ऋतुपर्ण दवे
देशवासियों ने एक सपना देखा था, बल्कि कहें कि दिखाया गया था। एक स्मार्ट सिटी होगी उसमें सब कुछ स्मार्ट होगा। बहुत बड़ी कार्य योजना प्रस्तुत की गई। वो खाका खींचा गया कि लगने लगा वाकई हम दुनिया में वो मिशाल पेश करेंगे जो सबके लिए नजीर बनेगी। 25 जून 2015 को केंद्रीय आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय की स्मार्ट सिटीज मिशन की पहल की शुरुआत प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने की थी। यह 100 शहरों के बुनियादी ढांचों में सुधार और आर्थिक विकास को बढ़ावा देनी की मुहिम थी।
स्मार्ट शहरों पर सूचना एवं डिजिटल टेक्नालॉजी की सार्वजनिक व निजी भागीदारी के जरिए शहरों को बेहतर बनाने के उद्देश्य से टिकाऊ और समावेशी विकास पर फोकस किया गया। मिशन को ऐसा उदाहरण बनाने का लक्ष्य भी रखा गया कि ऐसी सिटी के अन्दर और बाहर की व्यवस्थाओं का अनुसरण हो ताकि नागरिकों की सबसे अहम जरूरतों एवं जीवन में सुधार करने के लिए बड़े से बड़े अवसरों को सृजित किया जा सके। मिशन के लिए 7,20, 0000 करोड़ रुपये की फंडिंग भी की गई। इसमें कृत्रिम बुद्धि के तहत आईसीटी का परिचय, आईटी कनेक्टिविटी, डिजिटलीकरण तो ई-गवर्नेंस के तहत ई-पंचायत, ई-चौपाल इसी तरह बुनियादी ढांचे के तहत अच्छे और साफ पानी की आपूर्ति, सभी के लिए बिजली, उचित स्वच्छता, ठोस अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली, शहरी गतिशीलता, पर्याप्त सार्वजनिक परिवहन, आवास जैसी किफायती जीवन स्थितियां और सतत पर्यावरण जैसे जरूरी विषयों को शामिल किया गया।
सरसरी तौर पर योजना को देखने के बाद थोड़ी गुदगुदी तो होती है कि बस थोड़ा से इंताजर के बाद मेरा शहर भी सपनों का सुन्दर शहर होगा। लेकिन योजना को लागू हुए 9 बरस हो चुके हैं। सपने और हकीकत का अन्तर भी साफ झलकने लगा है। हाल की बारिश ने जिस तरह से बड़े से बड़े शहरों की पोल खोलकर रख दी है उससे तो यही लगता है कि इन्फ्रा स्ट्रक्चर के मामले में हमारी बुनियाद ही बहुत कमजोर है। केवल दिल्ली को ही एक आदर्श के रूप में रखें तो भी डर लगता है। राष्ट्रीय राजधानी का जो मंजर बीते सप्ताह बल्कि पखवाड़े में दिखा तो उसने हर किसी को डरा कर रख दिया। 41 वर्षों में महज 24 घण्टों में ही 200 मिलीमीटर बारिश का नया रिकॉर्ड तो बना लेकिन अव्यवस्थाओं की इतनी सारी पोल खुली जिसने पूरे देश को झकझोर दिया। राष्ट्रीय राजधानी के मुख्य स्थानों इण्डिया गेट के आसपास की सड़कों के मंजर से रूह कांप गई। जगह-जगह जलभारव की वो स्थिति बनी कि न जाने कितने लोग इससे जूझे और कितने घायल हुए इसका सही आंकड़ा तक नहीं है।