ललित गर्ग
दिल्ली विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आ रहे हैं, राजनीतिक सरगर्मी उग्र से उग्रत्तर होती जा रही है। आम आदमी पार्टी मतदाताओं को लुभाने की कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही है। चुनाव से पहले अब आम आदमी पार्टी ने एक ऐसी लुभावनी, मतदाताओं को आकर्षित करने की योजना की घोषणा की है जिसके अन्तर्गत मंदिरों के पुजारियों और गुरुद्वारा साहिब के ग्रंथियों को 18 हजार रुपए महीने दिए जाएंगे। इस योजना का नाम पुजारी-ग्रंथी योजना है। मुस्लिम धर्म एवं उनके अनुयायियों को रिझाते-रिझाते एकदम से केजरीवाल को हिन्दू धर्म के पुजारी एवं सिख धर्म के गं्रथी क्यों याद आ गये? विडम्बना है कि विभिन्न राजनीतिक दल मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त उपहार बांटने, तोहफों, लुभावनी घोषणाएं एवं योजनाओं की बरसात करने का माध्यम बनते जा रहे हैं। बजट में भी ‘रेवड़ी कल्चर’ का स्पष्ट प्रचलन लगातार बढ़ रहा है, खासकर तब जब उन राज्यों में चुनाव नजदीक हों। ‘फ्रीबीज’ या मुफ्त उपहार न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया में वोट बटोरने का हथियार हैं। यह एक राजनीतिक विसंगति एवं विडम्बना है जिसे कल्याणकारी योजना का नाम देकर राजनीतिक पार्टियां राजनीतिक लाभ की रोटियां सेंकती है। अरविन्द केजरीवाल ने तो दिल्ली में अपनी हार की संभावनाओं को देखते हुए सारी हदें पार कर दी है। बात केवल आम आदमी पार्टी, कांग्रेय या भाजपा की ही नहीं है, बल्कि हर राजनीतिक दल सरकारी खजानों का उपयोग आम मतदाता को अपने पक्ष में करने के लिये करता है।
‘मुफ्त की सौगात’ राजनीतिक फायदे के लिए जनता को दाना डालकर फंसाने वाली पहल है, एक तरह से दाना डालकर मछली पकड़ने जैसा है। ऐसी सौगातें सिर्फ गरीबों के लिए नहीं बल्कि सभी के लिए होती है, जिसके पीछे आम आदमी पार्टी के संयोजक जैसे राजनेताओं का एकमात्र उद्देश्य देश में अपनी और अपनी पार्टी का प्रभुत्व स्थापित करना है। केजरीवाल के द्वारा चुनावों में मुफ्त की घोषणाएं करना कोई नया चलन नहीं है। अपने देश में रेवड़ियां बांटने का वादा और फिर उन पर जैसे-तैसे और अक्सर आधे-अधूरे ढंग से अमल का दौर चलता ही रहता है। लोकलुभावन वादों को पूरा करने की लागत अंततः मतदाताओं को खासकर करदाताओं को ही वहन करनी पड़ती है। मुख्य चुनाव आयुक्त ने भी मुफ्त रेवड़ियां बांटने के चलन पर गंभीर चिंता जताई थी। नीति आयोग के साथ रिजर्व बैंक भी मुफ्त की रेवड़ियों पर आपत्ति जता चुका है, लेकिन राजनीतिक दलों पर कोई असर नहीं। कई बार तो वे अपात्र लोगों को भी मुफ्त सुविधाएं देने के वादे कर देते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी कुछ समय पहले उन दलों को आड़े हाथों लिया था, जो वोट लेने के लिए मुफ्त की रेवड़ियां देने के वादे करते हैं। उनका कहना था कि रेवड़ी बांटने वाले कभी विकास के कार्यों जैसे रोड, रेल नेटवर्क आदि का निर्माण नहीं करा सकते। वे अस्पताल, स्कूल और गरीबों के घर भी नहीं बनवा सकते। यदि कोई नेता या राजनीतिक दल गरीबों को कोई सुविधा मुफ्त देने का वादा कर रहा है तो उसे यह भी बताना चाहिए कि वह उसके लिए धन कहां से लाएगा? अनेक अर्थशास्त्री मुफ्त उपहार बांटकर लोगों के वोट खरीदने की खतरनाक प्रवृत्ति के प्रति आगाह कर चुके हैं, लेकिन उनकी चिंताओं से नेता बेपरवाह हैं। वे यह देखने को तैयार ही नहीं कि अनाप-शनाप चुनावी वादों को पूरा करने की कीमत क्या होती है और उनसे आर्थिक सेहत पर कितना बुरा असर पड़ता है।
रेवड़ी संस्कृति अर्थव्यवस्था को कमजोर करने के साथ ही आने वाली पीढ़ियों के लिए घातक भी साबित होती है। इससे मुफ्तखोरी की संस्कृति जन्म लेती है। मुफ्त की सुविधाएं पाने वाले तमाम लोग अपनी आय बढ़ाने के जतन करना छोड़ देते हैं। दिल्ली में महिलाओं एवं किन्नरों को भी डीटीसी बसों में मुफ्त यात्रा की सुविधा की घोषणाएं की गयी है, जिन्हें इस तरह की सुविधा की जरूरत नहीं। आधी आबादी को मुफ्त यात्रा की सुविधा देने से दिल्ली में डीटीसी को हर साल करोड़ों रुपये तक का नुकसान हुआ है। इस राशि का उपयोग दिल्ली के इन्फ्रास्ट्रक्चर पर किया जा सकता है। लेकिन केजरीवाल ने ऐसी विकृत राजनीति को जन्म दिया है, जिसमें विकास पीछे छूट गया है। राजनीतिक दलों में ऐसी ’मुफ्त की संस्कृति’ की प्रतिस्पर्धा का परिणाम अनुसंधान एवं विकास व्यय, स्वास्थ्य व शिक्षा व्यय और रक्षा व्यय में कमी के रूप में देखने को मिले तो कोई आश्चर्य नहीं है। पिछले दस वर्षों में दिल्ली का विकास ठप्प है। हम दक्षिण कोरिया के रास्ते पर चलकर भविष्य में एक विकसित अर्थव्यवस्था बनेंगे या हमेशा एक ‘विकासशील राष्ट्र’ बने रहेंगे, यह हमारे द्वारा अभी चुने गए विकल्पों से निर्धारित होगा। ऐसी मुफ्त की सुविधा, सम्मान एवं लोकलुभावन की घोषणाओं से कहीं हम पाकिस्तान एवं बांग्लादेश की तरह अपनी अर्थ-व्यवस्था को रसातल में न ले जाये?
