इतिहास का रिसता हुआ घाव इजरायल – फिलिस्तीन विवाद

नृपेन्द्र अभिषेक नृप

कुछ ऐसी घटनाएं होती है जो इतिहास द्वारा उत्पादित होती है। ठीक ऐसे ही इजरायल फिलिस्तीन विवाद को इतिहास का रिसता हुआ घाव कहा जाता हैं। जो त्रुटियां इतिहास ने की आज उसकी सजा पूरा विश्व भुगत रहा है। फिलीस्तीन के ज़ख़्म से ख़ून धीरे-धीरे रिस रहा है, लेकिन वह हमारी आत्माओं को नहीं छूता । जिस तरह दुनिया का हर मुल्क इजरायल के साथ गलबहियां करने में एक दूसरे से प्रतियोगिता कर रहा है, उससे यह साबित होता है कि फिलिस्तीनियों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। फिलीस्तीन हमारी आंखों के आगे एक खोते हुए मुल्क का नाम है । उसे न तो जॉर्डन नदी खा रही है और न ही भूमध्य सागर निगल रहा है।उसका गला इस इंसानी दुनिया की बेहिसी और इस्राइल की क्रूरता घोंट रही है।

एक बार फिर इजरायल फिलिस्तीन आमने सामने है और हमेशा की तरह विश्व के प्रमुख देश दो हिस्सों में बंट कर एक दूसरे के खिलाफ बयानबाज़ी करते दिख रहे हैं। यही नहीं अगर बात भारत की की जाए तो भारत के लोग भी सोशल मीडिया पर इजरायल फिलिस्तीन दोनों के ही समर्थन करते दिख रहे हैं। इजरायल-फिलीस्तीन के बीच संघर्ष की चर्चा दुनियाभर में है। इजरायल और फिलिस्तीनी संगठन हमास के बीच जबरदस्त लड़ाई हो रही है । इजरायल पर हमास के ताजा हमले के बाद एक बार फिर इजरायल और फिलिस्तीन विवाद चर्चा के केंद्र में है। शनिवार, 7 अक्टूबर को हमास ने इजरायल के खिलाफ “ऑपरेशन अल-अक्सा स्टॉर्म” शुरू किया। हमास ने गाजा स्ट्रिप से इजरायल के ऊपर 5000 रॉकेट्स दागने का दावा किया है। इतना ही नहीं, हमास से जुड़े दर्जनों लड़ाके दक्षिण की तरफ से इजरायल की सीमा के अंदर घुस गए। वहीं इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू (Benjamin Netanyahu) ने हमास के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर दिया है।

इजरायल फिलिस्तीन विवादों में भारत की स्थिति को देखें तो भारत ने भले ही फिलिस्तीन को अपनी खोई हुई ज़मीन को पुनः प्राप्त करने और अपने देश को इज़रायल से स्वतंत्र करने के लिए फिलिस्तीनी संघर्ष का लगातार समर्थन किया था लेकिन हाल के वर्षों में भारत ने इज़रायल के साथ दोस्ती बढ़ाने की दिशा में एक अलग रूख दिखाया है। वर्ष 2014 में भाजपा सरकार के केंद्र की सत्ता में आने के बाद से इस प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला है। दमन और हिंसा के उसके क्रूर इतिहास को नज़रअंदाज़ कर इज़़रायल को एक साहसी राष्ट्र और भारत के मित्र के रूप में पेश किया जा रहा है। भारत ने अपनी आज़ादी के आंदोलन के दिनों में भी बार-बार फिलस्तीनियों के अधिकार की वकालत की थी, बाद में भी वह उनका हमदर्द बना रहा, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से भारत में भी बहुसंख्यकवाद के आक्रामक होने के साथ इस्राइल के प्रति आकर्षण बढ़ा है।

ऐतिहासिक रूप में फिलिस्तीन इजरायल :

