गतिविधियों के परिणामस्वरूप कल कल निनाद करने वाली नदियों के मूल स्रोत तेजी से पिघल रहे हैं। एक आंकड़े के अनुसार वर्ष 2100 तक दुनिया के लगभग एक तिहाई ग्लेशियर पिघलकर विलुप्त हो जाएंगे एवं वर्ष 2040 तक गर्मी की ऋतु में आर्कटिक क्षेत्र से बर्फ गायब हो जाएगी। गंगोत्री ग्लेशियर पर कार्बन व कचरे की परत जमा हो जाने से उसका नीला रंग काले रंग में परिवर्तित हो गया है। यह एक गंभीर एवं विचारणीय विषय है। हमें यदि मां गंगा को सुरक्षित एवं संरक्षित देखना है, तो गंगोत्री जैसे ग्लेशियरों को बचाने के लिए हमें एक सक्रिय पहल करनी होगी। इसके लिए यह नितांत आवश्यक है कि उच्च हिमालयी क्षेत्रों में धर्म व पर्यटन के नाम पर हो रही मानवीय गतिविधियों को अति सीमित किया जाए। साथ ही साथ उन सभी क्रियाकलापों एवं गतिविधियों पर लगाम लगाई जाए जिनके कारण वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैसों की मात्रा बढ़ रही है एवं वैश्विक तापन जैसी भीषण समस्या उत्पन्न हो रही है। यदि हम महज अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु इसी तरह प्रकृति से खिलवाड़ करते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब गंगा जैसी नदी केवल इतिहास के पन्नों में सिमटकर रह जाएगी। गंगा का अस्तित्व मिटने का सीधा सा अर्थ है- भारतवर्ष के लिए एक भीषण अभिशाप।