प्रो. नीलम महाजन सिंह
जैसी करनी वैसी भरनी! दिल्ली उच्च न्यायालय ने, दिल्ली के प्रदूषण को ‘गैस चैम्बर’ करार दिया है। प्रकृति ईश्वराज्ञा है। प्रकृति के साथ दिल्ली में अत्याधिक दुर्व्यवहार किया गया है। वैसे भी ‘करोना’ जैसी, आधुनिक युग में महामारी ने, इंसान को उसकी औकात की याद करवा दी है। इंद्रप्रस्थ कहलाने वाली दिल्ली के 491ए.क्यू.आइ (AQI Air Quality Index) ने दिल्ली-एनसीआर को फिर से मौत के मुँह में धकेल दिया है। दिल्ली सबसे ज़्यादा खूबसूरत हुआ करती थी। चारों और हरियाली, बगीचे, पेड़-पौधे ही दिल्ली की शान थे। परंतु आधुनिकीकरण व अर्थिक लालच ने दिल्ली को लाचार बना दिया है। सबसे घातक मल्टी स्टोरी बिल्डिंगों, दिल्ली की आबादी में पूरे देश का प्रवेश व एनवायरनमेंट कानूनों की धज्जियाँ उड़ाना;
प्रदूषण के मुख्य कारक हैं। लगातार जंगलों को काट-छांट कर, बिल्डर कॉलोनियों व 6 मंजिलें मकान बनते रहे हैं। ‘ग्राउंड वाटर’ पूरी तरह लुप्त हो गया है। सबसे घातक रहा, दिल्ली में मेट्रो ट्रेन का निर्माण। ज़रूर इससे आम जनता को परिवहन में सहायता हुई है, परंतु इसने पर्यावरण को समाप्त कर दिल्ली को ‘कांक्रीट जंगल’ बना दिया है। अब दिल्ली प्रदूषण से जुझ रही है। इसमे ‘अंधे नागरिक’ भी ज़िम्मेदार हैं। ‘स्वच्छ भारत मिशन’, दिल्ली में शतप्रतिशत असफल है। ‘ नेशनल् ग्रीन ट्राइब्यूनल’ बनने के बाद कई फैसले लिए गए परंतु उनका अनुसरण नहीं किया जाता। यातायात में करोड़ों कार व कमर्शियल वाहनों के प्रदूषण से दिल्ली को रहने योग्य ही नहीं रखा। दिवाली की रात, भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों की धज्जियाँ उड़ाई गईं। रात को तीन बजे तक दिल्ली वासियों ने बारूद फूका ! शर्म से सिर नीचे हो रहा है। यदि दूरदर्शी ग्रीन जज, माननीय कुलदीप सिंह ने ‘दिल्ली में ग्रीन बेल्ट व न नो-बिल्डिंग ज़ोन’ न घोषित किए होता, तो दिल्ली के बिल्डरों ने एक पेड़ भी नहीं छोड़ा होता। दिल्ली में हवा की गुणवत्ता ‘खतरनाक’ स्तर पर पहुंचने के साथ ही सुप्रीम कोर्ट एक बार फिर इस बात पर विचार कर रहा है कि प्रदूषण को कम कैसे किया जाए। अदालत ने गोर किया कि इससे निपटने के लिए तत्काल कार्रवाई की ज़रूरत है। उसने विभिन्न मुद्दों पर विचार किया, जैसे कि पराली जलाने को कैसे कम किया जा सकता है व क्या पंजाब-हरियाणा में धान उगाया जाना चाहिए, क्या दिल्ली में गाड़ियों के लिए ऑड-ईवन की नीति होनी चाहिये आदि। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि उसकी चिंता केवल इतनी है कि अधिकारी ठीक से काम करें। सुप्रीम कोर्ट पिछले करीब 40 साल से सक्रिय रूप से दिल्ली व उसके आसपास के प्रदूषण से निपटने की कोशिशें कर रही है, जबकि राजधानी की हवा की गुणवत्ता पूर्ण रूप से प्रदुषित हो चुकी है। हालाँकि कुछ लोग इन सुधारों को बढ़ावा देने के लिए अदालत की सराहना करते हैं, लेकिन अक्सर नीतिगत मुद्दों पर ध्यान न देने के लिए उसकी आलोचना भी की जाती है। प्रसिद्ध पर्यावरणविद् एम.सी. मेहता ने 1984-85 में, दिल्ली में वाहनों के प्रदूषण, ताज महल के जीर्ण-शीर्ण संगमरमर व गंगा-यमुना नदी में प्रदूषण से निपटने के लिए सुप्रीम कोर्ट में कई जनहित याचिकाएं दायर कीं थीं। प्रदूषण संबंधित अनेक निर्णय दिए गए। ‘दी पल्यूटर विल पे’ के फैसले पर प्रशासनिक तौर पर लागू नहीं किया गया।
