भीड़ प्रबंधन: कब तक होगी ये चूक?

Crowd management: How long will this lapse continue?

सोनम लववंशी

बेंगलुरु में रॉयल चैलेंजर्स बेंगलुरु (आरसीबी) की ऐतिहासिक जीत का जश्न जिस हर्षोल्लास से शुरू हुआ, वह कुछ ही पलों में भगदड़ और चीख-पुकार में बदल गया। चिन्नास्वामी स्टेडियम के बाहर उमड़े लाखों समर्थकों का हुजूम एक बार फिर उस कटु यथार्थ को सामने ले आया जिसे हम बार-बार अनदेखा करते रहे हैं—भीड़ प्रबंधन में हमारी विफलता। घायल लोगों की चीखें, रुंधती सांसें और कुछ की थमती धड़कनें सिर्फ एक दुर्घटना नहीं थीं, बल्कि उस व्यवस्था की असफलता की परछाई थीं, जो हर बार चेतावनी के बावजूद सचेत नहीं होती। सवाल वही पुराना है कि आख़िर जिम्मेदार कौन? क्योंकि ‘भीड़’ एक ऐसा शब्द है जो सुनने में सामान्य लगता है, लेकिन जब यह नियंत्रण से बाहर हो जाए तो एक भयावह शक्ति बन जाती है। भारत जैसे देश में जहां जनसंख्या का घनत्व हर क्षेत्र में साफ दिखता है, वहां हर बड़ा आयोजन, चाहे वह धार्मिक हो, सांस्कृतिक हो या राजनीतिक, संभावित खतरे का पर्याय बन चुका है। मगर हैरानी इस बात की है कि हर बार, हर हादसे के बाद, हम एक जैसे सवाल पूछते हैं और फिर सबकुछ धीरे-धीरे भुला दिया जाता है।

कोई भी भीड़ अचानक नहीं बनती। वह किसी उद्देश्य, भावना या आस्था के तहत एकत्र होती है। परंतु त्रासदी तब जन्म लेती है जब उसे नियंत्रित करने वाली व्यवस्थाएं या तो लचर होती हैं या पूरी तरह अनुपस्थित। हमारे देश में ऐसे आयोजन जिनमें भीड़ की संभावना पहले से होती है, उनके लिए कोई ठोस रणनीति नहीं बनाई जाती या बनाई भी जाती है तो उसका पालन नहीं होता। प्रशासकीय योजनाएं फाइलों में सिमट जाती हैं, और धरातल पर मौजूद सुरक्षाकर्मी किसी भी आपात स्थिति के लिए तैयार नहीं होते। इससे भी चिंताजनक बात यह है कि आयोजक खुद भीड़ को केवल एक संख्या के रूप में देखते हैं “लाखों लोग आए थे” कहने की होड़ में वे यह भूल जाते हैं कि इन लाखों के पीछे उतनी ही बड़ी जिम्मेदारी भी है। वे न तो प्रवेश और निकासी के मार्गों की योजना बनाते हैं, न स्वास्थ्य सुविधाएं सुनिश्चित करते हैं और न ही किसी अनहोनी के लिए वैकल्पिक इंतज़ाम। वहीं प्रशासन कई बार या तो उदासीन बना रहता है या राजनीतिक दबाव में चुप्पी साध लेता है। आम नागरिक भी इस विफलता का हिस्सा हैं। वे आयोजन में भाग लेने को केवल एक सामूहिक उत्सव मानते हैं, जहां अनुशासन की कोई आवश्यकता नहीं समझी जाती। भीड़ में एक अफवाह, एक धक्का या एक अधीरता सैकड़ों जानों के लिए खतरा बन सकती है, पर यह चेतना अधिकांश लोगों में नहीं होती। सामूहिक जिम्मेदारी की इस कमी ने भीड़ को एक जीवंत, लेकिन बेकाबू शक्ति बना दिया है।

तकनीक के इस युग में कहने को तो हमारे पास तमाम साधन हैं स्मार्टफोन, ड्रोन, सीसीटीवी, डेटा एनालिसिस लेकिन इनका उपयोग आमजन की सुरक्षा में कम और वीआईपी प्रोटोकॉल में ज़्यादा होता है। यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि जहां एक ओर हम अंतरिक्ष में कदम रख चुके हैं, वहीं अपने ही देश में एक मेला या सभा सुरक्षित नहीं बना पाए हैं? हर बार हादसे के बाद जांच बैठती है, रिपोर्ट बनती है, कुछ नामों पर उंगलियाँ उठती हैं, फिर सब कुछ शांत हो जाता है। मृतकों की संख्या एक सरकारी आँकड़ा बन जाती है और उनके परिजन कुछ सहानुभूति भरे बयानों और मुआवज़े के चेक के साथ अकेले छोड़ दिए जाते हैं। कोई यह नहीं पूछता कि अगली बार ऐसा न हो, इसके लिए क्या बदला गया? भीड़ प्रबंधन सिर्फ प्रशासन का दायित्व नहीं, बल्कि यह एक सामूहिक दायित्व है आयोजकों, पुलिस, नगर निकायों, स्वास्थ्य सेवाओं और सबसे बढ़कर, जनता की साझा जवाबदेही। जब तक हम इसे सिर्फ एक रूटीन या रस्म के तौर पर लेते रहेंगे, हादसे होते रहेंगे। भगदड़ महज़ अफवाहों से नहीं, बल्कि अव्यवस्था से जन्म लेती है।

आयोजनों को भव्यता की दौड़ से निकालकर विवेक और मानवीय गरिमा के दायरे में लाना अब अनिवार्य है। हर आयोजन के लिए एक स्वतंत्र निगरानी प्राधिकरण की स्थापना होनी चाहिए, जो केवल सुरक्षा और भीड़ नियंत्रण के लिए उत्तरदायी हो। साथ ही नागरिकों को प्रशिक्षित और जागरूक किया जाना चाहिए कि वे भीड़ में संयम बनाए रखें, अफवाहों से बचें और ज़रूरत पड़ने पर सूझ-बूझ से काम लें। अगर हमने अब भी नहीं सीखा, तो हर आयोजन एक अनहोनी में बदलता रहेगा। हम तय करें कि हमें जश्न चाहिए या जन-संहार? जिम्मेदारी तय करनी होगी, योजनाओं को जमीन पर उतारना होगा और भीड़ को संख्या नहीं, जीवन के रूप में देखने की आदत डालनी होगी। वरना हर आयोजन एक आशंका बन जाएगा, हर तीर्थ एक संकट, और हर मेला एक शोकसभा।