भोजपुरी आन्दोलन को कुतर्क से कमजोर ना करे

Do not weaken the Bhojpuri movement with sophistry

डॉ.संतोष पटेल

भोजपुरी भाषा के संवैधानिक मान्यता की मांग ज्यों-ज्यों तेज होती जा रही है और सरकार का उसके प्रति कुछ साकारात्मक रूख कुछ हिन्दी विद्वानों व पत्रकारों को पच नहीं रहा है। एक षड़यंत्र के अन्तर्गत ये तथाकथित विद्वान, साहित्यकार एवं पत्रकार हिन्दी बनाम भोजपुरी के बीच जंग जैसा माहौल बनाने पर आमादा हैं।

भोजपुरी क्षेत्र के एक प्रसिद्ध पत्रकार रविश कुमार जी हैं जो एनडीटीवी में कार्यरत थे उन्होनें भी कभी यह आरोप लगाया था कि भोजपुरी क्षेत्रों से आने वाले सांसद संसद में अपनी बात भोजपुरी में क्यों नहीं रखते ?

यह बतलाना आवश्यक है कि संसद में कोई भी जन प्रतिनिधि अपनी बात संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल भाषाओं व अंग्रेजी में रख सकता है। चुंकि राजभाषा अधिनियम में अंग्रेजी को भी राजकाज की भाषा के रूप में रखा गया है।

एक वाकया बता दूं कि मैं स्वयं 17/05/2012 को संसद के दीर्घा में बैठा था ज्योंहि श्री उमाशंकर सिंह, सांसद (महाराजगंज) ने भोजपुरी में अपनी बात रखना शुरू किया, लोकसभा अध्यक्ष श्रीमती मीरा कुमार ने उन्हें अपनी बात रखने नहीं दिया। लोकसभा अध्यक्ष श्रीमती मीरा कुमार जी का स्पष्ट निर्देश था कि आप अपनी बात हिन्दी या अंग्रेजी में ही रखें।

रवीश कुमार का एक आरोप यह भी था कि भोजपुरी साहित्य मराठी या बांग्ला साहित्य से तुलना में कहां है? इस सवाल पर इतना कहा जा सकता है कि भोजपुरी को इन दोनों भाषाओं से तुलना जायज नहीं। भोजपुरी को बांग्ला या मराठी की तरह राजकीय मान्यता व संरक्षण कभी नहीं मिला था, ना मिला है बावजूद इसके भोजपुरी साहित्य सृजन में कहीं से कोई कमी नहीं रही।

पूर्वी चम्पारण में पं. गणेश चौबे (बंगरी-पीपरा) के थे जिन्हें भोजपुरी साहित्य का ‘एनसाइक्लोपीडिया’ कहा जाता है, जिन्होंने 100 साल के भोजपुरी प्रकाशन पर एक संग्रह भोजपुरी अकादमी, बिहार से प्रकाशित कराया था।
बहरहाल भोजपुरी साहित्य की अगर मराठी भाषा साहित्य से तुलना की बात की गई है तो मराठी का इतिहास एक बार देखना चाहिए-

भाषाविदों मानते हैं कि मराठी संस्कृत से निसृत महाराष्ट्र प्रदेश की भाषा है जिसकी लिपि देवनागरी है। इसकी शुरूआत यादव काल (850-1312) माना गया है। इस काल में मराठी के प्रथम कवि मुकुन्द राज थे जिनकी कृति ‘विवेक सिंधु’ है जिसमें 18 अध्याय व 1971 पद्य हैं। दूसरे मराठी कवि दिनेश्वर (1275-1296) थे जो प्रथम मराठी साहित्यिक व्यक्तित्व थे। फिर सल्तनत काल (1347-1527) आया बहमनी और दक्कन आदि । इसके बाद मराठा काल (1608-1650) आता है यानी मराठी राज की स्थापना 17 वीं शताब्दी में हुई फिर ब्रिटिश काल माना गया।