बड़ी-बड़ी घटनाओं की तस्वीरों ने ही इतना कुछ दिखा दिया कि छोटी-मोटी पर भला कौन ध्यान देगा। कमोवेश यही स्थिति दिल्ली से सटे दूसरे महानगरों गाजियाबाद, नोएडा, गुड़गांव,फरीदाबाद की भी रही। दूसरे छोटे-मोटे शहरों खासकर पहाड़ी इलाकों के हालात तो बेकाबू और बेहद दर्दनाक दिखे। यदि दिल्ली की बात करें तो मानसून से पहले करोड़ों रुपये खर्च कर नालों की सफाई पर 10 करोड़ रुपए खर्च हुए। जलभराव से बचाने के खासे इंतजाम के दावे हुए जो 9-10 जुलाई की ही बारिश में धराशायी हो गए। हालात बद से बदतर हो गए।
जब पूरे देश में स्मार्ट सिटी को लेकर दावों-प्रतिदावों का दौर चल रहा हो ऐसे में यदि देश की राजधानी में ही संसाधनों की जबरदस्त कमीं दिखे और जिम्मेदार राजनीतिक बयान दें तो फिर दूसरों को उदाहरण बनाना बेमानी सा लगता है। विचारणनीय यह भी है कि अकेले दिल्ली नगर निगम में 20159 नाले रिकॉर्ड में हैं। इनमें 721 ऐसे नाले भी हैं जिनकी गहराई 4 फीट तक है। बड़े नालों की सफाई ठेके पर होती है जबकि बांकी की खुद निगम करवाता है। हालिया सफाई में सात हजार मीट्रिक टन भी गाद हटाई गई उसके बावजूद पहली ही बारिश में नालों के उफान और दिख रही गाद आसानी से देखी जा सकती है। दिल्ली की अव्यवस्था को लेकर सरकार में बैठे नुमाइंदे और नौकरशाह जो भी दावें करें वो अलग है लेकिन हकीकत भरी दिल्ली में रहने वाले या आने-जाने वाले पूरे साल देखते हैं। हाल ही में भारी बारिश के बाद दिल्ली का दिल इंडिया गेट के पास धंसी सड़क और थमते यातायात को भी देखा। पुरानी दिल्ली-गुरुग्राम रोड पर महज एक बस के खराब हो जाने से समलखा से कापसहेड़ा मे हुए ट्रैफिक जाम और दिल्ली ट्रैफिक पुलिस की इस रास्ते से नहीं जाने की हिदायत उदाहरण हैं। सवाल यह है कि ऐसा कब तक चलेगा? चिन्ता इसलिए भी है कि जहां वर्ष 2011 की जनगणना में दिल्ली की आबादी 1916,787,941 थी जो अब अनुमानतः 19,301,096 पार कर चुकी होगी ऐसे में मौजूदा व्यवस्थाएं और संसाधन कितने पर्याप्त हैं? निश्चित रूप से दिल्ली के मास्टर प्लान को लेकर भी लोगों के दिमाग में सवालों की बौछारें होंगी, लेकिन जवाब कौन देगा?
देश की राजधानी दिल्ली का नाम लेते ही मस्तिष्क में एक स्मार्ट तस्वीर बनती है लेकिन जिस वास्तविकता से लोग रू-ब-रू होते हैं तो अलग ही सच्चाई मुंह कड़वा कर देती है। ऐसे में स्मार्ट सिटी योजना को लेकर देखा गया सपना कितना साकार होता है इस पर लोगों के मन में तरह-तरह के विचार स्वाभाविक हैं। 