घटती प्रजनन दर, बढ़ती चुनौतियां!

Decreasing fertility rate, increasing challenges!

सोनम लववंशी

दुनिया के कई हिस्सों में अब जनसंख्या वृद्धि नहीं, बल्कि जनसंख्या में ठहराव और गिरावट चर्चा का विषय बन गया है। जिस चिंता से हम दशकों से जूझते आ रहे थे कि भारत जैसे देश में संसाधनों पर जनसंख्या का भार बढ़ता जा रहा है। अब वह चिंता एक नई दिशा में मुड़ चुकी है। अब सवाल यह है कि क्या भारत आने वाले समय में पर्याप्त श्रमबल और सामाजिक संतुलन बनाए रख पाएगा? घटती फर्टिलिटी दर यानी प्रजनन दर अब इस यक्षप्रश्न का केंद्र बन गई है। भारत की कुल प्रजनन दर (टीएफआर) औसतन 2.0 के आसपास पहुंच चुकी है, जो रिप्लेसमेंट स्तर 2.1 से नीचे है। इसका अर्थ है कि हर महिला अपने जीवनकाल में औसतन दो से कम बच्चों को जन्म दे रही है। शहरी क्षेत्रों में यह दर और भी चिंताजनक है। जोकि 1.6 के करीब है। वहीं कुछ राज्यों जैसे केरल, कर्नाटक और दिल्ली में यह यूरोपीय देशों के समान स्तर तक पहुंच गई है। यह स्थिति बताती है कि जनसंख्या अब तेजी से नहीं बढ़ रही, यह ठहराव की ओर है और निकट भविष्य में इसमें गिरावट भी संभव है।

इस संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, 14 देशों के 14,000 से अधिक लोगों पर किए गए एक वैश्विक सर्वे में सामने आया कि अधिकांश लोग बच्चे पैदा करना तो चाहते हैं, परंतु सामाजिक, आर्थिक और मानसिक कारणों से ऐसा नहीं कर पा रहे। रिपोर्ट के मुताबिक, लोग बच्चों को लेकर अधिक चिंता और अनिश्चितता महसूस कर रहे हैं, खासकर युवाओं में आर्थिक असुरक्षा, शिक्षा और करियर को लेकर बढ़ती प्राथमिकताएं इस प्रवृत्ति को और तीव्र बना रही हैं। ऐसे में प्रश्न यह नहीं कि यह गिरावट क्यों हो रही है, बल्कि यह है कि इसके सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिणाम क्या होंगे। विवाह की उम्र बढ़ रही है, और कई युवा अब विवाह को टाल रहे हैं या पूरी तरह त्याग रहे हैं। व्यक्तिगत स्वतंत्रता, करियर की प्राथमिकता, बढ़ती महंगाई, शहरी जीवन की जटिलताएं, और बच्चों की परवरिश की बढ़ती लागत ये सभी ऐसे कारण हैं जिनकी वजह से युवा जोड़े एक या दो से अधिक बच्चे नहीं चाहते, और कई बार एक भी नहीं। इस मानसिकता के सामाजिक परिणाम गंभीर हो सकते हैं। यदि पर्याप्त संख्या में युवा अगली पीढ़ी के निर्माण से पीछे हटते हैं, तो एक समय ऐसा आएगा जब समाज में वृद्धजन की संख्या कार्यशील जनसंख्या से अधिक हो जाएगी। इससे न केवल सामाजिक सुरक्षा प्रणाली पर भारी दबाव पड़ेगा, उत्पादकता और आर्थिक विकास की गति भी बाधित होगी। जापान, दक्षिण कोरिया और कुछ यूरोपीय देश इस परिस्थिति से पहले ही जूझ रहे हैं।

भारत के लिए यह चेतावनी और अवसर दोनों है। अभी हमारे पास जनसांख्यिकीय लाभ की खिड़की खुली है, देश की 65 फीसदी आबादी 35 वर्ष से कम उम्र की है। लेकिन यह खिड़की हमेशा खुली नहीं रहेगी। यदि इस युवा शक्ति को सही दिशा, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं और आर्थिक सुरक्षा नहीं मिली, तो यह लाभ अवसर से अधिक बोझ बन सकता है। अब समय आ गया है कि नीति निर्माता केवल जनसंख्या नियंत्रण की रणनीति तक सीमित न रहें। संतुलित और संरक्षित परिवार निर्माण को प्रोत्साहित करें। कार्यस्थलों पर पेरेंटल लीव नीतियों को और प्रभावी बनाना, बच्चों के पालन-पोषण के लिए सामाजिक सहयोग तंत्र का निर्माण, सस्ती और भरोसेमंद स्वास्थ्य सेवाएं, और ऐसा सांस्कृतिक वातावरण बनाना आवश्यक है जिसमें युवा वर्ग संतान को एक बाधा नहीं, सामाजिक उत्तराधिकार के रूप में देख सके। इसके साथ ही शिक्षा प्रणाली में परिवार, दायित्व और सामूहिक जीवन की भूमिका को समझाना आवश्यक है। सोशल मीडिया और बाजारवाद के दौर में जहां व्यक्तिगत उपलब्धियां ही सब कुछ मानी जाती हैं, वहां परिवार और पीढ़ी निर्माण के नैतिक आयामों को जागृत करना होगा।

भारत को यह समझना होगा कि जनसंख्या केवल आंकड़ों की गणना नहीं, यह सामाजिक संतुलन, सांस्कृतिक निरंतरता और आर्थिक संरचना की रीढ़ होती है। यदि हम आज संतुलन नहीं साधते, तो कल हम केवल वृद्ध हो चुके समाज के साथ संसाधनों की लड़ाई लड़ते रह जाएंगे। जहां न काम करने वाले होंगे, न देखभाल करने वाले। यह समय है जब भारत एक नए सामाजिक अनुबंध की ओर बढ़े जहां न केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता हो, बल्कि सामाजिक उत्तरदायित्व भी हो। जहां विकास की आकांक्षा हो और पीढ़ियों की निरंतरता की समझ भी हो। घटती प्रजनन दर एक आंकड़ा नहीं, एक संकेत है कि समाज के ताने-बाने में कुछ बदल रहा है। अगर हम इस बदलाव को समय रहते समझ लें, तो भारत न केवल जनसंख्या के संकट से बचेगा, एक संतुलित, समावेशी और सशक्त भविष्य की ओर अग्रसर भी हो सकेगा।