सल्तनत काल के दौरान मराठा के सबसे बड़े संत कवि एकनाथ (1528-1645) का आविर्भाव हुआ जिन्हे कवि दिनेश्वर का उत्तराधिकारी माना जाता है। एकनाथ के बाद आते है मुक्तेश्वर (1574-1645) जो एकनाथ के पौत्र थे। ब्रिटिश काल में ही प्रथम मराठी ग्रामर व डिक्सनरी 1829 में बनाई गयी थी।

जहां तक बात बांग्ला की है तो प्रथम बांग्ला साहित्य ‘चार्या पद ’ को माना जाता है। जिसमें बौद्धधर्म से जुड़े रहस्यवादी गीतों का संकलन है इसको विद्वान 10 वीं और 11वीं शताब्दी के बीच मानते है। ऐसा माना जाता है कि तुर्को का 1199 में बंगाल पर हुए हमले में बंगाल के साहित्यिक प्रगति को बाधित किया। समस्त बांग्ला साहित्यिक को दो भागो में बांटतें है- मध्यकालीन (1360-1800) व आधुनिक (1800 के उपरांत)।

मराठी व बंगला साहित्य के उत्पत्ति के साथ भोजपुरी की उत्पत्ति का क्या समय होगा?

प्राचीन संस्कृत से प्राचीन कथ्य प्राकृत बना। कथ्य, प्राकृत, शौरसैनी व मागधी में बंटी। शौरसैनी पश्चिमी व उतरी गौडीय में बंटी।
यहां हम कथ्य मागधी प्राकृत में ही सारा मामला तय कर सकते है। कथ्य मागधी प्राकृत से दक्षिणी गौडीय व पूर्वी गौडीय बनी। दक्षिणी गौडीय से मराठी फिर मराठी से उत्तरी कोंकणी।

पूर्वी गौडीय से बिहारी, बंगला उड़िया व असमिया बनें। फिर बिहारी की तीन भाषाएँ भोजपुरी, मैथिली और मगही।

मराठी से कोंकणी और दक्षिणी उप भाषाएं बनी और बिहारी की तीन भोजपुरी मैथिली और मगही।

सर्वविदित है भोजपुरी का विस्तार इन तीनों में सबसे अधिक है। उत्तर में हिमालय के तराई से लेके दक्षिण में मध्य प्रान्त के सरगुजा रियासत तक।

भोजपुरी भाषा व साहित्य का काल विभाजन या निर्धारण में दुर्गानाथ प्र0 सिंह नाथ ने अपनी पुस्तक ‘भोजपुरी के कवि और काव्य’ में भोजपुरी का प्रारंभिक काल 700से 1100 ई0 माना है वहीं कृष्णदेव उपाध्याय ने अपने भोजपुरी साहित्य का इतिहास यही माना है।
श्री रासबिहारी पाण्डेय ‘भोजपुरी का इतिहास’ में भोजपुरी का प्रारंभिक काल 700-100 ई माना। डा. रामशीष प्रसाद ने 1994 ई प्रकाषित ‘भोजपुरी सम्मेलन पत्रिका’ में भोजपुरी का आरंभ काल सिद्धनाथ काल यानि 800-100 ई. तक माना है।

यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है जब महाराष्ट्र में सन्तलतकाल में सबसे बड़़े संत कवि एकनाथ (1528-1598) का आर्विभाव हुआ। इससे बहुत पहले भोजपुरी के आदि कवि संत कबीर दास का आर्विभाव होता है। संत कबीर का जन्म काल सम्बत 1455वि0(वर्ष 1398 ई0) माना गया यानि कि मराठी के, दिनेश्वर (1275-1296) के बाद।

यहां समझने की बात यह है कि मराठी, बांगला और भोजपुरी एक ही भाषा परिवार से निकले हैं। यह सत्य है कि हमारे संविधान में मान्यता प्राप्त अनेक भाषायें भोजपुरी के विस्तार, प्रयोग क्षेत्र, कार्य, साहित्यिक सृजनात्मकता की तुलना में उसके समकक्ष तो क्या दूर दूर तक नहीं है।

कई भाषाएं समय के साथ उठी भी हैं और गिरी भी हैं। शब्दों का जैसे क्षरण होता है वैसे भाषाओं का भी। ब्रजभाषा आज कहां हैं? उसका प्रभाव कहां रहा? अवधी भाषा को देखें,समस्त रामचरित मानस, पद्मावत अवधी भाषा के बाहूुल्य से बना परन्तु अब कृतिशेष तक रह गई।