100 स्मार्ट शहरों की सूची देखें जिनमें पोर्टब्लेयर, विशाखापत्तनम, तिरुपति, काकीनाडा, अमरावती, पासीघाट, गुवाहाटी, मुजफ्फरपुर, भागलपुर, बिहारशरीफ, पटना, चंडीगढ़, रायपुर, बिलासपुर, नया रायपुर, दीव दादरा और नगर हवेली, सिल्वासा, नई दिल्ली नगर परिषद,पणजी, गांधीनगर, अहमदाबाद, सूरत, वडोदरा,राजकोट, दाहोद, करनाल, फरीदाबाद, धर्मशाला, शिमला, श्रीनगर, जम्मू, रांची, मंगलुरु, बेलगावी, शिवमोगा, हुबली धारवाड़, तुमकुरु, दावणगेरे, बेंगलुरु, कोच्चि, तिरुवनंतपुरम, कवरत्ती, भोपाल, इंदौर, जबलपुर, ग्वालियर, सागर, सतना, उज्जैन,नासिक, थाइन, ग्रेटर मुंबई, अमरावती, सोलापुर, नागपुर, कल्याण-डोम्बीवली, औरंगाबाद, पुणे, पिंपरी चिंचवाड़, इंफाल, शिलांग, आइजोल, कोहिमा, भुवनेश्वर, राउरकेला, औल्गरेट, लुधियाना, जालंधर,अमृतसर, जयपुर, उदयपुर, कोटा, अजमेर, नामचि, गंगटोक, तिरुचिरापल्ली, तिरुनेलवेली, डिंडीगुल, तंजावुरी, तिरुपूर, सलेम, वेल्लोर, कोयंबटूर, मदुरै, खत्म, तूतुकुड़ी, चेन्नई, ग्रेटर हैदराबाद, ग्रेटर वारंगल, करीमनगर, अगरतला,मुरादाबाद, अलीगढ़, सहारनपुर, बरेली, झांसी, कानपुर, प्रयागराज, लखनऊ, वाराणसी, गाज़ियाबाद, आगरा, रामपुर, देहरादून शामिल हैं। निश्चित रूप से कइयों ने आधे से ज्यादा शहर बल्कि कहें कि भावी स्मार्ट शहर को हाल-फिलाहाल में जरूर देखा होगा ये कितने स्मार्ट हुए इसका आंकलन उन्हीं पर ही छोड़ना बेहतर होगा।
खास मिशन के तहत बनाए जा रहे ऐसे स्मार्ट शहर देश के दूसरे शहरों को किस तरह स्मार्ट बना पाएंगे यह सवाल बेहद गंभीर है। लगता नहीं कि विकास की गंगा बहाने के नाम पर सरकार के द्वारा खोली गई तिजोरी का जैसा सदुपयोग हो रहा है उससे शहरों के कायाकल्प की योजना कैसे फलीभूत हो पाएगी? उससे भी ज्यादा कुछ दिन पहले आई संयुक्त राष्ट्र बाल कोष यानी यूनीसेफ और विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यूएचओ की एक रिपोर्ट वो कहानी कह रही है जिस पर देश में जल्द ही नई बहस शुरू होना तय है साल 2022 में ग्रामीण भारत में 17 प्रतिशत यानी करोड़ों लोग अभी भी खुले में शौच करते थे। इससे भी ज्यादा चौंकाने वाली बात रिपोर्ट में है जो कहती है कि ग्रामीण भारत में अब भी 25 प्रतिशत परिवारों के पास अपना अलग शौचालय नहीं है जो कि ओडीएफ घोषित किए जाने के लक्ष्यों में शामिल था। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस पर काम तो बहुत हुआ लेकिन अंतर्राष्ट्रीय नतीजों से साफ लगता है कि काम से ज्यादा भ्रष्टाचार का खेल हुआ।
यकीनन सरकार की मंशा पर शक करना बेकार है, लेकिन उनको फलीभूत करने वाली एजेंसियों की नीयत पर सवाल उठेंगे, उठने भी चाहिए। दरअसल जिस तरह से किसी शहर के इन्फ्रास्ट्रक्चर को लेकर तो लंबी-चौड़ी बहस होती है, ठीक वैसे ही इसे अंजाम देने वालों की कार्यप्रणाली पर भी नियंत्रण और पूरी पारदर्शिता की पहल के पुख्ता इंतजाम भी हों जिससे डिजिटल दौर में सब कुछ जैसा है वैसा ही दिखे और दिख सके। बस यही स्मार्ट सिटी का पहला और सबसे जरूरी हिस्सा है जो पारदर्शी हो। लेकिन सवला वहीं कि कैसे?