ललित गर्ग
यह सत्य है कि आज भारत में बुजुर्गों की उपेक्षा हो रही है। इसके लिए कई कारण हैं। बढ़ती हुई महंगाई, पश्चिमी सभ्यता का अनुकरण, संसाधनों की कमी, संकुचित विचारधारा आदि आदि। आज की पीढ़ी बुजुर्गों के त्याग को समझना ही नहीं चाहती। इसीलिये संसार के बुजुर्ग लोगों को सम्मान देने के लिये विश्व वरिष्ठ नागरिक दिवस मनाया जाता है। संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन द्वारा इसका शुभारंभ किया गया था। इस दिवस को मनाने का मुख्य उद्देश्य वृद्धों की वर्तमान समस्याओं, उपेक्षाओं एवं संवेदनहीनता के बारे में जनमानस में जागरूकता बढ़ाना है। वृद्धजनों की उपेक्षा का अर्थ है जीवन में विविध ज्ञान और अनुभवों से वंचित होना। वृद्ध साक्षात देवता हैं।
वृद्ध हमारी सभ्यता और संस्कृति की धरोहर व समाज के मेरुदंड हैं। इनको सम्मान देने एवं उनकी सेवा करने से आय, शिक्षा, यश, बल और आशीर्वाद मिलता है, मार्गदर्शन मिलता है। इनका आदर व सेवा हमारा कर्तव्य ही नहीं, जिम्मेदारी है, मगर आज पाश्चात्य संस्कृति और अपनी तथाकथित आधुनिक संकीर्ण मानसिकता के कारण जो लोग वृद्धजनों की उपेक्षा कर रहे हैं, वे भी आखिर एक दिन वृद्ध होंगे, तब उनके साथ भी वही व्यवहार होगा, जिसकी वे आज नींव डाल रहे हैं। चिन्तन का महत्वपूर्ण पक्ष है कि वृद्धों की उपेक्षा के गलत प्रवाह को रोके। क्योंकि सोच के गलत प्रवाह ने न केवल वृद्धों का जीवन दुश्वार कर दिया है बल्कि आदमी-आदमी के बीच के भावात्मक फासलों को भी बढ़ा दिया है। वृद्ध अपने ही घर की दहलीज पर सहमा-सहमा खड़ा है, उसकी आंखों में भविष्य को लेकर भय है, असुरक्षा और दहशत है, दिल में अन्तहीन दर्द है। इन त्रासद एवं डरावनी स्थितियों से वृद्धों को मुक्ति दिलानी होगी। सुधार की संभावना हर समय है। हम पारिवारिक जीवन में वृद्धों को सम्मान दें, इसके लिये सही दिशा में चले, सही सोचें, सही करें। इसके लिये आज विचारक्रांति ही नहीं, बल्कि व्यक्तिक्रांति की जरूरत है।
लगातार संवेदनशून्य होते समाज में इन दिनों कई ऐसी घटनाएं प्रकाश में आई हैं, जब संपत्ति मोह में वृद्धों की हत्या कर दी गई। ऐसे में स्वार्थ का यह नंगा खेल स्वयं अपनों से होता देखकर वृद्धजनों को किन मानसिक आघातों से गुजरना पड़ता होगा, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता। वृद्धावस्था मानसिक व्यथा के साथ सिर्फ सहानुभूति की आशा जोहती रह जाती है। इसके पीछे मनोवैज्ञानिक परिस्थितियां काम करती हैं। वृद्धजन अव्यवस्था के बोझ और शारीरिक अक्षमता के दौर में अपने अकेलेपन से जूझना चाहते हैं पर इनकी सक्रियता का स्वागत समाज या परिवार नहीं करता और न करना चाहता है। बड़े शहरों में परिवार से उपेक्षित होने पर बूढ़े-बुजुर्गों को ‘ओल्ड होम्स’ में शरण मिल भी जाती है, पर छोटे कस्बों और गांवों में तो ठुकराने, तरसाने, सताए जाने पर भी आजीवन घुट-घुट कर जीने की मजबूरी होती है। यद्यपि ‘ओल्ड होम्स’ की स्थिति भी ठीक नहीं है।
