
विजय गर्ग
यह खबर चौंकाने वाली है कि बीते साल विदेश जाने वाले छात्रों की संख्या में 25 फीसदी की कमी आई है। जबकि अमेरिका जाने वाले छात्रों की संख्या में 36 और कनाडा जाने वाले छात्रों की संख्या में 34 फीसदी की कमी आई है। कमोबेश यही स्थिति ब्रिटेन की भी है। ये आंकड़े वर्ष 2024 के हैं। निश्चित तौर पर जब ट्रंप काल में उखाड़-पछाड़ के दौर के आंकड़े सामने आएंगे, तो वे ज्यादा चौंकाने वाले होंगे। एक समय था कि छात्रों में परदेस जाकर पढ़ाई करने का जुनून उफान पर था। हर साल मां-बाप खून-पसीने की कमाई से और अपना पेट काटकर बच्चों को पढ़ने के लिये विदेश भेज रहे थे। कहीं-कहीं तो खेत बेचकर और घर गिरवी रखकर बच्चों को विदेश पढ़ाने के लिए भेजने के मामले भी प्रकाश में आए। दरअसल, देश में बैंकों से एजुकेशन लोन मिलने की सुविधा ने भी छात्रों की विदेश यात्रा को सुगम बनाया। हर साल लाखों छात्र सुनहरे सपने लिये विदेश गमन कर रहे थे। ये जुनून पंजाब में विशेष रूप से देखा गया, जो कनाडा-अमेरिका आदि देशों में संपूर्ण भारत से जाने वाले छात्रों का साठ फीसदी था। जरूरी नहीं था कि ये सारे छात्र मेधावी थे और सब दुनिया के शीर्ष विश्वविद्यालयों में दाखिला पा रहे थे। इनमें कई विश्वविद्यालय ऐसे भी थे जो सिर्फ विदेशी छात्रों से कमाई करने के मकसद से चलाए जा रहे थे। वहीं कुछ विश्वविद्यालय ऐसे भी थे जो अवैध रूप से लोगों को विदेश भेजने वाले एजेंटों की कमाई का जरिया बने हुए थे। युवाओं को छात्र के रूप में इन देशों में भेजकर मोटी रकम वसूली जा रही थी। दरअसल, धीरे-धीरे छात्रों और उनके अभिभावकों को हकीकत का अहसास होता चला गया। उन्होंने महसूस किया कि वे मोटा पैसा खर्च करके जैसे-तैसे डिग्री तो पा सकते हैं, लेकिन ये नौकरी व ग्रीन कार्ड की गारंटी नहीं है। हां, कुछ छात्र किसी तरह छोटे-मोटे काम-धंधे करके अपनी पढ़ाई का खर्चा व घर का कर्जा उतारने का जुगाड़ जरूर कर लेते थे।
दरअसल, धीरे-धीरे अमेरिका, ब्रिटेन व कनाडा सरकारों के दुराग्रहों व उनकी प्राथमिकताओं ने छात्रों को खुरदुरी जमीन के यथार्थ से रूबरू करा दिया। छात्रों को एजेंटों ने जो सब्जबाग दिखाए थे, उनकी हकीकत सामने आने लगी। इसके अलावा कोरोना काल के बाद बिखरती अर्थव्यवस्थाएं, नौकरी के आकर्षक प्रस्तावों में कमी, वीजा मिलने में हो रही दिक्कतें, इन देशों के गोरी चमड़ी वाले लोगों के भारतीयों पर बढ़े हमलों ने छात्रों में मोहभंग की स्थिति उत्पन्न कर दी। बीते साल अमेरिका में कई भारतीय छात्रों पर नस्लीय हमले हुए। कई छात्रों की हत्या हुई और अनेक घायल हुए। कनाडा व ब्रिटेन में भारत विरोधी अभियानों तथा कनाडा में जस्टिन ट्रूडो के भारत विरोधी रवैये ने भी छात्रों का मोहभंग किया। वैसे देखा जाए तो विदेशी मुद्रा अर्जित करने के बजाय हम हर साल अरबों रुपये इन देशों को भेज रहे थे। दूसरी ओर छात्रों के विदेश जाने के मोहभंग होने का सार्थक पहलू यह भी है कि अब ये प्रतिभाएं देश में रहकर राष्ट्र के विकास में योगदान दे सकती हैं। कुदरत का नियम है कि अपनी उर्वरा भूमि में ही पौधे अनुकूल वातावरण के चलते खिलते-निखरते हैं। ये हमारे नीति-नियंताओं की विफलता है कि आजादी के सात दशक बाद भी हम देश को अंतर्राष्ट्रीय मानकों वाले विश्वविद्यालय नहीं दे पाये। सामान्य शिक्षा में कौशल विकास के गुण को विकसित नहीं कर पाए। छात्रों में सरकारी नौकरियां पाने की लालसा को रचनात्मक विकल्प नहीं दे पाये। अमेरिका की सिलिकॉन वैली से लेकर आईटी से जुड़ी तमाम बड़ी कंपनियों को भारतीय प्रतिभाएं चला रही हैं। आखिर क्यों हम भारतीय मेधाओं को देश में ऐसा वातावरण नहीं दे पा रहे हैं, कि वे नई खोजों व अनुसंधान से देश को लाभान्वित कर सकें। भारत दुनिया में सबसे ज्यादा युवाओं वाला देश है। यदि हम उनकी क्षमता,योग्यता और प्रतिभा का बेहतर उपयोग नहीं कर पा रहे हैं, तो यह हमारी बड़ी नाकामी है। देश के सत्ताधीशों को इस दिशा में गंभीरता से सोचना होगा कि क्यों छात्रों में विदेश जाने की होड़ लगी रहती थी। छात्रों को अनुकूल वातावरण देकर ही विकसित भारत के संकल्प पूरे हो सकते हैं।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब