डिजिटल जुनून और युवा हिंसा: समाज के सामने गंभीर चुनौती

Digital obsession and youth violence: A serious challenge facing society

मुनीष भाटिया

समाज का भविष्य उसकी युवा पीढ़ी होती है। यदि युवा सशक्त, जागरूक और जिम्मेदार हों, तो किसी भी राष्ट्र को प्रगति और समृद्धि से कोई नहीं रोक सकता। लेकिन यदि यही ऊर्जा गलत दिशा में मुड़ जाए, तो वही युवा समाज और राष्ट्र के लिए चुनौती भी बन सकते हैं। दुर्भाग्य से आज हम एक ऐसे दौर से गुजर रहे हैं, जहाँ विज्ञान और तकनीक ने भले ही अभूतपूर्व तरक्की कर ली हो, लेकिन मानवीय मूल्य, संवेदनशीलता और नैतिकता धीरे-धीरे कमजोर पड़ते जा रहे हैं। इसका सबसे प्रत्यक्ष और चिंताजनक असर युवाओं के भीतर पनप रही हिंसक प्रवृत्तियों में दिखाई देता है।

पिछले कुछ वर्षों में ऐसी कई घटनाएं हुई हैं जिन्होंने हमें झकझोर कर रख दिया है। कभी किसी स्कूल के टिफिन बॉक्स से चाकू निकलता है, कभी छोटी-सी कहासुनी पर जानलेवा हमला हो जाता है, तो कभी शिक्षकों तक को बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया जाता है। हाल ही में हरियाणा में एक युवा शिक्षक की हत्या की घटना ने समाज को गहरी सोच में डाल दिया है। ये घटनाएँ केवल आपराधिक समाचार नहीं हैं, बल्कि इस बात का संकेत हैं कि हमारी युवा पीढ़ी एक खतरनाक मोड़ पर खड़ी है।

आज का युवा डिजिटल दुनिया से घिरा हुआ है। स्मार्टफोन और इंटरनेट उनकी दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं। ऑनलाइन गेम्स, जिनमें मारपीट और हिंसा को रोमांचक और मनोरंजक बनाकर प्रस्तुत किया जाता है, युवाओं के मनोविज्ञान पर गहरा असर डाल रहे हैं। युवाओं में बढ़ती हिंसा का एक बड़ा कारण डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म और गेमिंग ऐप्स पर आसानी से उपलब्ध हिंसक व अश्लील कंटेंट है। सरकार ने समय-समय पर इस दिशा में कदम उठाए हैं। कई बार ऐसे मोबाइल गेम्स और ऐप्स पर प्रतिबंध लगाया गया है, जिनमें अत्यधिक हिंसा, नशे या असामाजिक गतिविधियों को बढ़ावा दिया जाता था। हाल ही में कुछ ऑनलाइन गेम्स को इस आधार पर प्रतिबंधित किया गया कि वे बच्चों और किशोरों के मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डाल रहे थे और उनमें आत्मघाती प्रवृत्तियों को उकसाने वाली सामग्री मौजूद थी। हालांकि, केवल प्रतिबंध ही स्थायी समाधान नहीं है। सरकार को डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म्स के लिए सख़्त गाइडलाइंस और प्रभावी मॉनिटरिंग सिस्टम तैयार करना होगा, ताकि युवाओं को सुरक्षित और सकारात्मक कंटेंट ही उपलब्ध कराया जा सके। साइबर नियामक ढांचे को मजबूत करने के साथ-साथ डिजिटल साक्षरता पर भी ध्यान देना होगा, ताकि माता-पिता और बच्चे दोनों यह समझ सकें कि कौन-सा कंटेंट सुरक्षित है और कौन-सा हानिकारक। कई बार बच्चे और किशोर इन खेलों के पात्रों से इतना जुड़ जाते हैं कि वास्तविक जीवन में भी उसी तरह का व्यवहार करने लगते हैं। जब आभासी हिंसा आदत बन जाती है, तो संवेदनशीलता और करुणा धीरे-धीरे खत्म होने लगती है। इसके अलावा, इंटरनेट पर बिना किसी नियंत्रण के अश्लील और हिंसक सामग्री की उपलब्धता ने स्थिति को और गंभीर बना दिया है। यह कहना गलत नहीं होगा कि डिजिटल युग ने जहाँ ज्ञान और अवसरों की दुनिया खोली है, वहीं उसने हिंसा और नैतिक पतन का रास्ता भी आसान कर दिया है।

युवाओं के हिंसक व्यवहार का एक बड़ा कारण पारिवारिक वातावरण की कमी भी है। आज की तेज रफ्तार जिंदगी में माता-पिता अपने बच्चों को पर्याप्त समय नहीं दे पाते। कामकाजी जीवन की व्यस्तता और भौतिक सुख-सुविधाओं की होड़ में बच्चों की भावनात्मक ज़रूरतें पीछे छूट जाती हैं। बच्चे जब अपने माता-पिता से भावनात्मक रूप से दूर होते हैं, तो वे सही-गलत का फर्क समझाने वाले मार्गदर्शक से वंचित हो जाते हैं। कभी पारिवारिक वातावरण बच्चों को नैतिकता, धैर्य और सहनशीलता सिखाता था। संयुक्त परिवार व्यवस्था में बच्चे अपने दादा-दादी और बड़ों से जीवन के मूल्य सीखते थे। लेकिन अब जब परिवार छोटे और व्यस्त होते जा रहे हैं, तो बच्चे अपने अकेलेपन और असुरक्षा से जूझते हुए गलत संगत या गलत रास्तों की ओर बढ़ जाते हैं। यही अकेलापन कई बार उन्हें हिंसा का सहारा लेने के लिए प्रेरित करता है।

