रविवार दिल्ली नेटवर्क
आज 3 दिसंबर 2025 को है ध्यानचंद की 46वीं पुण्यतिथि
भारत को आजादी से पहले लगातार तीन ओलंपिक 1928 (एम्सटर्डम), 1932 (लॉस एंजेल्स) और 1936 (बर्लिन) में तीन बार हॉकी में स्वर्ण पदक जिताने में दद्दा ध्यानचंद की हॉकी की कलाकारी का अहम योगदान रहा। उनके लिए हॉकी ही सब कुछ थी। हॉकी में भारत के गौरव का परचम दुनिया में फहराने में जो नाम हमेशा सबसे अव्वल रहेगा, वह सिर्फ और सिर्फ मेजर ध्यानचंद है। दूसरे विश्व युद्ध के कारण एक दशक से ज्यादा समय तक ओलंपिक खेल नहीं हो पाए थे। यदि यह अवरोध नहीं आया होता तो मुमकिन था कि ध्यानचंद लगातार चार ओलंपिक में शिरकत करने और ओलंपिक हॉकी में लगातार चार स्वर्ण जीतने वाले शायद दुनिया के इकलौते खिलाड़ी होते।
29 अगस्त, 1905 को इलाहाबाद में जन्में ध्यानचंद हॉकी खेलने में इतने व्यस्त रहे कि अपने परिवार पर कभी ठीक से ध्यान ही नहीं दे पाए। दद्दा के परिवार को उनके हॉकी खेलने के लिए बहुत कुर्बानियां देनी पड़ी। हॉकी ने ध्यानचंद को नाम तो भरपूर दिया, पर दाम नहीं दिया। इस कारण उनके परिवार को फाके भी करने पड़े। उनके भरे-पूरे परिवार ने लंबा वक्त मुफलिसी में गुजारा। ध्यानचंद का भारतीय हॉकी के लिए समर्पण ऐसा था कि परिवार के दुख-दर्द को गलती से भी कभी ताउम्र जुबां पर लाए ही नहीं। उनकी आरजू हमेशा भारत को हॉकी में ओलंपिक जैसे बड़े मंच पर लगातार स्वर्ण पदक जीतते देखने की रही। दद्दा ध्यानचंद ने 3 दिसंबर, 1979 को दिल्ली में दुनिया को अलविदा कह दिया।
आज यानी 3 दिसंबर , 2025 को उनकी 46 वीं पुण्यतिथि है। इस मौके पर झांसी में उनकी समाधि हीरोज क्रीड़ा स्थल पर उन्हें शिद्दत से याद किया जाएगा। इस मौके पर मेजर ध्यानचंद के मंझले बेटे और भारत की 1975 में क्वलालांपुर में हॉकी विश्व कप की जीत के नायक रहे अशोक कुमार ध्यानचंद सिंह कई गणमान्य लोग मौजूद रहेंगे।
दद्दा ध्यानचंद ने अपनी लगभग पूरी हॉकी फौज के लिए खेली। घरेलू हॉकी में वह अपने प्रिय झांसी हीरोज क्लब के लिए खेले।
झांसी हीरोज के लिए खेलने वाले खिलाड़ियों को फौज से दद्दा ध्यानचंद की सालाना छुट्टियों का बेसब्री से इंतजार रहता था।
छुट्टियों में वह झांसी हीरोज के लिए खूब खुलकर खेलते थे। इस दौरान वह क्लब के अपने साथियों को अपने उस्ताद बाले तिवारी से सीखी हॉकी की बारीकियां भी खूब सिखाते थे। उनके गुरू बाले तिवारी ने उन्हें यह बात बखूबी सिखाई थी कि ज्ञान जितना बांटोगे, उतना बढ़ेगा। उनके साथ झांसी हीरोज के लिए खेले कई खिलाड़ियों ने आगे चलकर भारत का खूब नाम रोशन किया। दादा किशन लाल, मथुरा प्रसाद, इस्माइल, नन्हें लाल ने भी ध्यानचंद के साथ झांसी में बराबर प्रैक्टिस मैच खेले।
