रील की दुनिया में रियल ज़िंदगी का विघटन, दिखावे की दौड़ में थकती ज़िंदगी

Disintegration of real life in the reel world, life getting tired in the race of show off

सोशल मीडिया: नया नशा, टूटते रिश्ते और बढ़ता मानसिक तनाव

प्रियंका सौरभ

आज का समाज एक ऐसे मोड़ पर आ खड़ा हुआ है जहाँ एक तरफ़ तकनीकी प्रगति ने जीवन को सहज और तेज़ बना दिया है, वहीं दूसरी ओर यही तकनीक धीरे-धीरे सामाजिक ताने-बाने को चुपचाप खोखला कर रही है। सोशल मीडिया, जो कभी सूचना और संपर्क का सशक्त माध्यम था, आज एक ऐसा नशा बन चुका है जिसने परिवार, संबंध और मानसिक स्वास्थ्य तीनों को गंभीर रूप से प्रभावित किया है।

पहले के समय में संवाद का अर्थ था – बैठ कर बात करना, साथ हँसना, रोना, बहस करना और समझना। आज यह सब कुछ “टाइप” और “स्क्रॉल” में बदल गया है। बच्चे हों या बुज़ुर्ग, महिलाएं हों या पुरुष – सबके हाथ में स्मार्टफोन है और निगाहें स्क्रीन पर। कभी जो बातें रसोई, आँगन या बैठक में होती थीं, आज वो ‘स्टेटस अपडेट’, ‘रील’ या ‘ट्वीट’ में समा गई हैं।

जिस रफ्तार से इंटरनेट की पहुँच और स्मार्टफोन का प्रसार हुआ है, उसी रफ्तार से हमारी असल दुनिया सिमटती जा रही है। सोशल मीडिया ने रिश्तों की परिभाषा बदल दी है – अब दोस्त वो हैं जिनके पोस्ट पर हम हार्ट भेजते हैं, परिवार वो है जिसके मैसेज को हमने “सीन” किया हो, और सुख-दुख वो है जो हमने “स्टोरी” पर साझा किया हो।

बच्चे अब खेल के मैदान में नहीं, मोबाइल स्क्रीन पर ‘गेमिंग’ कर रहे हैं। स्कूलों से लौटकर माँ-बाप से बात करने की बजाय वे इंस्टाग्राम खोलते हैं। किशोरावस्था, जो कभी आत्म-अन्वेषण और सामाजिक अनुभवों का समय हुआ करता था, आज वह सेल्फी, फ़िल्टर और वर्चुअल पहचान की दौड़ में उलझ गया है।

सोशल मीडिया के इस अति-उपयोग ने एक ऐसा द्वंद्व पैदा किया है जहाँ व्यक्ति दिखने में बहुत व्यस्त है पर भीतर से बेहद अकेला है। रिश्ते जो कभी जीवन का आधार होते थे, अब ‘टैग’ और ‘मेंशन’ में बदल चुके हैं। पति-पत्नी एक ही छत के नीचे रहते हैं, लेकिन बातचीत व्हाट्सएप पर होती है। माँ-बाप बच्चों को खाना परोसते हैं, और बच्चे खाने से पहले उसकी तस्वीर खींचकर पोस्ट करते हैं।

यह आदत अब लत बन चुकी है – सुबह उठते ही सोशल मीडिया चेक करना, रात को सोने से पहले स्क्रॉल करना, हर क्षण को लाइव करना या कम से कम फ़ोन में कैद करना। यह व्यवहार अब केवल समय की बर्बादी नहीं, बल्कि मानसिक विकारों का बीज भी बन चुका है।

डिजिटल लाइफस्टाइल ने न केवल नींद, आहार, एकाग्रता को प्रभावित किया है, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य पर भी गहरा असर डाला है। सोशल मीडिया पर दिखने वाली ‘परफेक्ट ज़िंदगी’ का निरंतर सामना आम इंसान को हीन भावना से भर देता है। दूसरों की सफलताओं, सुंदरताओं, यात्रा और जीवनशैली की तस्वीरें देखकर व्यक्ति अपने जीवन को तुच्छ समझने लगता है। यही वह क्षण होता है जब तनाव, अवसाद और आत्मग्लानि जैसे विकार जन्म लेने लगते हैं।

खासकर किशोरों और युवाओं में यह प्रभाव और भी तीव्र है। सोशल मीडिया पर मिलने वाले लाइक्स, कमेंट्स और फॉलोअर्स ने आत्ममूल्यांकन का नया पैमाना बना दिया है। एक पोस्ट पर कम लाइक आए तो आत्म-सम्मान को ठेस लगती है, ट्रोलिंग हो जाए तो महीनों तक अवसाद की स्थिति बनी रहती है।

दूसरी ओर, इस प्लेटफॉर्म पर ‘फेक आईडेंटिटी’ और ‘वर्चुअल ग्लैमर’ का जाल इतना घना हो गया है कि लोग वास्तविकता से कटते जा रहे हैं। एक तरफ जहां व्यक्ति दूसरों को दिखाने के लिए महंगे कपड़े, कारें और कैफे में फोटो पोस्ट करता है, वहीं असल ज़िंदगी में वह कर्ज़ और तनाव से घिरा होता है।