विश्व में इस दिवस को मनाने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं, परन्तु सभी का मुख्य उद्देश्य यह होता है कि वे अपने बुजुर्गों के योगदान को न भूलें और उनको अकेलेपन की कमी को महसूस न होने दें। हमारा भारत तो बुजुर्गों को भगवान के रूप में मानता है। इतिहास में अनेकों ऐसे उदाहरण है कि माता-पिता की आज्ञा से भगवान श्रीराम जैसे अवतारी पुरुषों ने राजपाट त्याग कर वनों में विचरण किया, मातृ-पितृ भक्त श्रवण कुमार ने अपने अन्धे माता-पिता को काँवड़ में बैठाकर चारधाम की यात्रा कराई। फिर क्यों आधुनिक समाज में वृद्ध माता-पिता और उनकी संतान के बीच दूरियां बढ़ती जा रही है। वृद्धावस्था वरदान बनना चाहिए लेकिन वह अभिशाप बनता जा रहा है। इसके लिये वृद्धों को स्वयं के प्रति जागरूक होना होगा। जेम्स गारफील्ड ने कहा भी है कि यदि वृद्धावस्था की झूर्रियां पड़ती है तो उन्हें हृदय पर मत पड़ने दो। कभी भी आत्मा को वृद्ध मत होने दो।’
भारत में भी दिन-प्रतिदिन हमारे बुजुर्गों के प्रति उपेक्षा निरंतर बढ़ती जा रही है, जो संवेदनशीलता का अभाव प्रदर्शित कर रही है। आज हम पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव में अपनी सांस्कृतिक परंपरागत और विरासत में मिली धरोहरों को नष्ट कर रहे हैं। हमारे रीति-रिवाज और सभ्यता ने ही हमें संसार में विश्व गुरु की उपाधि प्रदान की थी। अमूल्य संस्कार और आचार-विचार की अवहेलना कर हम स्वयं अपना ही नुकसान कर रहे हैं। आज जीवन में बढ़ता अवसाद, बढ़ते तलाक, बच्चों के सर्वांगीण विकास में बाधा जैसी समस्याओं की वजह बुजुर्गों की उपेक्षा है। आज देश में बढ़ते वृद्धाश्रम इस बात का जीता जागता उदाहरण है कि हम स्व केंद्रित हो गए हैं। हमें अपनी उपभोक्तावादी तथा अहंकार प्रवृत्ति को नष्ट कर अपने संस्कारों को पुनर्जीवित करना होगा। साथ ही बुजुर्गों को भी कुछ संतुलन के साथ परिवार के बच्चों को संस्कारित करने का कर्तव्य निभाना चाहिए।
वृद्ध समाज को दुःख और संत्रास से छुटकारा दिलाने के लिये ठोस प्रयास किये जाने की बहुत आवश्यकता है। संयुक्त राष्ट्र ने विश्व में बुजुर्गों के प्रति हो रहे दुर्व्यवहार और अन्याय को समाप्त करने के लिए और लोगों में जागरूकता फैलाने के लिए अंतरराष्ट्रीय बुजुर्ग दिवस मनाने का निर्णय लिया। यह सच्चाई है कि एक पेड़ जितना ज्यादा बड़ा होता है, वह उतना ही अधिक झुका हुआ होता है यानि वह उतना ही विनम्र और दूसरों को फल देने वाला होता है, यही बात समाज के उस वर्ग के साथ भी लागू होती है, जिसे आज की तथाकथित युवा तथा उच्च शिक्षा प्राप्त पीढ़ी बूढ़ा