फिलीस्तीन पर लंबे समय तक रोम का शासन रहा और इतिहासकारों के अनुसार 63 ईसा पूर्व से लेकर 632 ईस्वी तक यह एक स्वतंत्र देश न होकर महान रोमन साम्राज्य का हिस्सा था। रोमन राज्य के तहत ही इस क्षेत्र में रोमनो का एक कबीला यहूद या यहूदी यहां आकर बसने लगे। रोमनों को यह स्वीकार नहीं था और उन्होंने बल पुरबक यहूदियों को यहां से निकाला लेकिन फिर भी कुछ यहूदी इस क्षेत्र में रहने लगे। लंबे समय बाद जब रोमनो का अधिकार फिलीस्तीन पर समाप्त हो गया तो अरबो ने इस भू-भाग पर अधिकार कर लिया। इतिहासकारों के अनुसार 632 ईस्वी से 731 ईस्वी तक यह क्षेत्र भिन्न अरबी साम्राज्यों के अधिकार में रहा। अपने अधिकार के दौरान बड़ी संख्या में अरब के निवासी फिलीस्तीन में बसे और उन्हीें के साथ इस्लाम का भी यहा प्रादुर्भाव हुआ। इसके बाद जब ऐसा लगने लगा कि यहूदियों की बची खुची जनसंख्या भी इस क्षेत्र में नहीं बच पाएगी तभी इस क्षेत्र पर सलजुक तुर्कों ने अपना अधिकार कर लिया जो महान आटोमन साम्राज्य का हिस्सा थे। इस तरह फिलीस्तीन भी आटोमन साम्राज्य का हिस्सा बन गया।यह अधिकार पहले विश्व युद्ध तक जस का तस बना रहा । आटोमन साम्राज्य में फिलीस्तीन में यहूदियों की संख्या में काफी इजाफा हुआ। आटोमन साम्राज्य ने यहूदियों को इस क्षेत्र में फलने-फूलने का पर्याप्त अवसर दिया। साथ ही उनके साथ समान व्यवहार किया ।

संघर्ष की शुरुआत:

इज़राइल और फिलिस्तीन के मध्य संघर्ष का इतिहास लगभग 100 वर्ष पुराना है, जिसकी शुरुआत वर्ष 1917 में उस समय हुई जब तत्कालीन ब्रिटिश विदेश सचिव आर्थर जेम्स बल्फौर ने ‘बल्फौर घोषणा’ के तहत फिलिस्तीन में एक यहूदी ‘राष्ट्रीय घर’ के निर्माण के लिये ब्रिटेन का आधिकारिक समर्थन व्यक्त किया। अरब और यहूदियों के बीच संघर्ष को समाप्त करने में असफल रहे ब्रिटेन ने वर्ष 1948 में फिलिस्तीन से अपने सुरक्षा बलों को हटा लिया और अरब तथा यहूदियों के दावों का समाधान करने के लिये इस मुद्दे को नवनिर्मित संगठन संयुक्त राष्ट्र के समक्ष प्रस्तुत किया। संयुक्त राष्ट्र ने फिलिस्तीन में स्वतंत्र यहूदी और अरब राज्यों की स्थापना करने के लिये एक ” विभाजन योजना ” प्रस्तुत की जिसे फिलिस्तीन में रह रहे अधिकांश यहूदियों ने स्वीकार कर लिया किंतु अरबों ने इस पर अपनी सहमति प्रकट नहीं की।

वर्ष 1948 में यहूदियों ने स्वतंत्र इज़राइल की घोषणा कर दी और इज़राइल एक देश बन गया, इसके परिणामस्वरूप आस-पास के अरब राज्यों (इजिप्ट, जॉर्डन, इराक और सीरिया) ने इज़राइल पर आक्रमण कर दिया। युद्ध के अंत में इज़राइल ने संयुक्त राष्ट्र की विभाजन योजना के आदेशानुसार प्राप्त भूमि से भी अधिक भूमि पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। इसके पश्चात् दोनों देशों के मध्य संघर्ष तेज़ होने लगा और वर्ष 1967 में प्रसिद्ध ‘सिक्स डे वॉर’ हुआ, जिसमें इज़राइली सेना ने गोलन हाइट्स, वेस्ट बैंक तथा पूर्वी येरुशलम को भी अपने अधिकार क्षेत्र में कर लिया। वर्ष 1987 में मुस्लिम भाईचारे की मांग हेतु फिलिस्तीन में ‘हमास’ नाम से एक हिंसक संगठन का गठन किया गया। इसका गठन हिंसक जिहाद के माध्यम से फिलिस्तीन के प्रत्येक भाग पर मुस्लिम धर्म का विस्तार करने के उद्देश्य से किया गया था। समय के साथ वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी के अधिगृहीत क्षेत्रों में तनाव व्याप्त हो गया जिसके परिणामस्वरूप वर्ष 1987 में प्रथम इंतिफादा अथवा फिलिस्तीन विद्रोह हुआ, जो कि फिलिस्तीनी सैनिकों और इज़राइली सेना के मध्य एक छोटे युद्ध में परिवर्तित हो गया।

