हर अच्छा व्यक्ति सिविल सर्वेंट नहीं बन सकता और हर सिविल सर्वेंट अच्छा व्यक्ति नहीं बन सकता। आज समाज में एक निरक्षर दशरथ मांझी का जो सामाजिक मूल्य है, उस आभामंडल के सामने नीरा यादव जैसी भ्रष्टतम सैकड़ों आईएएस का मूल्य शून्य है। फिल्म मे एक किरदार है दादी का। ऐसी दादी जो अपने बेटे को तो क्रांति करने दूसरे शहर भेज देती है लेकिन पीछे छूटी अपनी बहू की दुश्मन है। ये सास पितृसत्ता की जीती जागती तस्वीर है, फिल्म देखते समय आम समझ के आम लोगों के लिए वो एक पोते के लिए जबरदस्त किरदार है लेकिन इतनी शातिर है कि शायद आपको बमुश्किल ही गहन चिंतन के बाद ये बात पता चले। फ़िल्म देखकर आधी जनता पागल हो चुकी है। वहीं एक गौरी भैया का जीवन बर्बाद हुआ पड़ा है, भेड़- बकरी की जिंदगी में एक शेर बन भी गया तो क्या हुआ? इससे ज्यादा कुछ नही होता। इसलिए हवा में मत रहिये, जमीन पर चलिए। यही लड़की जो मनोज का साथ दे रही थी, ये भी मनोज को एरोनॉटिकल इंजीनियर समझ कर ही उनसे नजदीक आई थी। चक्की वाला मजदूर जानती तो ताकती नही। खैर कुछ अनुभव ऐसे होते हैं जो बिना लात खाये समझ नहीं आते।
डॉ सत्यवान सौरभ
हर व्यक्ति सिविल सर्विसेज पास करके आईएएस/आईपीएस नहीं बन सकता, क्योंकि यह जीवन का एक पड़ाव हो सकता है, लेकिन अंतिम लक्ष्य नही। जीवन का अंतिम लक्ष्य एक ऐसा इंसान बनना होना चाहिए, जिसे उसकी कर्मठता से जाना जाये, न कि उसके पद से। बाकी मेहनत करके भी जब मुकाम नही मिलता, तो कष्ट तो होता ही है, लेकिन इसी 12वी फेल फिल्म के क्लाइमेक्स सीन के एक संवाद में इस दर्द का भी बेहतरीन उत्तर है जिसमें, मनोज शर्मा जी के पात्र से यूपीएससी के इंटरव्यू में यह सवाल पूछा जाता है कि यह उनका अंतिम प्रयास है और यदि चयन न हुआ तो? इस पर मनोज शर्मा जी का किरदार जवाब देता है-यदि मैं सूरज बनकर पूरे संसार को रोशनी न दे पाया तो भी मैं लैंप बनकर अपने मोहल्ले को तो रोशन कर ही सकता हूँ। यही संवाद फिल्म की आत्मा है। हर अच्छा व्यक्ति सिविल सर्वेंट नहीं बन सकता और हर सिविल सर्वेंट अच्छा व्यक्ति नहीं बन सकता। आज समाज में एक निरक्षर दशरथ मांझी का जो सामाजिक मूल्य है, उस आभामंडल के सामने नीरा यादव जैसी भ्रष्टतम सैकड़ों आईएएस का मूल्य शून्य है। फिल्म मे एक किरदार है दादी का।
ऐसी दादी जो अपने बेटे को तो क्रांति करने दूसरे शहर भेज देती है लेकिन पीछे छूटी अपनी बहू की दुश्मन है। ये सास पितृसत्ता की जीती जागती तस्वीर है, फिल्म देखतेसमय आम समझ के आम लोगों के लिए वो एक पोते के लिए जबरदस्त किरदार है लेकिन इतनी शातिर है कि शायद आपको बमुश्किल ही गहन चिंतन के बाद ये बात पता चले। इसे यूं समझिये। दादी को दादा की यानी उसके पति की पेंशन मिलती है। जब बेटे को सस्पेंशन के विरुद्ध केस लड़ने के लिए भेजती है तो वो बार -बार कहती है कि ख़र्चे के लिए पेंशन का एक पैसा नहीं दूंगी। उसके बेटे की बहू अपने पति को खूब रोकती है कि परिवार कैसे चलेगा। लेकिन माँ साथ देती है और कहती है, जा लड़ लेकिन फिर कहती है पेंशन का एक पैसा नहीं दूंगी बहू को घर चलाने के लिए। धीरे-धीरे घर के हालात बुरे होते है, गाय, भेड़ -बकरियां तक बिक जाती है। फिर लगा सिर्फ डायलाग है। लेकिन असलियत तब खुलती है जब पोता यानी खानदान का बेटा शहर जाकर ग्रेजुएट हो जाता है। तब दादी खोलती है पैसों का पिटारा। पोते को पेंशन के पूरे पैसे देकर कहती है, जा डीएसपी बन कर आ, दादा का नाम रोशन कर।