भोजपुरी अनेक झंझावतों को सहते इठलाती नदी की भांति लगातार तेजी से बढ़ रही है। नदी बहेगी तो उसमें प्रदूषण भी होता है। कई भोजपुरी में अश्लीलता की पर बहुत बात होती है शायद भोजपुरी ही नहीं सभी भाषाओं में अच्छे बुरे कंटेंट रहते है।

भाषाओं के बारे में मुझें सरदार पटेल विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष (भूतपूर्व) व आलोचक डा. शिव कु. मिश्र की बात याद आती है यूनिटी इन डायर्वसिटी। हमारे देश का मल्टी कल्चरल होना एक बुनियादी चरित्र है। बहुलतावादी संस्कृति वाला अनेक भाषाएं, अनेक धर्म लेकिन ये सारे बंधन को एक सूत्र में बाधें हुए है कि हमको तोड़ नहीं पाया कोई।

इसी कारण भोजपुरी भूमंडलीकरण के जोर को भी सह चुकी है और आज फिल्मों, पत्र पत्रिकाओं, विश्वविद्यालयों में, पाठ्यक्रमों में, मीडिया में, व्यवहारिक जीवन में , बोलचाल में, दैनिक विचारों के आदान प्रदान में मौजूद है। सोषल मीडिया के विकास के साथ भोजपुरी को नई जान मिली है।

भारत में भाषाई राजनीति बहुत पुराना है। हिन्दी को राजकाज की भाषा 14 सितंबर 1949 को घोषित करते ही तमिलनाडू में डीएमके पार्टी और सी. राजागोपालाचारी का जबरजस्त विरोध झेलना पड़ा।

डीएमके पार्टी हिन्दी विरोध व ब्राह्मण विरोध से ही पैदा हुई थी, यह जगजाहिर है। महाराष्ट्र से गुजरात प्रांत का निर्माण भाषा के आधार पर ही हुआ था। तमिलनाडु से आन्ध्र प्रदेश भाषा के आधार पर था। भाषाई सियासत बहुत पुरानी है। कश्मीर की तीन भाषायें कश्मीरी, डोंगरी, एवं उर्दू को मान्यता दी गई । कहीं न कहीं भाषाई सियासत ही की गई । उसी प्रकार बोडोलैंड के मांग को ‘बोडो’ भाषा के मान्यता देकर खारिज किया गया। भोजपुरी क्षेत्र के लोग वैध कारणों के आधार पर इस भाषा की मान्यता की मांग विनम्रतापूर्वक कर रहें है।

21.2.2009 को प्रो.रामजनम शर्मा (एनसीईआरटी) ने अपने संबोधन में युनेस्को के इन्टरनेशनल सेलेबरेशन ‘मदर्स लैंग्वेज डे’ में आयोजित सेमिनार के अवसर पर भोजपुरी भाषा के महत्व को स्वीकारा था।

विश्व की सबसे बड़े विश्ववि़द्यालय ‘इग्नू ’ ने इसकी मान्यता दी है। भोजपुरी भाषा का फाउन्डेशन कोर्स चल रहा है। बीएचयू में भोजपुरी भाषा लगभग समस्त कोर्स पढ़ाया जा रहा है तो उसके पाठ्यक्रम निर्माताओ को साहित्य में कोई कमी नहीं दिखी?

इन तथाकथित विद्वानों, साहित्यकारों एवं पत्रकारों की भोजपुरी के प्रति संकुचित सोच कहें या हिन्दी साम्राज्यवादी विचारधारा से ग्रसित कहें यह उन्हें तय करना है। हम भोजपुरी को मान सम्मान दिलाने उसे समाजपयोगी बनाने और सबसे अधिक रोटी से जोड़ने में लगे हैं।

पहले भी हम संभ्रान्त नहीं थे आज भी दरिद्र नहीं है। यह हमारी मांग कि ‘भोजपुरी’ को संवैधानिक मान्यता मिले बिल्कुल जायज है उसके विरोध हेतु कोई कुर्तक वाजिब नहीें।