इसराइल-फ़लस्तीन के बीच संघर्ष की जड़ में ‘नकबा’ को भी देख सकते हैं।इसराइल में 14 मई को राष्ट्रीय अवकाश होता है। 70 साल पहले इसी दिन एक नए राष्ट्र की स्थापना हुई थी।लेकिन फ़लस्तीनियों की त्रासदी की शुरूआत भी उसी दिन से हो गई थी।फ़लस्तीनी लोग इस घटना को 14 मई के बजाय 15 मई को याद करते हैं। वो इसे साल का सबसे दुखद दिन मानते हैं। 15 मई को वो ‘नकबा’ का नाम देते हैं ।नकबा का अर्थ है ‘विनाश’ । ये वो दिन था जब उनसे उनकी ज़मीन छिन गई थी। कुछ के लिए ये जश्न का दिन है और कुछ के लिए विनाश का। ये इस बात पर तय होगा कि आप गज़ा पट्टी के किस ओर खड़े हैं। नकबा यानि विनाश के दिन की शुरुआत 1948 में फ़लस्तीनी क्षेत्र के तब के राष्ट्रपति यासिर अराफ़ात ने की थी। इस दिन फ़लस्तीन में लोग 14 मई 1948 के दिन इसराइल के गठन के बाद लाखों फलस्तीनियों के बेघर बार होने की घटना का दुख मनाते हैं।

इतिहासकार बेनी मॉरिस अपनी किताब ‘द बर्थ ऑफ़ द रिवाइज़्ड पैलेस्टीनियन रिफ़्यूजी प्रॉब्लम’ में लिखते हैं, ” 14 मई 1948 के अगले दिन साढ़े सात लाख फ़लस्तीनी, इसराइली सेना के बढ़ते क़दमों की वजह से घरबार छोड़ कर भागे या भगाए गए थे ।कइयों ने ख़ाली हाथ ही अपना घरबार छोड़ दिया था। कुछ घरों पर ताला लगाकर भाग निकले । यही चाबियां बाद में इस दिन के प्रतीक के रूप में सहेज कर रखी गईं।”

इसमें आतंकियों का भी दबदबा कायम है। इन्टीफिदा के दौरान एक और संगठन की स्थापना हुई जो फिलिस्तीन को आजाद कराना चाहता था। इस संगठन का नाम था हमास| हमास, फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन ( पी.एल.ओ) से ज्यादा अतिवादी संगठन है। पी.एल.ओ इजरायल के साथ शांति बनाकर फिलिस्तीन की आजादी चाहता है लेकिन हमास इजराइल यानी एक यहूदी देश को मान्यता भी नहीं देता है। उनके अनुसार इजरायल नामक कोई देश नहीं है । इसीलिए हमास और पी.एल.ओ में टकराव हुए हैं।हम देखते हैं कि 1967 तक गाजा पर इजिप्ट का कब्ज़ा था। गाजा में हमास की सरकार चलती है, जो इजरायल के खिलाफ संघर्ष का दावा करता रहा है। हमास और गाजा में स्थित अन्य आतंकी संगठनों ने अब तक इजरायल पर न जाने कितने ही रॉकेट्स दागे होंगे, लेकिन इजरायल ने हर बार तगड़ा जवाब दिया है। अब स्थिति ये है कि हमास में बिजली और भोजन से लेकर मेडिकल सप्लाइज तक की दिक्कतें हैं और वो सब इजरायल के साथ उनके युद्ध की वजह से। जहाँ तक भारत की बात है, उसके इन दोनों ही देशों से अच्छे सम्बन्ध हैं। इजरायल से ‘पीपल टू पीपल कॉन्टैक्ट’ अच्छा है।