आप सुप्रीमो ने केवल आप सरकारों बल्कि विपक्षी दलों को अपने राज्यों में पुजारियों-गं्रथियों को सम्मान राशि देने जैसे परियोजनाएं शुरू करने के लिए प्रोत्साहित करते हुए कहा है कि वे नई योजना में बाधा न डालें, ऐसा करके वे भगवान को क्रोधित करेंगे। भला राजनीतिक स्वार्थ की रोटियों के बीच भगवान कहां से आ गये? शिक्षा एवं चिकित्सा जैसी मूलभूत योजनाएं तो ठीक से चला नहीं पाते, अच्छे-भले सम्पन्न एवं निष्कंटक जीवन का निर्वाह करने वाले लोगों के लिये मुुक्त की सुविधाएं कैसे कल्याणकारी हो सकती है? पंजाब विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी ने महिलाओं को नगद राशि देने की घोषणा की थी, क्या हुआ उस योजना का? दिल्ली में 250 से अधिक इमामों को 17 महीने से अधिक समय से वेतन नहीं मिला है। मुफ्त बिजली एवं पानी देने की घोषणाएं भी ठण्डे बस्ते में चली गयी। ऐसी अनेक घोषणाएं हैं जो चुनावी मुद्दा तो बनती है, मतदाताओं को लुभाती है, लेकिन चुनाव जीतने के बाद धरती पर उतरती कभी नहीं। सभी राजनीतिक दलों की बड़ी लुभावनी घोषणाएं होती हैं, घोषणा पत्र होते हैं-जनता को पांच वर्षों में अमीर बना देंगे, हर हाथ को काम मिलेगा, सभी के लिए मकान होंगे, सड़कें, स्कूल-अस्पताल होंगे, बिजली और पानी, हर गांव तक बिजली पहुंचाई जायेगी, शिक्षा-चिकित्सा निःशुल्क होगी। ये राजनीतिक घोषणाएं पांच साल में अधूरी ही रहती है, फिर चुनाव की आहट के साथ रेवडियां बांटने का प्रयत्न किया जाता है, कितने ही पंचवर्षीय चुनाव हो गये और कितनी ही पंचवर्षीय योजनाएं पूरी हो गईं पर यह दुनिया का आठवां आश्चर्य है कि कोई भी लक्ष्य अपनी समग्रता के साथ प्राप्त नहीं हुआ।
खुशहाल देश और समाज वही माना जाता है, जहां लोग निजी उद्यम से अपने गुजर-बसर संबंधी सुविधाएं जुटाते हैं। खैरात पर जीने वाला समाज विपन्न ही माना जाता है। लोग भी यही चाहते हैं कि उन्हें कुछ करने को काम मिले। इसी से उन्हें संतोष मिलता है। मगर हकीकत यह है कि देश में नौकरियों की जगहें और रोजगार के नए अवसर लगातार कम होते गए हैं। सरकारों की तरफ से ऐसे अवसरों को बढ़ाने के व्यावहारिक प्रयास न होने की वजह देश एवं प्रांत समग्र एवं चहुंमुखी विकास की ओर अग्रसर नहीं हो पाते हैं। सरकारें अपनी इस नाकामी एवं कमजोरी पर पर्दा डालने के लिए मुफ्त सहायता देने की परंपरा विकसित कर ली है। चाहे वह मुफ्त राशन हो, बेरोजगारी भत्ता हो या फिर महिलाओं को वजीफा हो, मुक्त बिजली-पानी हो, मुफ्त चिकित्सा हो, मुफ्त यात्रा हो, पुजारियों, मौलवियों एवं ग्रंथियों को मुफ्त वेतन हो- इस मामले में किसी भी राजनीतिक दल की सरकार पीछे नहीं है। अब तो इस मामले में जैसे एक-दूसरे को पछाड़ने की होड़-सी नजर आने लगी है। सवाल है कि सरकारें इस पहलू पर कब विचार करेंगी कि हर हाथ को काम मिले, रोजगार बढ़े, स्वरोजगार की स्थितियां बने। इस तरह देश साधन-सम्पन्न लोगों में मुफ्तखोरी की आदत डालना सही नहीं है। मुफ्तखोरी की राजनीतिक से लोकतंत्र को खतरा हो सकता है और इससे देश का आर्थिक बजट लडखड़ाने का भी खतरा है।