ब्राह्मण समुदाय की वर्तमान सामाजिक-आर्थिक स्थिति और पीटर नावारो का विवादित बयान

Current socio-economic condition of the Brahmin community and controversial statement of Peter Navarro

निलेश शुक्ला

पिछले रविवार को व्हाइट हाउस के ट्रेड सलाहकार पीटर नावारो ने एक विवादास्पद टिप्पणी करते हुए कहा कि “भारत में ब्राह्मण समुदाय देश की जनता के खर्चे पर नफ़ा उठा रहा है”। यह बयान न केवल असंवेदनशील और तथ्यहीन था, बल्कि भारतीय समाज की जटिल जातीय संरचना की गलत व्याख्या भी है। आश्चर्यजनक यह है कि स्वयं ब्राह्मण समुदाय ने इस टिप्पणी पर संगठित रूप से कोई कड़ा प्रतिवाद नहीं किया। यह मौन बहुत कुछ कहता है—खासतौर पर उस समुदाय की बदली हुई सामाजिक-आर्थिक स्थिति के बारे में, जिसे कभी भारत का “श्रेष्ठ” वर्ग माना जाता था।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य: एक विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग से चुनौतियों की ओर
भारतीय समाज की वर्णव्यवस्था में ब्राह्मणों को उच्चतम स्थान प्राप्त था। शिक्षा, संस्कार, धार्मिक अनुष्ठान और ज्ञान के संरक्षण की जिम्मेदारी उन्हीं पर थी। लंबे समय तक समाज में उनका वर्चस्व इस कारण बना रहा कि वे धार्मिक-आध्यात्मिक अधिकार और ज्ञान के स्रोत के रूप में देखे जाते थे।

मुग़ल और ब्रिटिश शासनकाल में भी ब्राह्मणों का प्रभाव बना रहा। अंग्रेजों ने शिक्षा और प्रशासनिक कार्यों में उनकी दक्षता का उपयोग किया, जिससे वे कई दशकों तक सरकारी सेवाओं और उच्च पदों पर काबिज रहे। इसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ने यह धारणा बनाई कि ब्राह्मण हमेशा विशेषाधिकार का आनंद लेते रहे हैं।

लेकिन आज़ादी के बाद परिदृश्य धीरे-धीरे बदला। आरक्षण नीति, सामाजिक न्याय की राजनीति और भूमंडलीकरण के दौर में आर्थिक प्रतिस्पर्धा ने ब्राह्मण समुदाय को नए यथार्थ का सामना करने पर मजबूर किया।

ब्राह्मण समुदाय की वर्तमान सामाजिक-आर्थिक स्थिति
(क) आर्थिक स्थिति

आम धारणा के विपरीत, आज ब्राह्मण समुदाय आर्थिक रूप से अत्यंत समृद्ध नहीं है। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में बड़ी संख्या में ब्राह्मण परिवार बेहद साधारण जीवन जी रहे हैं।
• भूमिहीनता और कृषि पर निर्भरता: उत्तर भारत, बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश में हजारों ब्राह्मण परिवार भूमिहीन हैं और मजदूरी या छोटे-मोटे काम करके गुजर-बसर करते हैं।
• सरकारी नौकरियों से बाहर होना: आरक्षण व्यवस्था के कारण प्रतियोगी परीक्षाओं और सरकारी नौकरियों में उनकी हिस्सेदारी घट गई। अधिकांश ब्राह्मण युवाओं को निजी क्षेत्र की ओर रुख करना पड़ा, जहाँ आर्थिक असुरक्षा अधिक है।
• व्यवसाय और रोजगार: पारंपरिक पुजारी या धार्मिक अनुष्ठान कराने वाले ब्राह्मणों की आय बेहद सीमित है। शहरी ब्राह्मणों में भी मध्यमवर्गीय और निम्न-मध्यमवर्गीय स्थिति आम है।

(ख) शिक्षा और सामाजिक स्थिति
ब्राह्मण शिक्षा के क्षेत्र में अब भी मजबूत हैं। उच्च शिक्षा, आईआईटी, मेडिकल और प्रशासनिक सेवाओं में उनकी उपस्थिति दिखाई देती है। लेकिन यह उपस्थिति समृद्ध वर्ग के कुछ हिस्सों तक ही सीमित है। गाँवों और कस्बों के ब्राह्मण बच्चे संसाधनों के अभाव में पिछड़ जाते हैं।

सामाजिक दृष्टि से, ब्राह्मणों का पारंपरिक वर्चस्व काफी हद तक टूट चुका है। राजनीति में पिछड़ा और दलित समाज का उदय हुआ है। सामाजिक न्याय की राजनीति ने उन्हें हाशिए पर ला खड़ा किया। आज किसी भी बड़े राज्य में ब्राह्मणों की राजनीतिक हैसियत पहले जैसी नहीं रही।