1993 में इजरायल और फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन ( पी.एल.ओ) के बीच समझौता हुआ था। इस समझौते में अमेरिका ने मध्यस्थता की थी । समझौता यह हुआ था कि पी.एल.ओ ने इजराइल को एक देश का दर्जा दिया था और इजरायल ने पी.एल.ओ को फिलिस्तीनी लोगों के प्रतिनिधि के रूप में मान्यता दी थी । इसके आलावे फिलिस्तीन अथॉरिटी का भी गठन किया गया था। इस गठन के तहत वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी पर जो इजरायली सरकार प्रशासन चलाती थी, इसके बाद वहां का प्रशासन चलाने का अधिकार फिलिस्तीन अथॉरिटी के पास होने वाला था।इस समझौते में दोनों पक्षों ने 5 साल के लिए शांति बनाए रखने का समझौता कर लिया था। 5 साल के बाद जब कैंप डेविड-2 में इजरायल और पी.एल.ओ के बीच फिलिस्तीन देश की स्थापना के लिए बातचीत विफल रही। दोनों पक्षों के बीच तनाव एक बार फिर से बढ़ गया।

देखते देखते कैंप डेविड की वार्ता भी असफल हो गई और उसके बाद इजरायल और फिलिस्तीन के लोगों में फिर से तनातनी शुरू हो गई। एक घटना ने इस तनाव को बड़ी हिंसा की तरफ मोड़ दिया और उस हिंसा को सेकंड इन्टीफिदा कहा जाता है । इजरायल के तत्कालीन राष्ट्रपति एहुद बराक 1000 सुरक्षाकर्मियों के साथ टेंपल माउंट पर चले गए । टेंपल माउंट इस्लामिक लोगों के लिए और यहूदी लोगों के लिए महत्वपूर्ण जगह है । इस तरह से उनका वहां जाना फिलिस्तीनी लोगों को पसंद नहीं आया और यहीं से बड़े पैमाने पर हिंसा शुरू हो गई ।यह हिंसा इजरायल में 2000 से 2005 तक चली।

सेकंड इन्टीफिदा के बाद इजरायल ने अपनी नीतियों में बदलाव किए। इन नीतियों के तहत इजरायल ने गाजा पट्टी से इजराइली सेनाओं को और लोगों को वहां से वापस बुला लिया। इस कदम से इजरायल यह साबित करना चाहता था कि भविष्य में जब भी इजराइल-फिलिस्तीन विवाद पर वार्ता होगी तब इजरायल गाजा पट्टी पर दावा नहीं करेगा। लेकिन यह अर्धसत्य ही साबित होने वाला था क्योंकि आगे हिंसक झड़प मुहाने पर खड़ी थी। फिर घटना दिलचस्प दौर में चली गई जब गाजा से इजरायली सेना के वापस जाने के बाद, वहां पर हमास प्रभावी बन गय। 2006 में हमास ने गाजा में चुनाव जीत लिया। फतह जो पी.एल.ओ से जुड़ी हुई पार्टी है वह गाजा पट्टी में संगठन चलाते थी । उनको हमास ने 2007 तक गाजा पट्टी से पूरी तरह से निकाल दीया और गाजा पट्टी पर पूरी तरह से अपना शासन करने लगे। जब हमास गाजा में प्रभावी बन गया तब उन्होंने इजराइल पर रॉकेट उतारने शुरू कर दिए। इसी के कारण इजरायल ने पूरे गाजा पर नाकाबंदी लगा दी। इन तनाव के कारण हमास और इजरायल के बीच गाजा में 2008, 2012 और 2014 में युद्ध हुए हैं । इसके बावजूद हमास इसराइल पर रॉकेट और आतंकवाद के सहारे हमला करता रहता है । हाल की घटनाएं भी इसी का नमूना हैं।

दोनो देशों में विवादित मुद्दा:

दोनों देशों के बीच विवाद के कुछ मुख्य मुद्दे हैं।इजरायल फिलीस्तीन विवाद के मूल में दरअसल दो धार्मिक सभ्यताओं का टकराव है। वर्तमान इजरायल के जेरूशलय या येरूशलम यहूदी, इसाइयत और इस्लाम तीनों के लिए पवित्र है क्योंकि यहां किंग सोलोमन ने पहला पवित्र मंदिर बनाया, जिसे यहूदी अपना सबसे पवित्र स्थल मानते हैं तो इसाई मानते हैं कि ईसा मसीह को यहीं सूली पर चढ़ाया गया था।इस्लाम में इस शहर को मक्का और मदीना के बाद तीसरा सबसे पवित्र शहर माना जाता है।

