
साहित्य आज साधना नहीं, सौदेबाज़ी का बाज़ार बनता जा रहा है। नकली संस्थाएं ₹1000-₹2500 लेकर ‘राष्ट्रीय’ और ‘अंतरराष्ट्रीय’ पुरस्कार बांट रही हैं। यह केवल साहित्य नहीं, भाषा की भी हत्या है। “सहयोग राशि” के नाम पर सम्मान बिक रहा है, और सच्चे साहित्यकारों की साधना उपेक्षित हो रही है। अब समय आ गया है—इन आयोजनों का बहिष्कार करें, पर्दाफाश करें, और साहित्य को बाज़ारू अपवित्रता से बचाएं। पुरस्कार रचना की गरिमा हों, न कि डिजिटल भुगतान का पुरस्कार! यदि कोई पुरस्कार ‘सहयोग राशि’ से खरीदा जा सकता है, तो वह पुरस्कार नहीं, एक बाजारू तमाशा है। साहित्य आत्मा की भाषा है, न कि ट्रॉफियों की भीड़। नकली आयोजनों की नक़ल से हिंदी ही नहीं, साहित्य की आत्मा घायल हो रही है। अब समय आ गया है कि हम साहित्य को “सेल्फी इवेंट” से निकालकर सच्ची साधना के मंच पर वापस लाएं।
डॉ. सत्यवान सौरभ
साहित्य, आत्मा की पुकार है। वह सर्जक की साधना का फल होता है — तप, त्याग और संवेदना की अभिव्यक्ति। लेकिन आज, जब हम चारों ओर नज़र डालते हैं, तो पाते हैं कि यह साधना अब “सहयोग राशि” और “नामांकन शुल्क” की दुकान पर बिक रही है। पुरस्कार अब साधना की स्वीकृति नहीं, पैसे की नीलामी हो गए हैं। ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है — क्या सचमुच साहित्य का मूल्य अब बैंक ट्रांजैक्शन से तय होगा?
साहित्य के नाम पर चलती मंडी
आजकल सोशल मीडिया, व्हाट्सएप और मेल पर साहित्यिक आयोजनों के नाम पर संदेश आते हैं – “सिर्फ ₹1000 में नामित हों, ₹2500 में पुरस्कार पाएं।” कुछ तथाकथित संस्थाएं और व्यक्ति ‘राष्ट्रीय’, ‘अंतरराष्ट्रीय’, ‘गौरव’, ‘रत्न’ जैसे भारी-भरकम शब्दों से सजे पुरस्कारों का जाल बिछाकर साहित्यप्रेमियों को लुभाते हैं। सच्चाई यह है कि पुरस्कार नहीं, सम्मान की नीलामी हो रही है। इन आयोजनों के अधिकांश आयोजक एक जैसी वेबसाइटें, नकली अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के नाम और सोशल मीडिया प्रचार का सहारा लेकर लोगों को भ्रमित करते हैं। वे एक निश्चित शुल्क लेकर एक ट्रॉफी, सर्टिफिकेट और कभी-कभी एक ऑनलाइन समारोह की व्यवस्था करते हैं, जो केवल आत्मप्रशंसा का साधन होता है, न कि वास्तविक मान्यता।
सहयोग राशि या पुरस्कार की दलाली?