कहकर वृद्धाश्रम में छोड़ देती है। जिस घर को बनाने में एक इंसान अपनी पूरी जिंदगी लगा देता है, वृद्ध होने के बाद उसे उसी घर में एक तुच्छ वस्तु समझ लिया जाता है। बड़े बूढ़ों के साथ यह व्यवहार देखकर लगता है जैसे हमारे संस्कार ही मर गए हैं। बुजुर्गों के साथ होने वाले अन्याय के पीछे एक मुख्य वजह सामाजिक प्रतिष्ठा मानी जाती है। तथाकथित व्यक्तिवादी एवं सुविधावादी सोच ने समाज की संरचना को बदसूरत बना दिया है। सब जानते हैं कि आज हर इंसान समाज में खुद को बड़ा दिखाना चाहता है और दिखावे की आड़ में बुजुर्ग लोग उसे अपनी शान-शौकत एवं सुंदरता पर एक काला दाग दिखते हैं। आज बन रहा समाज का सच डरावना एवं संवेदनहीन है। आदमी जीवनमूल्यों को खोकर आखिर कब तक धैर्य रखेगा और क्यों रखेगा जब जीवन के आसपास सबकुछ बिखरता हो, खोता हो, मिटता हो और संवेदनाशून्य होता हो। डिजरायली का मार्मिक कथन है कि यौवन एक भूल है, पूर्ण मनुष्यत्व एक संघर्ष और वार्धक्य एक पश्चाताप।’ वृद्ध जीवन को पश्चाताप का पर्याय न बनने दे।
वृद्धों को लेकर जो गंभीर समस्याएं आज पैदा हुई हैं, वह अचानक ही नहीं हुई, बल्कि उपभोक्तावादी संस्कृति तथा महानगरीय अधुनातन बोध के तहत बदलते सामाजिक मूल्यांे, नई पीढ़ी की सोच में परिवर्तन आने, महंगाई के बढ़ने और व्यक्ति के अपने बच्चों और पत्नी तक सीमित हो जाने की प्रवृत्ति के कारण बड़े-बूढ़ों के लिए अनेक समस्याएं आ खड़ी हुई हैं। इसीलिये सिसरो ने कामना करते हुए कहा था कि जैसे मैं वृद्धावस्था के कुछ गुणों को अपने अन्दर समाविष्ट रखने वाला युवक को चाहता हूं, उतनी ही प्रसन्नता मुझे युवाकाल के गुणों से युक्त वृद्ध को देखकर भी होती है, जो इस नियम का पालन करता है, शरीर से भले वृद्ध हो जाए, किन्तु दिमाग से कभी वृद्ध नहीं हो सकता।’ वृद्ध लोगों के लिये यह जरूरी है कि वे वार्धक्य को ओढ़े नहीं, बल्कि जीएं।
मध्यमवर्गीय परिवार के वृद्धांे के लिए जीवन का उत्तरार्द्ध पहाड़ बन जाता है। वर्किंग बहुओं के ताने, बच्चों को टहलाने-घुमाने की जिम्मेदारी की फिक्र में प्रायः जहां पुरुष वृद्धों की सुबह-शाम खप जाती है, वहीं महिला वृद्ध एक नौकरानी से अधिक हैसियत नहीं रखती। यदि परिवार के वृद्ध कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे हैं, रुग्णावस्था में बिस्तर पर पड़े कराह रहे हैं, भरण-पोषण को तरस रहे हैं तो यह हमारे लिए वास्तव में लज्जा एवं शर्म का विषय है। पर कौन सोचता है, किसे फुर्सत है, वृद्धांे की फिक्र किसे हैं? भौतिक जिंदगी की भागदौड़ में नई पीढ़ी नए-नए मुकाम ढूंढने में लगी है, आज वृद्धजन अपनों से दूर जिंदगी के अंतिम पड़ाव पर कवीन्द्र-रवीन्द्र की पंक्तियां गुनगुनाने को क्यों विवश है-‘दीर्घ जीवन एकटा दीर्घ अभिशाप’, दीर्घ जीवन एक दीर्घ अभिशाप है।