आज का समाज सफलता को सबसे बड़ी कसौटी मान बैठा है। हर माता-पिता चाहते हैं कि उनका बच्चा स्कूल, कॉलेज, नौकरी या व्यवसाय में सबसे आगे निकले। प्रतियोगिता की यह दौड़ युवाओं पर अस्वाभाविक दबाव डाल रही है। नतीजा यह होता है कि युवा अधीर हो गए हैं। उन्हें तुरंत परिणाम चाहिए, वे शॉर्टकट अपनाने लगते हैं और असफल होने पर निराशा से भर जाते हैं। यह निराशा धीरे-धीरे आक्रामकता और हिंसक प्रवृत्तियों का रूप धारण कर लेती है। यह स्थिति हमें सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हम अपने बच्चों को केवल सफल बनाना चाहते हैं, या उन्हें संवेदनशील और जिम्मेदार इंसान भी बनाना चाहते हैं।

यह मानना गलत होगा कि केवल कानून और व्यवस्था से इस समस्या का समाधान हो सकता है। पुलिस और अदालतें अपराध रोक सकती हैं, लेकिन अपराध की जड़ें वहीं पनपती हैं जहाँ परिवार, समाज और शिक्षा कमजोर पड़ जाते हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि समाज के हर वर्ग को मिलकर इस चुनौती का सामना करना होगा। माता-पिता को चाहिए कि वे अपने बच्चों से संवाद करें, उनके मित्र बनें और उनके ऑनलाइन व्यवहार पर नजर रखें। बच्चों को सिखाना होगा कि डिजिटल दुनिया में हर चीज पर आँख बंद करके भरोसा नहीं किया जा सकता। शिक्षा संस्थानों की भी बड़ी जिम्मेदारी है। स्कूल और कॉलेज केवल पढ़ाई का केंद्र नहीं होने चाहिए, बल्कि वहाँ नैतिक शिक्षा, जीवन कौशल और मानसिक स्वास्थ्य पर भी ध्यान देना चाहिए। विद्यार्थियों को खेल, कला और साहित्य जैसी रचनात्मक गतिविधियों में जोड़ना चाहिए, ताकि उनकी ऊर्जा सकारात्मक दिशा में लगे।

युवाओं में बढ़ती हिंसा का एक बड़ा कारण मानसिक स्वास्थ्य की अनदेखी भी है। समाज में अब भी अवसाद, चिंता या तनाव को कमजोरी समझा जाता है। जबकि सच्चाई यह है कि मानसिक असंतुलन ही कई बार हिंसक प्रवृत्तियों की जड़ होता है। युवाओं को यह विश्वास दिलाना होगा कि मानसिक समस्या होने पर मदद लेना कमजोरी नहीं बल्कि साहस का काम है। विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में काउंसलिंग की व्यवस्था होनी चाहिए, ताकि युवा अपने तनाव और निराशा को व्यक्त कर सकें और सही मार्गदर्शन पा सकें। यदि समय रहते उनकी मनोवैज्ञानिक परेशानियों को समझा और सुलझाया जाए, तो हिंसक घटनाओं को काफी हद तक रोका जा सकता है।

मीडिया और मनोरंजन जगत भी युवाओं की सोच को गहराई से प्रभावित करता है। फिल्मों और धारावाहिकों में जब बार-बार हिंसा को महिमामंडित किया जाता है, तो यह संदेश जाता है कि ताकत और आक्रामकता ही जीवन का समाधान है। यह प्रवृत्ति खतरनाक है। मीडिया को चाहिए कि वह मनोरंजन और समाचार प्रस्तुत करते समय सामाजिक जिम्मेदारी का ध्यान रखे। समाज में संवेदनशीलता, करुणा और नैतिकता को प्रोत्साहित करने वाले कंटेंट को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। यह सच है कि युवा ऊर्जा और जोश से भरपूर होते हैं। यदि इस ऊर्जा को सकारात्मक दिशा मिले, तो वही युवा समाज और राष्ट्र की सबसे बड़ी शक्ति बन सकते हैं। विज्ञान, तकनीक, खेल, कला और साहित्य—हर क्षेत्र में हमारे युवाओं की प्रतिभा अद्वितीय है। आवश्यकता इस बात की है कि हम उन्हें सही अवसर और सही वातावरण दें।

युवा वर्ग में बढ़ती हिंसा केवल अपराध का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह हमारे सामाजिक, पारिवारिक और सांस्कृतिक ढांचे की कमजोरी का परिणाम है। यह समय है जब हमें सामूहिक रूप से आत्ममंथन करना चाहिए। माता-पिता, शिक्षक, समाज, मीडिया और सरकार—सभी को मिलकर यह जिम्मेदारी उठानी होगी। हमें अपने बच्चों को केवल सफल नहीं बल्कि अच्छा इंसान भी बनाना होगा। उन्हें करुणा, धैर्य और जिम्मेदारी की शिक्षा देनी होगी। हमें यह याद रखना चाहिए कि युवा शक्ति ही हमारे देश का भविष्य है। यदि इस शक्ति को सकारात्मक दिशा दी गई, तो यही शक्ति हमें विश्व पटल पर नई पहचान दिलाएगी। लेकिन यदि इसे अनियंत्रित छोड़ दिया गया, तो यही शक्ति समाज को हिंसा और अव्यवस्था की ओर धकेल देगी। समय की मांग है कि हम अपने युवाओं के भीतर छिपी ऊर्जा को सही दिशा दें और उन्हें यह विश्वास दिलाएं कि सच्ची शक्ति हिंसा में नहीं, बल्कि संवेदनशीलता और मानवता में है। तभी हम एक सुरक्षित, सशक्त और उज्ज्वल भविष्य का निर्माण कर पाएँगे।