पहली सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण क्षेत्र है येरुशलम जिसके बीच मे रिसते हुए खून से हमेसा रक्तरंजित होते रहा है।येरुशलम यहूदियों, मुस्लिमों और ईसाइयों की समान आस्था का केंद्र है। यहाँ ईसाईयों के लिये पवित्र सेपुलकर चर्च, मुस्लिमों की पवित्र मस्जिद और यहूदियों की पवित्र दीवार स्थित है। यरूशलम का स्टेट्स इसराइल और फ़लस्तीन के बीच हमेशा से ही विवाद और संघर्ष का मुद्दा रहा है क्योंकि इसराइल इसे अपना ‘अविभाज्य राजधानी’ मानता है और फ़लस्तीनी इसे अपने भविष्य के राष्ट्र का मुख्यालय बनाने की ख़्वाहिश रखते हैं।

दूसरा विवादित क्षेत्र हैं गाजा पट्टी जो कि काफी महत्वपूर्ण हैं। गाजा पट्टी इज़राइल और मिस्र के मध्य स्थित है। इज़राइल ने वर्ष 1967 में गाजा पट्टी का अधिग्रहण किया था, किंतु गाजा शहर के अधिकांश क्षेत्रों के नियंत्रण तथा इनके प्रतिदिन के प्रशासन पर नियंत्रण का निर्णय ओस्लो समझौते के दौरान किया गया था। वर्ष 2005 में इज़राइल ने इस क्षेत्र से यहूदी बस्तियों को हटा दिया लेकिन वह अभी भी इस क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय पहुँच को नियंत्रित करता है।

तीसरा विवाद वेस्ट बैंक को ले कर है। वेस्ट बैंक इज़राइल और जॉर्डन के मध्य अवस्थित है। इसका एक सबसे बड़ा शहर ‘रामल्लाह’ है, जो कि फिलिस्तीन की वास्तविक प्रशासनिक राजधानी है। इज़राइल ने वर्ष 1967 के युद्ध में इस पर अपना नियंत्रण स्थापित किया।

विवाद का चौथा कारण गोलन हाइट्स है जो कि एक सामरिक पठार है जिसे इज़राइल ने वर्ष 1967 के युद्ध में सीरिया से छीन लिया था। अमेरिका ने आधिकारिक तौर पर येरुशलम और गोलान हाइट्स को इज़राइल का एक हिस्सा माना है। जिससे कि इस पर इजरायल की पकड़ मजबूत हैं।

होली चर्च को लेकर भी विवाद हैं जो पाँचवा कारण हैं।

येरुशलम में पवित्र सेपुलकर चर्च है, जो दुनिया भर के ईसाइयों के लिये विशिष्ट स्थान है। ईसाई मतावलंबी मानते हैं कि ईसा मसीह को यहीं सूली पर लटकाया गया था और यही वह स्थान भी है जहाँ ईसा फिर जीवित हुए थे। यह दुनिया भर के लाखों ईसाइयों का मुख्य तीर्थस्थल है, जो ईसा के खाली मकबरे की यात्रा करते हैं। इस चर्च का प्रबंध संयुक्त तौर पर ईसाइयों के अलग-अलग संप्रदाय करते हैं।

छठा विवाद का मुद्दा पवित्र मस्जिद भी है। येरुशलम में ही पवित्र गुंबदाकार ‘डॉम ऑफ रॉक’ यानी कुव्वतुल सखरह और अल-अक्सा मस्जिद है। यह एक पठार पर स्थित है जिसे मुस्लिम ‘हरम अल शरीफ’ या पवित्र स्थान कहते हैं। यह मस्जिद इस्लाम की तीसरी सबसे पवित्र जगह है, इसकी देखरेख और प्रशासन का ज़िम्मा एक इस्लामिक ट्रस्ट करता है, जिसे वक्फ भी कहा जाता है। मुसलमान मानते हैं कि पैगंबर अपनी यात्रा में मक्का से यहीं आए थे और उन्होंने आत्मिक तौर पर सभी पैगंबरों से दुआ की थी। कुव्वतुल सखरह से कुछ ही दूरी पर एक आधारशिला रखी गई है जिसके बारे में मुसलमान मानते हैं कि मोहम्मद यहीं से स्वर्ग की ओर गए थे।

