रक्षाबंधन पर फ़तह की हुई दिल्ली जब सिखों ने मुस्लिम बहन को तोहफ़े में दे दी

Delhi was conquered on Rakshabandhan when Sikhs gifted it to their Muslim sisters

रावेल पुष्प

हमारे देश में दिल्ली के तख़्त पर मुगलिया सल्तनत का शासन लगभग 300 सालों का रहा है ,बाबर से लेकर औरंगजेब और फिर बहादुर शाह द्वितीय तक और सिख गुरु की परंपरा भी गुरु नानक देव से लेकर गुरु गोबिंद सिंह और फिर बंदा बहादुर तथा और जरनैलों का शासन भी मिलाकर लगभग उसी के आसपास ठहरता है यानी दोनों लगभग एक ही कालखंड की घटनाएं हैं।

सिखों के पहले गुरु नानक से लेकर पांचवें गुरु अर्जुन देव तक की पूरी गुरु परंपरा भक्ति भाव और अध्यात्म की ही रही है। वहीं पांचवें गुरु अर्जुन देव जी की शहादत के बाद छठे गुरु हरगोविंद से इसमें कुछ तब्दीली आनी शुरू हो गई थी। इसलिए उन्होंने एक साथ दो तलवारें धारण कीं- एक मीरी की और दूसरी पीरी की !

उन्होंने बताया कि मीरी की यानि राज-काज चलाने की तथा पीरी की यानि आध्यात्म की। मीरी की तलवार से पीरी की तलवार दो इंच लम्बी रखी गई थी, यानि राजकाज का शासन धर्म के अधीन हो। इसका मकसद था कि शासक को ताकतवर होने के बावजूद ईश्वर को नहीं भूलना है और न्याय संगत शासन ही करना है ।

दिल्ली के मुगलिया सल्तनत ने समय-समय पर भयंकर जुल्म किया। बाबर के अत्याचारों पर गुरु नानक देव ने खुलेआम यह कहा था कि- बाबर तूं जाबर हैं! जिसके लिए भले ही उन्हें जेल की सलाखों के पीछे जाना पड़ा था । मुगल सुल्तान जहांगीर के समय सिखों के पांचवे गुरु अर्जुन देव को लाहौर में गर्म तवे पर बिठाकर शहीद कर दिया गया था और नवें गुरु तेग बहादुर को औरंगजेब ने दिल्ली के चांदनी चौक में सर कलम कर शहीद कर दिया था। दसवें गुरु गोविंद सिंह के दो पुत्र जहां युद्ध में शहीद हुए थे, वहीं दो मासूम पुत्रों को जिंदा दीवार में चिनवा दिया गया था। लेकिन फिर भी अन्याय के प्रतिकार के लिए सिखों का जोश कभी रुका नहीं। सिख जरनैल बाबा बंदा सिंह बहादुर को 1716 ईस्वी में अंग- अंग काट का शहीद किया गया, यहां तक कि उसके बेटे को उनके सामने मार कर उसका कलेजा उनके मुंह में ठूंसा गया ।

औरंगजेब के बाद मुगल सल्तनत धीरे-धीरे खोखली होती जा रही थी और उसका शासन भी सीमित रह गया था। उस दौरान अफगानिस्तान से हमलावरों का आना शुरू हो चुका था जो भारत से करोड़ों की संपत्ति, हीरे जवारत तथा बच्चों और युवतियों को लूट कर ले जाने लगे थे। पहले नादिर शाह और फिर अहमद शाह अब्दाली ने हिंदुस्तान पर कई बार हमले किये। अब्दाली को रोकने वाला कोई नहीं था, लेकिन फिर सिखों की फौज से कई बार युद्ध हुए और सिखों ने उनके कब्जे से महिलाओं को छुड़वा कर उनके घर बाईज्जत भेजा । आखिरकार फिर वापस आने की अब्दाली हिम्मत नहीं कर पाया।‌ इस बीच सिख योद्धाओं ने अलग-अलग जत्थे कायम कर लिए,जिन्हें मिसल कहा जाता था जिसमें उनका एक-एक बहादुर योद्धा लीडर होता था।

दिल्ली का तख़्त, जिसके जुल्मों का लंबा इतिहास रहा है, उसके अहंकार को दूर करने के लिए जत्थेदार सरदार बघेल सिंह तथा जत्थेदार जस्सा सिंह अहलूवालिया ने सिखों की फौज के साथ 8 मार्च 1783 को दिल्ली पर चढ़ाई कर दी। उस समय दिल्ली के तख़्त पर शाह आलम द्वितीय विराजमान था। सिख फौजों ने दिल्ली के अलग-अलग हिस्सों को अपने कब्जे में लेना शुरू कर दिया था। इसी बीच रामगढ़िया मिसल के जत्थेदार जस्सा सिंह रामगढ़िया भी अपनी फौज के साथ दिल्ली पहुंच चुके थे।