परिवारों में संवाद की जगह अब संदेह, दूरी और झगड़े ने ले ली है। शादीशुदा ज़िंदगियों में सोशल मीडिया पर गैरज़रूरी बातचीत और अफेयर्स ने तलाक के मामलों में वृद्धि की है। बच्चों में चिड़चिड़ापन, सोशल आइसोलेशन और एकांतप्रियता बढ़ी है। बुज़ुर्ग अपने ही घर में उपेक्षित महसूस करते हैं क्योंकि बच्चे मोबाइल में खोए रहते हैं।

इतना ही नहीं, सोशल मीडिया पर झूठे आदर्शों और हानिकारक कंटेंट की भरमार भी है। लड़कियों को परफेक्ट फिगर के दबाव में डाला जाता है, युवाओं को सफलता के झूठे मॉडल दिखाकर भ्रमित किया जाता है, और छोटे बच्चे हिंसक या भ्रामक गेम्स में उलझ जाते हैं।

आज जब हम ‘फैक्ट चेकिंग’ और ‘डिजिटल लिटरेसी’ की बात करते हैं, तब यह समझना ज़रूरी है कि सोशल मीडिया सिर्फ सूचना या मनोरंजन का माध्यम नहीं रह गया है – यह अब हमारी सोच, व्यवहार और संबंधों को गहराई से प्रभावित करने वाली शक्ति बन चुका है।

भारत जैसे देश में, जहाँ संयुक्त परिवार की परंपरा रही है, वहाँ सोशल मीडिया ने “संयुक्तता” की भावना को गहराई से चुनौती दी है। लोग अब त्यौहारों में साथ बैठकर मिठाई खाने की बजाय उस मिठाई की तस्वीर इंस्टाग्राम पर पोस्ट करने में लगे रहते हैं। रिश्तों का स्पर्श, संवाद की गर्माहट और एक-दूसरे की मौजूदगी की जो भावना होती थी, वह डिजिटल एल्गोरिद्म के पीछे छिप गई है।

यह सच है कि सोशल मीडिया ने कई सकारात्मक चीजें भी दी हैं – आवाज़ उठाने का मंच, जागरूकता फैलाने का साधन, और कई मामलों में न्याय की दिशा में जनदबाव बनाने का माध्यम। लेकिन जब यही साधन साध्य बन जाए, तो समस्या खड़ी होती है।

अब यह समय है जब हमें व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों स्तरों पर आत्मचिंतन करने की ज़रूरत है। हमें यह समझना होगा कि हम सोशल मीडिया के उपयोगकर्ता हैं, उसके दास नहीं। तकनीक का उपयोग जीवन को बेहतर बनाने के लिए होना चाहिए, न कि उसे निगल जाने के लिए।

हमें अपने बच्चों को बताना होगा कि लाइफ का मतलब लाइक्स नहीं होता। हमें उन्हें यह सिखाना होगा कि रील लाइफ से ज़्यादा कीमती रियल लाइफ होती है। हमें खुद से पूछना होगा कि आखिरी बार जब हम अपने माता-पिता के पास बैठकर बिना मोबाइल के बात किए, वह कब था।

संघर्ष यह नहीं है कि सोशल मीडिया को छोड़ देना चाहिए, संघर्ष यह है कि इसे कैसे संतुलित किया जाए। हमें “डिजिटल डिटॉक्स” की आदत डालनी होगी – एक दिन बिना सोशल मीडिया के बिताना, भोजन करते समय मोबाइल को दूर रखना, रात को सोने से पहले स्क्रीन नहीं देखना, सुबह उठते ही ईश्वर या परिवार को याद करना, न कि इंस्टाग्राम को।

सरकारों और संस्थानों को भी इस दिशा में ठोस कदम उठाने चाहिए। स्कूलों में डिजिटल संतुलन की शिक्षा, माता-पिता के लिए कार्यशालाएँ, और सोशल मीडिया कंपनियों पर बच्चों के लिए सुरक्षित सामग्री सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी तय की जानी चाहिए।

मनुष्य का मस्तिष्क तकनीक से तेज़ है, लेकिन अगर वह तकनीक का गुलाम बन जाए, तो मानवता खो बैठता है। सोशल मीडिया एक शक्तिशाली औजार है, बशर्ते हम उसे नियंत्रित करें, न कि वह हमें।

अब समय है कि हम डिजिटल दुनिया में खुद को फिर से खोजें – सच्चे रिश्तों के लिए, मानसिक शांति के लिए और एक ऐसे समाज के लिए जो तकनीक से सशक्त हो लेकिन संवेदनाओं से जुड़ा भी हो। सोशल मीडिया का यह नया नशा तभी टूटेगा जब हम आत्मनियंत्रण, संवाद और समझदारी से इसे अपनाएँगे। वरना यह नशा हमारे बच्चों से उनकी मासूमियत, हमारे परिवार से उसकी गर्माहट और हमारे समाज से उसकी आत्मा छीन लेगा।