राजधानी के आसपास प्रदूषण के व्यापक मुद्दों से निपटने के लिए इन मामलों की परिस्थिति भी बदल गई है। उदाहरण के लिए, दिल्ली में ‘स्मॉग’ की हालिया समस्या को मौजूदा वाहन प्रदूषण मामलों से जोड़ा गया है। 1998 में अदालत ने आदेश दिया कि डीज़ल पर चलने वाले सार्वजनिक परिवहन के वाहनों का पूरा बेड़ा, जिसमें करीब 100,000 वाहन थे, उन्हें 2001 तक सीएनजी में बदला जाए। परंतु ऐसा नहीं हुआ। इस कदम की वैज्ञानिक प्रभावकारिता पर विवाद रहा।अदालत ने दिल्ली में वाहनों की बारीकियों पर गौर किया, जैसे कि ऑटोरिक्शा के लिए लाइसेंस कैसे दिए जाने चाहिए, वाहनों में किस प्रकार के गैसोलीन व इंजन का उपयोग किया जा सकता है, पुराने वाणिज्यिक वाहनों को चलाने की समय-सीमा आदि। सर्वोच्च न्यायालय ने इंफ्रास्ट्रक्टचर परियोजनाओं की भी देखरेख की है। अदालत ने 2000 के दशक की शुरुआत में यातायात व प्रदूषण को कम करने के लिए केंद्र सरकार को दिल्ली के चारों ओर दो एक्सप्रेस वे बनाने का आदेश दिया था। बाद में सालों तक उसने इसकी प्रगति की निगरानी भी की। वायु प्रदूषण के कारण 16 लाख लोगों की जान जा चुकी है। ख़ुद को कैसे बचा सकते हैं आप? कई बार तो सुप्रीम कोर्ट अपने ही फैसले से पलट गये, जैसे कि 2019 में अदालत ने पराली जलाने के लिए किसानों को फटकार लगाई, जो प्रदूषण बढ़ाने में सहायक है। इसके ठीक दो दिन बाद अदालत ने कहा कि किसानों को दंडित करना अंतिम समाधान नहीं होगा। अदालत ने कहा कि कई किसानों को मजबूरी में पराली जलानी पड़ती है।राजधानी में स्मॉग टॉवर लगाने के निर्देश से ‘स्मॉग टावर’ बड़े पैमाने पर वायु शोधक बने, किन्तु ये वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने में वैज्ञानिक रूप से सक्षम नहीं हैं। इनमें से अधिकांश आदेश पर्यावरण प्रदूषण (संरक्षण और नियंत्रण) प्राधिकरण (ईपीसीए) की सिफारिशों के आधार पर आए हैं। यह प्राधिकरण अदालत के आदेश पर गठित पांच सदस्यों वाला वैधानिक निकाय है। दिल्ली-एनसीआर की ख़तरनाक हवा जानलेवा होती जा रही है। प्रदूषण से निपटने के लिए दिल्ली की सड़कों पर पानी का छिड़काव भी सहायक नहीं हो पाया है। नीति-निर्माता, कानून-निर्माता, सार्वजनिक शिक्षक और सुपर प्रशासक, सभी को पर्यावरण संरक्षण के लिए, अपनी भूमिका निभानी चाहिए। जनहित याचिका के विशेषज्ञ अनुज भुवानिया ने अपनी पुस्तक ‘कोर्टिंग दी पीपल’ में अदालत के कामकाज पर प्रश्नचिन्ह लगाया है। विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि सुप्रीम कोर्ट का सक्रिय रुख प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड व पर्यावरण मंत्रालय जैसे अन्य निकायों के विकास की कीमत पर आया है। दिल्ली में ‘पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी’ घोषित करने का समय आ गया है? विशेषज्ञ ऋत्विक दत्ता ने कहा, कि निचली अदालतें या विशेष न्यायाधिकरण भी मौजूदा पर्यावरण कानूनों को लागू करने व इसके उल्लंघन करने वालों को दंडित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। सूत्रों की मानें तो मौसम विभाग ने 24 नवंबर के आसपास दिल्ली के ऊपर बादलों का जमघट का अनुमान जताया है। उल्लेखनीय है कि दिल्ली में वायु प्रदूषण से निपटने के लिए कृत्रिम वर्षा कराने की योजना पांच वर्ष पहले 2018 में भी बनी थी। उस समय इसे लेकर सारी तैयारी कर ली गई थी, लेकिन बाद में बादल ही गच्चा दे गए थे! आइआइटी कानपुर के विशेषज्ञ कृत्रिम वर्षा को लेकर लगातार शोध पर जुटें हैं। डॉ नरेश त्रेहान ने कई बार वीडियो व ब्यान जारी किए हैं कि दिल्ली का प्रदूषण फेफड़ों को काला कर रहा है। निश्कर्ष में यह कहना उचित होगा कि दिल्ली की जनता ही इस भयानक प्रदूषण की ज़िम्मेदार है। कानूनों को लागू नहीं किया जा रहा व अरविंद केजरीवाल की ‘आप पार्टी’ की सरकार ने पिछले 10 वर्षों में दिल्ली को पूरी तरह तहस-नहस कर दिया है। एक समय ‘वेदों’ में प्रकृति की पूजा-अर्चना की जाती थी! अब हमें न अपनी चिंता है और न ही भावी पीडियों की। ओ धरती माँ इन पापियों को क्षमा नहीं करना, जिन्होंने तुम्हारे सम्मान को प्रदुषित किया है!
प्रो. नीलम महाजन सिंह
(वरिष्ठ पत्रकार, राजनैतिक विश्लेषक, सामाज सुधारक, दूरदर्शन व्यक्तित्व व मानवाधिकार संरक्षण सॉलिसिटर)