शाह आलम द्वितीय को जब हमले का पता चला तो उसने लाल किले के सभी फाटकों को बंद करवा दिया।सिख योद्धाओं ने किले की दीवार का पहले अच्छी तरह मुआयना किया फिर एक जगह ठीक की और दीवार पर मोटी लकड़ी के कुंदे से मार- मार कर तोड़ दिया। वहां एक बड़ा छेद बना लिया जिसके अंदर से सभी लाल किले में दाखिल हो गये। जिस जगह पर वो छेद किया गया था, उसे अब मोरी गेट कहा जाता है। मोरी का पंजाबी में अर्थ होता है छेद,वहीं अब अंतरराष्ट्रीय बस टर्मिनस है। दिल्ली जीतने के बाद जिस जगह मिठाई बांटी गई थी,वह जगह मिठाई पुल के नाम से परिचित है और उस समय जहां बाबा बघेल सिंह के नेतृत्व में 30 हजार सैनिक तैनात हुए थे वह जगह तीस हजारी के नाम से प्रसिद्ध है, जहां कई जिला अदालतें लगती है। 11 मार्च 1783 को सिख फौजें दरबारे आम तक जा पहुंची और लाल किले पर लहरा दिया गया था – केसरी निशान!

केसरी निशान फहराने के साथ ही दिल्ली पर हो गया था सिखों का कब्जा।

शाह आलम अब सिखों के कब्जे में कैद था।

वह लाल किला जहां कभी मुगल शासक औरंगजेब तथा बहादुर शाह अपना दरबार लगाया करते थे उसी दीवाने आम पर जत्थेदार जस्सा सिंह अहलूवालिया को सुल्तान ऐलान कर दिया गया। शाह आलम द्वितीय बंदी होते हुए गहरी चिंता में था, लेकिन इस दौरान उसे एक युक्ति सूझी और उसने अपनी बेगम समरू को बुला भेजा । बेगम समरू,जिसने कभी बाबा बघेल सिंह को रक्षाबंधन कर अपना धर्म भाई बनाया था। बेगम समरू ने विचार विमर्श किया और अपने सहयोगी को साथ लेकर बाबा बघेल सिंह के पास जा पहुंची और उससे बहन होने का वास्ता दिया तथा शाह आलम की जान की खैर मांगी।धन्य है वो धर्म भाई जिसके पूर्वजों पर मुगलों ने बेइंतहा जुल्म ढाये थे, उसने बेगम समरू के सर पर हाथ रखा और कहा- जा बहन, तुम्हारे शाह आलम की जिंदगी मैंने बख्श दी। लेकिन बेगम समरू इतने पर भी नहीं रुकी, उसने फिर इल्तिज़ा की कि लाल किले पर शाह आलम का अधिकार बरकरार रहे।

बाबा बघेल सिंह ने थोड़ी देर सोचा फिर उसने कहा- बहन समरु,जा तू भी क्या याद करेगी और इतिहास भी क्या याद रखेगा- लाल किला और जीती हुई दिल्ली वापस करते हैं।लेकिन इसके साथ उन्होंने कुछ शर्तें भी रखीं ,जिसमें पहली थी- उन सारे स्थानों की पहचान की जाएगी जहां सिख गुरुओं की शहादत या फिर अन्य घटनाएं जुड़ी हुई हों और वहां यादगार इमारत यानी गुरुद्वारा बनाने का फरमान जारी किया जाए । इसके अलावे दिल्ली में जितनी भी बिक्री होगी उस पर लगने वाली चुंगी का 37.5% सिखों को दिया जाए, जिससे सिख फौजियों का खर्च तथा गुरुद्वारों के निर्माण वहां से किया जा सके। ये सारी शर्तें मान ली गईं और जीती हुई दिल्ली एक धर्म भाई ने अपनी बहन को तोहफ़े में दे दी। बघेल सिंह के अलावे दूसरे सिख जरनैलों ने भी उनके दिए गए वचन का मान रखा और सिख फौज वहां से वापस पंजाब चली गई।हां,जीत के प्रतीक के रूप में वहां से तख़्ते-ताउस को उखाड़ कर साथ ले गए और स्वर्ण मंदिर की परिक्रमा में लगा दिया।

बाबा बघेल सिंह अपनी सैन्य टुकड़ी के साथ वहां लगभग 6 महीने रहे और दिल्ली के सभी ऐतिहासिक गुरुद्वारों का निर्माण करवाया, जिनमें शामिल थे- गुरूद्वारा शीशगंज, गुरुद्वारा बंगला साहिब,बाला साहिब,माता सुंदरी जी, रकाबगंज, मोतीबाग तथा मजनू का टीला। बघेल सिंह की वापसी पर शाह आलम द्वितीय ने उन्हें अमृतसर स्वर्ण मंदिर में प्रसाद चढ़ाने के लिए ₹5000 भेंट किए और बड़े आदर सत्कार के साथ उन्हें रुख़सत किया।

गौरतलब है कि हमारी पाठ्य पुस्तकों में अकबर महान की बातें तो बड़ी शान से पढ़ाई जाती हैं, लेकिन इस सुनहरे पन्ने का कहीं जिक्र नहीं मिलता,जब फ़तह की हुई दिल्ली सिखों ने वचन की रक्षा के लिए मुस्लिम बहन को तोहफ़े में दे दी।