रविवार दिल्ली नेटवर्क
मेरठ : भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में उत्तर प्रदेश स्थित मेरठ का अपना विशेष योगदान रहा है I 10 मई 1857 के दिन मेरठ से ही ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध क्रांति की शुरुआत हुई थी, जिसका परिणाम पूरे देश में दिखाई दिया I 1857 में हुए स्वतंत्रता संग्राम में मेरठ के क्रांति नायक धन सिंह कोतवाल भी शामिल थे, जिन्होंने अपनी वीरता से ब्रिटिश सेना को बड़ी क्षति पहुंचाई थी I धन सिंह कोतवाल के वंशज हंसराज जी ने आज क्रांति नायक धन सिंह की वीरता और उनकी संघष गाथा को सामने रखा था I
स्वतंत्रता संग्राम के वीरों को नमन करते हुए उनकी वीरगाथा और योगदान को वर्तमान एवं आगामी पीढ़ी के सामने लाने के उद्देश्य से बुधवार को मेरठ कैंट स्थित औघड़नाथ मंदिर सभागार (काली पल्टन) में “क्रांतितीर्थ” श्रृंखला के अंतर्गत एक समारोह का आयोजन किया गया I समारोह का आयोजन क्रांति तीर्थ अमृत महोत्सव आयोजन समिति मेरठ प्रांत के द्वारा किया गया I
“क्रांतितीर्थ” श्रृंखला का आयोजन देश के विभिन्न हिस्सों में आजादी के अमृत महोत्सव के अंतर्गत संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार के निर्देशन में सेंटर फॉर एडवांस्ड रिसर्च ऑन डेवलपमेंट एंड चेंज (सीएआरडीसी) द्वारा संस्कार भारती के सहयोग से किया जा रहा है I औघड़नाथ मंदिर सभागार में आयोजित क्रांतितीर्थ समारोह में सैकड़ों लोगों ने वीर शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की और उनकी वीरता को याद किया I समारोह में 1857 की क्रांति में हिस्सा लेने वाले वीर धन सिंह कोतवाल के वंशज पांचवें वंशज हंसराज जी को सम्मानित किया गया I
इस अवसर पर समारोह के मुख्य वक्ता एवं जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र के निदेशक आशुतोष जी ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम के विषय में उन बिंदुओं को सामने रखा, जिनसे शायद ही देश की जनता परिचित होगी I उन्होंने कहा कि भारत में क्रांति का ताना-बाना तो उसी दिन से शुरू हो गया था, जिस दिन वास्कोडिगामा ने 15वीं शताब्दी में भारत में पहली बार कदम रखा और सशक्त प्रतिरोध का इतिहास साक्षी बना, जिसकी परिणति 1857 की क्रांति और उससे पूर्व हुए विभिन्न विद्रोह के रूप में सामने आती रही I अंग्रेजों सहित अन्य विदेशी शक्तियों ने भारत को गुलाम बनाने के लिए खोज की, लेकिन 1757 में प्लासी की लड़ाई से लेकर 1947 तक अर्थात 190 वर्ष के संघर्ष में सिर्फ आधा भारत ही अंग्रेजों के नियंत्रण में हो सका।
उन्होंने कहा कि क्रांतिधारा मेरठ को इसका श्रेय जाता है, यहां से क्रांतिकारियों ने पूरे देश को ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध सशक्त प्रतिरोध के माध्यम से स्वतंत्रता प्राप्ति का मार्ग दिखाया। सैनिकों से पहले संपूर्ण समाज में हमें क्रांति के प्रति जागृति दिखाई पड़ती है। चाहे वह काश्तकार रहा हो अथवा दस्तकार, यहां तक कि नगरवधुओं ने भी क्रांति में अपनी सहभागिता की I मेरठ की क्रांति ने पूरे विश्व के समक्ष एक नई अवधारणा रखी कि औपनिवेशिक शासन ज्यादा दिन तक नहीं टिक सकता I मेरठ से फूटी चिंगारी ने पूरे देश को अपने आंचल में समेटा, जिसमें सभी समाज के लोगों की सहभागिता रही।
उन्होंने वीर सावरकर, चापेकर बंधुओं के बलिदान और क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़े वैज्ञानिकों और राजनेताओं की चर्चा करते हुए कहा कि इतिहासकारों को 1857 की क्रांति से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक महत्वपूर्ण बलिदानी परंपरा से जुड़ी घटनाओं को नई पीढ़ी तक पहुंचाना होगा। लेकिन इसमें यह भी ध्यान देना होगा कि स्वतंत्रता के लिए अपना सब कुछ बलिदान देने वाले उन नायकों को सामने लाया जाया, जिन्हे अब तक इतिहास में स्थान नहीं मिला I अल्पज्ञात या भुला दिए गए वीरों के योगदान को आम जनता के सामने लाना है, जिससे देश की वर्तमान और आगामी पीढ़ी उनकी गाथाओं से परिचित हो सके I