(ग) मानसिक और सांस्कृतिक दबाव
ब्राह्मणों को अक्सर “विशेषाधिकार प्राप्त” कहकर आलोचना का शिकार बनाया जाता है। इससे समाज में उनके प्रति एक तरह का पूर्वाग्रह पनपता है। वे न तो पिछड़ा वर्ग माने जाते हैं, न ही आज के दौर में शुद्ध रूप से विशेषाधिकार प्राप्त—बल्कि बीच की एक ऐसी स्थिति में हैं जहाँ उनकी समस्याओं पर कम ध्यान दिया जाता है।

ब्राह्मणों की राजनीतिक स्थिति
स्वतंत्र भारत की राजनीति में ब्राह्मणों ने लंबे समय तक नेतृत्व किया। जवाहरलाल नेहरू से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक ब्राह्मण प्रधानमंत्री रहे। कांग्रेस और बीजेपी दोनों में उनका प्रभाव रहा।

लेकिन पिछले तीन दशकों में जातीय समीकरण बदल गए। यूपी-बिहार जैसे राज्यों में मंडल राजनीति ने ब्राह्मणों को राजनीतिक समीकरण से बाहर कर दिया। अब वे किसी भी पार्टी के निर्णायक वोटबैंक नहीं रह गए हैं।

राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मामले में भी उनकी स्थिति कमजोर है। आज बीजेपी, कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों में ब्राह्मण चेहरे हैं, लेकिन उनका प्रभाव प्रतीकात्मक ही है।

पीटर नावारो का बयान: अंतरराष्ट्रीय नजरिए की गलती
अमेरिकी अधिकारी का यह कहना कि ब्राह्मण भारतीय जनता का शोषण कर रहे हैं, पूरी तरह से अनाधिकारिक और सतही विश्लेषण है। भारत की जटिल जाति व्यवस्था और वर्तमान वास्तविकताओं की सही समझ के बिना ऐसे बयान न केवल गलतफहमी फैलाते हैं, बल्कि एक पूरे समुदाय को बदनाम करते हैं।

ब्राह्मणों की खामोशी यह दिखाती है कि वे अब “विशेषाधिकार” के दावे से दूर रहना चाहते हैं। वे यह जानते हैं कि वास्तविकता में उनकी स्थिति उतनी सशक्त नहीं रही, जितनी बाहर से समझी जाती है।

क्या ब्राह्मण सबसे ज्यादा पीड़ित हैं?
कई सर्वेक्षणों और रिपोर्टों से यह स्पष्ट होता है कि ब्राह्मण समुदाय का एक बड़ा हिस्सा गरीबी और बेरोजगारी से जूझ रहा है। ग्रामीण भारत में उनकी आर्थिक स्थिति कई दलित और पिछड़े समुदायों से भी कमजोर है।

हालाँकि यह भी सच है कि शिक्षा और संसाधनों तक पहुँच रखने वाला एक छोटा वर्ग अब भी सफल है, जिससे यह धारणा बनी रहती है कि ब्राह्मण आज भी विशेषाधिकार भोग रहे हैं। लेकिन समग्रता में देखें तो उनकी स्थिति विषम है—ऊपर से चमकदार, भीतर से कमजोर।

ब्राह्मण समुदाय की स्थिति आज न तो “शोषक” की है और न ही पूरी तरह से “विशेषाधिकार प्राप्त” वर्ग की। वास्तविकता यह है कि वे सामाजिक-आर्थिक रूप से बँटे हुए हैं। एक छोटा तबका अब भी सफल और प्रभावशाली है, लेकिन बड़ी संख्या में ब्राह्मण गरीबी, बेरोजगारी और सामाजिक हाशियाकरण से जूझ रहे हैं।

पीटर नावारो जैसे नेताओं की टिप्पणियाँ भारतीय समाज की जटिलताओं को समझे बिना दिए गए सतही बयान हैं। ब्राह्मण समुदाय को इस पर संगठित होकर अपनी आवाज उठानी चाहिए, क्योंकि खामोशी उनके अस्तित्व और समस्याओं को और अधिक अदृश्य बना देती है।

भारत के लिए आवश्यक है कि वह सभी जातियों की वास्तविक समस्याओं को पहचानकर समान अवसर उपलब्ध कराए। सामाजिक न्याय का अर्थ किसी को और नीचे धकेलना नहीं, बल्कि सबको बराबरी के अवसर देना होना चाहिए।