मतलब, चाहे बहू मर जाती, पैसे न देती, खुद को बेच आती तो भी उस पर जी लेती लेकिन बहू और उसके परिवार की मदद न करती। कुछ सास ऐसी ही होती है। जिनके लिए बेटा और पोता ही मायने रखते है। बहू; वो दूसरे घर से आयी हुई होती है। मरे या कटे, घर चलाना उसका ही काम है। बहुत लोग कहेंगे कि अच्छी फिल्म मे कमी निकालते हो। लेकिन यही सच है कि जब ऐसा दिखाया जाएगा तो अच्छे के नीचे दबे उस गंद को भी तो सामने लाया जाये। हमारे घरों में जो आये रोज होता है उसको फिल्म मे बहुत हद्द तक सही दिखाया है। ऐसा होता भी है, लेकिन ऐसा क्यों होता है उसका विश्लेषण ही समाज की व्यवस्था को दिखाता है। फिल्म में बाप का किरदार, अपने ऑफिसर को चप्पल से पीटता है, दादी गोली चलाती है, एक पोता विधायक के चमचे को चप्पल से मारता है और दूसरा पोता भी शहर मे अपने बॉस को मारने के लिए लिए चप्पल उठा लेता है। गरीब होकर भी चप्पल मारने की जो हिम्मत देता है वह एक सन्देश है, इसे खुद समझना होगा।
प्यार एक पूंजीवादी विचारधारा है। लड़कियों के सपने में आईएएस/आईपीएस ही आते हैं। चक्की पर काम करने वाले मजदूर नही। दूसरी लड़की को पहचान रहे हैं जो अपने करियर के लिए विवाह की रात में भाग गई थी? उसने गलत क्या किया था? एकदम सही किया था। मजे की बात देखिये लड़का फिल्म में आईएएस इसलिए बना क्योंकि उसको बदला लेना था। उसको देश- दुनिया, समाज से कोई लेना-देना नही था, वरना वो क्लर्क की नौकरी में भी खुश था। मोटिवेशन तो ऐसा पागल किया है कि पढ़े-लिखे लड़के राह चलते मदारी से भी प्रेरित हो जाते हैं। फिर ये तो फ़िल्म थी। अब ऐसा लग रहा सब आईपीएस बन जाएंगे। लेकिन उनको साथ देने वाली चाहिए। साथ छोड़ देगी कोई तो ज्यादा ऊंची पोस्ट मिल जाएगी। पर बिना दिल टूटे कुछ होने वाला नही है। बस प्यार मोहब्बत सिखाया जाए। 16 घण्टा काम करके पढ़ाई करने का नाटक वही दिखा सकता है जो पहले ही पेपर पास कर चुका हो। इस लड़के की भी एक महिला मित्र थी। इसको छोड़कर वो क्यों चली गयी? उसका ध्यान किसी को नही है। सबका ध्यान एक सफल पुरुष की महिला मित्र की ओर है। वो कहता है कि बेटा! तेरा सिलेक्शन नही होगा तो ये तुझे भी छोड़कर चली जायेगी। जैसे मेरी वाली चली गयी। और चली ही गयी थी।
पहचानने से इनकार कर दिया था कि घर पर क्यों आये हो? जिसमें क्षमता है, भविष्य है, उसी को कोई चुनता है, किसी आईएएस या आईपीएस महिला अधिकारी को किसी चक्की वाले से प्यार नही होता। प्यार होता है सम्भावना से। सुनहरे भविष्य से। लेकिन बॉलीवुड के दर्शक हैं? लड़कों को जैसे नैतिक बल मिल गया है कि अब ऐसी लड़की से मोहब्बत करेंगे जो उसके साथ तैयारी करे। उनकी गरीबी का मजाक न उड़ाए। स्टडी मैटेरियल दे। साथ मे मेहनत करेंगे। लिव इन में रहेंगे। बाद में ऐसा कहकर सबको चौंका दे कि ये सिलेक्शन हमारी महिला मित्र की वजह से हुआ है। फ़िल्म देखकर आधी जनता पागल हो चुकी है। वहीं एक गौरी भैया का जीवन बर्बाद हुआ पड़ा है, भेड़- बकरी की जिंदगी में एक शेर बन भी गया तो क्या हुआ? इससे ज्यादा कुछ नही होता। इसलिए हवा में मत रहिये, जमीन पर चलिए। एक दर्शक की नज़र में; यही लड़की जो मनोज का साथ दे रही थी ये भी मनोज को एरोनॉटिकल इंजीनियर समझ कर ही उनसे नजदीक आई थी। चक्की वाला मजदूर जानती तो ताकती नही। खैर कुछ अनुभव ऐसे होते हैं जो बिना लात खाये समझ नही आते।