सातवें कारण भी है जिसमें पवित्र दीवार को ले कर भी विवाद है । येरुशलम का कोटेल या पश्चिमी दीवार का हिस्सा यहूदी बहुल माना जाता है क्योंकि यहाँ कभी उनका पवित्र मंदिर था और यह दीवार उसी की बची हुई निशानी है। यहाँ मंदिर के अंदर यहूदियों की सबसे पवित्रतम जगह ‘होली ऑफ होलीज़’ है। यहूदी मानते हैं यहीं पर सबसे पहले उस शिला की नींव रखी गई थी, जिस पर दुनिया का निर्माण हुआ और जहाँ अब्राहम ने अपने बेटे इसाक की कुरबानी दी थी। पश्चिमी दीवार, ‘होली ऑफ होलीज़’ की वह सबसे करीबी जगह है, जहाँ से यहूदी प्रार्थना कर सकते हैं। इसका प्रबंध पश्चिमी दीवार के रब्बी करते हैं।

दोनो देशों के बीच लगातार हो रहे संघर्ष में दोनो देशों की अपनी-अपनी माँग है। जिसमें फिलिस्तीन की मांग है कि इज़राइल वर्ष 1967 से पूर्व की अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं तक सीमित हो जाए और वेस्ट बैंक तथा गाजा पट्टी में स्वतंत्र फिलिस्तीन राज्य की स्थापना करे। साथ ही इज़राइल को किसी भी प्रकार की शांति वार्ता में शामिल होने से पूर्व अपने अवैध विस्तार को रोकना होगा। फिलिस्तीन यह भी चाहता है कि वर्ष 1948 में अपना घर खो चुके फिलिस्तीन के शरणार्थी वापस फिलिस्तीन आ सकें। इसके आलावे फिलिस्तीन पूर्वी येरुशलम को स्वतंत्र फिलिस्तीन राष्ट्र की राजधानी बनाना चाहता है।

जबकि लगतार संघर्ष कर रहे है अमेरिका के समर्थन से हमेशा बाजी अपने पक्ष में रखने वाले इज़राइल येरुशलम को अपना अभिन्न अंग मानता है और इसलिए येरुशलम पर अपनी संप्रभुता चाहता है। इज़राइल की मांग रही है कि संपूर्ण विश्व इज़राइल को एक यहूदी राष्ट्र के रूप में मान्यता दे। इज़राइल दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जो धार्मिक समुदाय के लिये बनाया गया है।

इजराइल-फिलिस्तीन समस्या पर कुछ लोग यह मानते है की जिस तरह से इजराइल एक स्वतंत्र देश बना है उसी तरह से फिलिस्तीन नामक एक स्वतंत्र देश अस्तित्व में आना चाहिए। जहां पर फिलिस्तीनी अरब लोग रह सके।दोनों पक्षों को एक दूसरे की परिस्थिति और परेशानियां समझनी होगी। फिलिस्तीनी लोगों को समझना होगा कि यहूदियों पर सदियों से अत्याचार हुए हैं और इसीलिए उनको एक अलग देश का अधिकार है और इजराइल को समझना होगा कि जिस क्षेत्र में अब वह रह रहे हैं, वहां के मूल निवासी फिलिस्तीनी है और इजराइल ने उन्हीं लोगों को वहां से बेघर कर दिया है। उस जगह पर रहना फिलिस्तीनी लोगों का अधिकार है। दोनों पक्षों में कुछ ऐसे लोग शामिल है जो शांति से समझौता करना नहीं चाहते । इसीलिए शायद इस विवाद को पूरी तरह से सुलझाने में कठिनाई आ रही है। लेकिन विश्व को नेतृत्व करने वाले सभी बड़े देशों को ठोस समाधान निकालना होगा जो पश्चिम एशिया में शांति के लिए ही नही बल्कि विश्व शांति के लिए भी बहुत आवश्यक है क्योंकि कुछ ऐसे भी देश है जो इजरायल और फिलिस्तीन के कंधों पर बंदूक रख कर अपना हित साधते रहें हैं। इतिहास के इस रिसते हुए घाव को भरे बिना विश्व मे शांति नहीं लाई जा सकती हैं।