दद्दा ध्यानचंद अपने आखिरी दिनों में भारतीय हॉकी की दशा से बहुत दुखी थे। वह कहते थे कि ‘हिन्दुस्तान की हॉकी खत्म हो गई है। भारतीय खिलाडियों में जीत की इच्छा शक्ति ही नहीं है। अपनी मुफलिसी के बावजूद वह हमेशा भारतीय हॉकी को लेकर फिक्रमंद रहे। उम्र के आखिरी पड़ाव में उन्हें कई रोगों ने घेर लिया था। तत्कालीन सरकार, भारतीय हॉकी संघ (आईएचएफ) और खुद भारतवासियों ने जिस तरह से उनके प्रति बेरुखी दिखाई, उससे वह भीतर ही भीतर टूट गए थे। उन्होंने दिल्ली के एम्स में कैंसर से लड़ते हुए 3 दिसंबर, 1979 को अंतिम सांस ली। इससे चंद महीने पहले ही उन्होंने कहा था- ‘मेरी मौत पर दुनिया जरूर रोएगी, लेकिन मेरे अपने वतन भारत के लोग मेरे लिए आंसू नहीं बहाएंगे।’ उनकी यह बात एकदम सही साबित हुई।
आखिरी दिनों में उनके इलाज के लिए परिवार के पास पैसे नहीं थे। झांसी में उनकी हालत बिगड़ऩे लगी तो उन्हें ट्रेन से दिल्ली इलाज के लिए लाया गया। मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। शुरू में उन्हें एम्स में वार्ड भी नहीं मिला। डॉक्टरों ने उन्हें गलियारे में डाल दिया। पीटीआई के तत्कालीन खेल संपादक जगन्नाथ राव को जब मालूम पड़ा कि दद्दा इस हालत में एम्स में भर्ती हैं, तो वह सन्न रह गए। उन्होंने तब एम्स के डायरेक्टर के पास जाकर उन्हें बताया कि जो शख्स गलियारे में बिस्तर पर लेटा है वह भारतीय हॉकी ही नहीं, विश्व हॉकी का गौरव है। पीटीआई से यह खबर चलने और देश भर के कई प्रमुख अखबारों में छपने के बाद तो बवाल ही मच गया है। तब देश के बाकी अखबारों के खेल पत्रकार भी एम्स पहुंचे। अखबारों में खबरें छपी तो एम्स का पूरा अमला और देश का स्वास्थ्य मंत्रालय हरकत में आया। तब दद्दा को वीआईपी वॉर्ड में शिफ्ट किया गया। तब तक वाकई बहुत देर हो चुकी थी। 3 दिसंबर, 1979 को जैसे ही उनके निधन का समाचार रेडियो पर आया तो एम्स में उनके मुरीद अंतिम दर्शन की आस में इतनी भारी तादाद में पहुंचे कि उन्हें संभालना मुश्किल हो गया। ध्यानचंद के रूप में भारत ही नहीं, दुनिया ने हॉकी का ऐसा सर्वकालीन महान कलाकार खो दिया था, जिसे दुनिया हॉकी का जादूगर कहती ही नहीं थी, आज भी उन्हें इसी नाम से जानती है।
ध्यानचंद का परिवार उनका अंतिम संस्कार झांसी के हीरोज मैदान पर करना चाहता था। तब काफी मशक्कत के बाद हेलिकॉप्टर की व्यवस्था हो पाई और उनका पार्थिव शरीर झांसी ले जाया गया। इससे ज्यादा दुखद क्या हो सकता है कि जब वह जीवन की अंतिम घड़ियां गिन रहे थे तब किसी भी खेल अधिकारी ने उनकी सुध नहीं ली। खेल पत्रकार जगन्नाथ राव की भागदौड़ से ही खेल अधिकारियों और राजनीतिज्ञों की नींद टूटी। हकीकत यही है कि हमने भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया की हॉकी के महानायक की कद्र नहीं की। भारत का 1980 में आठवीं और आखिरी बार मास्को में ओलंपिक में हॉकी में स्वर्ण पदक जीतने के बाद 2020 में टोक्यो और 2024 में पेरिस ओलंपिक में लगातार दो बार कांसा जीतना जरा उम्मीद बंधाता है।
भारतीय खिलाड़ी आज भी अपने हॉकी में ध्यानचंद के समर्पण को अपना लें, तो भारतीय हॉकी अंधी गली से निकल कर एक बार फिर अपने स्वर्णिम अतीत की ओर लौटने की आस जरूर कर सकती है। यदि ऐसा हुआ तो भारतीय हॉकी के लिए वाकई सुखद होगा। सवाल एक बार फिर वही, क्या हम गलतियों से सबक सीख कर फिर शिखर को चूमने की बाबत सोचेंगे।