इस अवसर पर क्रांति तीर्थ समिति के सदस्य एवं इतिहासकार प्रोफेसर देवेश चंद्र शर्मा ने कहा कि ब्रिटिश सत्ता का मंतव्य व्यापार करने के साथ-साथ धर्म का प्रचार-प्रसार और धर्म परिवर्तन के लिए प्रलोभन देना था I इसके लिए उन्होंने 50 वर्षों का समय निश्चित किया था और उनका लक्ष्य पूरे भारत को ईसाई बनाना था I लेकिन 1857 की क्रांति के कारण ब्रिटिश सत्ता अपने मंतव्य को पूरा नहीं कर पायी I उन्होंने व्यापारिक उपनिवेशवाद के साथ-साथ सांस्कृतिक और धार्मिक उपनिवेशवाद के विस्तार के लिए भारत में अनुदानों के माध्यम से धर्मांतरण कर समाज को तोड़ने का काम किया। मगर क्रांति ने भारतीय जनमानस में राष्ट्रवाद की ऐसी अलख जगाई कि देश स्वतंत्र होकर ही रहा।
समारोह में डॉ सुशील भाटी ने 18 57 की क्रांति के स्वरूप का जिक्र किया कि किस तरह से यूरो सेंट्रिक इतिहासकारों ने इस क्रांति के स्वरूप और प्रभाव को मोड़ने का काम किया। इसके बारे में भ्रांतियां फैलाई जबकि वास्तव में यह जनक्रांति थी, जिसने इतिहास लेखन की दिशा और दशा को ही मोड़ दिया। मेरठ से शुरू हुई इस क्रांति के प्रस्फुटन का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि रातों-रात हजारों की संख्या में क्रांतिकारी आसपास के ग्रामों से मेरठ के सदर क्षेत्र में एकत्रित चुके थे और कोतवाल धन सिंह ने अपनी अंग्रेजी फौज को स्पष्ट निर्देश दे रखे थे कि कोई भी सिपाही किसी भी क्रांतिकारी के साथ पुलिसिया व्यवहार नहीं करेगा। परिणाम स्वरूप क्रांतिकारियों ने विक्टोरिया पार्क जिसे अब भामाशाह पार्क कहा जाता है, स्थित जेल को तोड़कर सैनिकों समेत लगभग 800 से अधिक बंदियों को छुड़ा लिया था। ब्रिटिश दस्तावेजों में ऐसे प्रमाण भी उपलब्ध हैं, जो ब्रिटिश राजशाही के विरुद्ध प्रतिरोध के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं।
इस अवसर पर क्रांति तीर्थ अमृत महोत्सव समिति के मीडिया प्रभारी इतिहासकार प्रोफेसर नवीन गुप्ता ने कहा कि बलिदानी क्रांतिकारियों को जाति समुदाय और मजहबी दीवारों में कैद नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि उनका एकमात्र धर्म राष्ट्रधर्म था I उनका लक्ष्य किसी वर्ग-जाति-समुदाय विशेष को स्वतंत्र कराना नहीं, बल्कि पूरे भारत को व्रिटिश सत्ता की दासता से मुक्त कराना था I इसलिए इससे क्रांतिधारा से फूटी क्रांति की चिंगारी ने वैश्विक घटना का स्वरूप ले लिया I जब-जब फ्रांस की 1789 और रूस की 1917 की क्रांतियों की चर्चा होगी, निश्चित रूप से औपनिवेशिक साम्राज्य के विरुद्ध प्रतिरोध की घटनाक्रम के रूप में 1857 की क्रांति का भी इतिहास में उल्लेख होगा।
समारोह में समिति के प्रांतीय संयोजक अश्वनी त्यागी ने क्रांति तीर्थ अमृत महोत्सव आयोजन समिति के द्वारा मेरठ प्रांत में होने वाले कार्यक्रमों की विस्तार से जानकारी दी I साथ ही 35 सदस्यीय समिति की घोषणा भी की I कार्यक्रम का शुभारंभ औघड़नाथ मंदिर में स्थित बलिदानों की स्मृति में बने स्मारक पर सामूहिक पुष्पांजलि कार्यक्रम से हुआ I कार्यक्रम में अतिथियों को विस्मृति प्रतीक चिन्ह तथा पटका भेंट कर सम्मानित किया गया। डॉ मीनाक्षी शास्त्री व राम-लखन पटेल ने काव्य पाठ किया। कार्यक्रम में ब्रज भूषण गर्ग, वरुण अग्रवाल, डॉक्टर मयंक अग्रवाल, शहीद धन सिंह कोतवाल शोध संस्थान के चेयरमैन तस्वीर सिंह चपराना, बीपी त्यागी, बृजपाल सिंह चौहान, प्रोफेसर विघ्नेश त्यागी, शील वर्धन, डॉक्टर दिशा दिनेश, प्रोफेसर हरेंद्र सिंह, मनोज गिरी, स्वतंत्र संग्राम सेनानी परिषद मेरठ के महामंत्री कृष्ण पाल सिंह, सचिन भड़ाना, नरेश कुमार, राजेश त्यागी, कपिल धवन, रजनीश प्रकाश त्यागी, नरेंद्र कुमार चौहान, अशोक सोम का प्रमुख रूप से सहयोग रहा और संचालन प्रोफेसर नवीन गुप्ता ने किया।