इन आयोजनों के पीछे अक्सर एक चतुर चाल होती है — इसे “सहयोग राशि” या “प्रेस रिलीज़ खर्च” कहकर नैतिक जामा पहनाया जाता है। पुरस्कार एक साधक को उसके योगदान पर दिया जाना चाहिए, न कि उसकी जेब देखकर। जब कोई लेखक अपनी मेहनत से एक रचना गढ़ता है, वह अपने समय, जीवन और संवेदना का अंश उसमें उड़ेलता है। और फिर कुछ लोग आते हैं — पैसा दो, पुरस्कार लो — क्या यह साहित्य की आत्मा का अपमान नहीं? यहां साहित्य एक उत्पाद बन गया है और लेखक उपभोक्ता। पुरस्कार की शर्तें तय नहीं होतीं उनके रचनात्मक मापदंड पर, बल्कि UPI भुगतान और स्क्रीनशॉट की पुष्टि पर होती हैं।
भाषा की दुर्गति के सौदागर
ऐसे आयोजनों के ज़रिए न सिर्फ साहित्य को ठगा जा रहा है, बल्कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के नाम पर योजनाबद्ध गिरावट फैलाई जा रही है। जो सम्मान कभी राष्ट्रगौरव का प्रतीक होता था, वह अब टिकट खरीदकर पाई जाने वाली वस्तु बन गया है। यह भाषाई संस्कृति पर हमला है, जिसका संगठित बहिष्कार आवश्यक है। अनेक फर्जी अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार विदेशी नामों की आड़ में भारत के भीतर ही संचालित हो रहे हैं। इन आयोजनों का एक ही उद्देश्य होता है — नाम की आड़ में पैसा कमाना और साहित्यिक गंभीरता का शोषण करना।
साहित्य को साधना ही रहने दो, सौदा मत बनाओ
सच्चा साहित्यकार पुरस्कार के लिए नहीं, समाज के लिए लिखता है। वह पुरस्कार के पीछे नहीं भागता, पुरस्कार उसकी साधना के पीछे भागते हैं। आज ज़रूरत है ऐसे छलछंद को उजागर करने की, जो साहित्य को सिर्फ एक “सेल्फी इवेंट” बना रहे हैं। “पुरस्कारों की गारंटी” देने वाले लोग दरअसल साहित्य की आत्मा के हत्यारे हैं। ऐसे पुरस्कारों से न केवल साहित्यिक गरिमा घटती है, बल्कि युवा लेखकों को एक गलत प्रेरणा मिलती है — कि रचना से अधिक महत्वपूर्ण है, उसकी मार्केटिंग और भुगतान। समाज को सजग बनाइए, बहिष्कार कीजिए। अब समय आ गया है कि हम ऐसे आयोजनों का बहिष्कार करें, पैसे लेकर पुरस्कार बेचने वालों का सामाजिक पर्दाफाश करें, सोशल मीडिया और पत्रिकाओं में इनके नाम उजागर करें, सच्चे साहित्यकारों और पाठकों के बीच चेतना फैलाएं, साहित्य को आत्मा की अभिव्यक्ति बनाए रखें, उसकी बोली न लगने दें।
नकली पुरस्कारों का जाल कैसे पहचानें?
पुरस्कार पाने से पहले नामांकन शुल्क या सहयोग राशि मांगी जाए तो सतर्क हो जाइए। जिन आयोजनों के पीछे कोई प्रतिष्ठित संस्थान न हो, केवल फेसबुक पेज या गूगल फॉर्म हो — वे संदिग्ध होते हैं। किसी भी “इंटरनेशनल” पुरस्कार का आयोजन यदि केवल भारत के छोटे शहरों में हो रहा हो, तो जांच जरूरी है। वेबसाइट पर संस्थापक या निर्णायक मंडल की पारदर्शिता न हो, तो यह लाल झंडी है।
साहित्य बिके नहीं, बचे
हम यह नहीं कह रहे कि पुरस्कार न दिए जाएं — बल्कि पुरस्कार तपस्वी लेखकों की साधना की स्वीकृति होनी चाहिए, न कि किसी UPI भुगतान का रसीद। भाषा की गरिमा बचानी है तो ऐसे नकली संस्थानों से मुक्ति पानी होगी। साहित्य कोई काजल की कोठरी नहीं कि कोई भी चला आए, काजल लगा ले और चला जाए। यह साधना है, सेवा है, संघर्ष है। साहित्य की दुनिया में यह जो बनावटी रोशनी जगाई जा रही है, वह दरअसल एक अंधेरा है — आत्मा से दूर, पैसे के करीब। सच्चे लेखक और पाठक ही मिलकर इस अंधकार को मिटा सकते हैं। अगर साहित्य की आत्मा को जीवित रखना है, तो जरूरी है कि हम ऐसे नकली पुरस्कारों के खिलाफ आवाज़ उठाएं। यह न केवल लेखन की प्रतिष्ठा की रक्षा करेगा, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी सिखाएगा कि पुरस्कार नहीं, सृजन और संवेदना ही साहित्य की असली पूंजी है।
हम साहित्य के उस युग में प्रवेश कर रहे हैं जहाँ आत्मा से अधिक महत्वपूर्ण पुरस्कारों का बायोडेटा हो गया है। आवश्यकता है उस धैर्य, विवेक और विवेचना की जो सच्चे रचनाकार को भीतर से मजबूत करे। ऐसे माहौल में सच्चे साहित्यकारों का मौन अपराध होगा। वे ही यदि इन नकली मंचों को अस्वीकार करेंगे, तभी मूल्यों की पुनर्स्थापना संभव होगी।
यह सिर्फ बहिष्कार नहीं, एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण की शुरुआत है — जहाँ पुरस्कार नहीं, विचारों की गूंज महत्वपूर्ण होगी। साहित्य की साधना को बचाने का यही समय है। आज नहीं बोले, तो कल शायद भाषा ही नहीं बचेगी, जिसके सहारे हम यह लेख लिख रहे हैं।