अमेरिकी वर्चस्ववाद के शिकार डोनाल्ड ट्रंप

Donald Trump a victim of American hegemony

प्रमोद भार्गव

इजरायल के कंधे पर बंदूक रखकर डोनाल्ड ट्रंप अमेरिकी वर्चस्ववाद की महिमा को स्थापित करने में लगे हैं। उनका यही बर्ताव पहली बार राष्ट्रपति बनने के बाद ईरान के परिप्रेक्ष्य में रहा था। परमाणु शक्ति संपन्न पश्चिमी देशों को आशंका है कि ईरान परमाणु बम बना लेने के निकट है। यही आशंका इजरायल की है। हालांकि अभी तक इजरायल घोषित रूप में परमाणु शक्ति संपन्न देश नहीं है, लेकिन अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों का उसके सिर पर वरदहस्त है। अतएव इजरायल अपनी संपूर्ण शक्ति से ईरान पर हमला कर रहा है। ऐसी भी जानकारी आ रही है कि की उसने ईरान के परमाणु केंद्र नतांज पर भी हमला बोल दिया है। कई ईरानी वैज्ञानिक भी हताहत हो चुके हैं। ट्रंप धमकी के लहजे में कह रहे हैं कि हम इस जंग का समापन ‘असली अंत‘ के रूप में देखना चाहते हैं, जो केवल संघर्ष विराम में नहीं है। यह असली अंत ईरान को परमाणु समझौते के लिए बाध्य करने के साथ परमाणु कार्यक्रम को पूरी तरह खत्म करने में निहित लग रहा है। या फिर ईरान के 86 वर्शीय सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामेनेई को सत्ता के षीर्श पद से पदच्युत कर उन्हीं के वंष के किसी व्यक्ति को नेता बनाना है। इसी परिप्रेक्ष्य में यूएस ने दो लड़ाकू जहाज ईरान के निकट भेज दिए हैं। यूके ने भी इजरायल की मदद के लिए लड़ाकू विमान तैनात किए हैं। फ्रांस भी ईरान की मदद करने को तत्पर है। साफ है, ईरान के अस्तित्व पर चहुंओर से खतरा मंडरा रहा है।

ट्रंप 2018 में उस ऐतिहासिक परमाणु समझौते से अलग हो गए थे, जिसे बराक ओबामा ने अंजाम तक पहुंचाया था। हालांकि यह संभावना टं्रप के राश्ट्रपति बनने के बाद से ही बन गई थी। ट्रंप ने चुनाव प्रचार के दौरान इस समझौते का खूब मखौल भी उड़ाया था। ट्रंप को हमेशा यह संदेह बना रहा है कि ईरान समझौते की शर्तों का उल्लंघन कर रहा है। यह आशंका इसलिए पुख्ता दिखाई दे रही थी, क्योंकि ईरान लगातार गैर परमाणु बैलिस्टिक मिसाइलों का परीक्षण कर रहा था। वर्तमान के युद्ध में ईरान इन्हीं मिसाइलों से इजरायल की राजधानी तेल अवीव और अन्य नगरों में भीषण हमले कर रहा है, इससे इजरायल को भारी नुकसान हुआ है। उस समय ओबामा ने ट्रंप के निर्णय को बड़ी भूल बताया था। दरअसल ओबामा को भरोसा था कि समझौते के बाद ईरान ने अपने परमाणु कार्यक्रम में कटौती की थी, लेकिन ट्रंप अंध-राश्ट्रवाद और अमेरिकी वर्चस्व को लेकर इतने पूर्वाग्रही हैं कि उन्हें न तो अमेरिकी विदेष नीति की फिक्र है और न ही विष्व षांति के प्रति उनकी कोई प्रतिबद्धता दिखाई देती है। इसीलिए यह आषंका जताई जा रही है कि ईरान ट्रंप के दबाव में नहीं आता है तो विष्व षक्तियों के संतुलन बिगड़ सकता है ?

ईरान पर लगे प्रतिबंध हटने के साथ ही विष्वस्तरीय कूटनीति में नए दौर की ष्ुरूआत होने लगी थी। ईरान, अमेरिका, यूरोपीय संघ और छह बड़ी परमाणु षक्तियों के बीच हुए समझौते ने एक नया अध्याय खोला था। इसे ‘संयुक्त व्यापक कार्रवाई योजना‘ नाम दिया गया था। इसकी षर्तों के पालन में ईरान ने अपना विवादित परमाणु कार्यक्रम बंद करने की घोशणा की थी। बदले में इन देषों ने ईरान पर लगाए गए व्यावसायिक प्रतिबंध हटाने का विष्वास जताया था। प्रतिबंधों के बाद से ईरान अलग-थलग पड़ गया था। इसी दौर में ईरान और इराक के बीच युद्ध भी चला,जिससे वह बर्बाद होता चला गया। यही वह दौर रहा जब ईरान में कट्टरपंथी नेतृत्व में उभार आया और उसने परमाणु हथियार निर्माण की मुहिम षुरू कर दी थी। हालांकि ईरान इस मुहिम को असैन्य ऊर्जा व स्वास्थ्य जरूरतों की पूर्ति के लिए जरूरी बताता रहा था, लेकिन उस पर विश्वास नहीं किया गया। प्रतिबंध लगाने वाले राश्ट्रों के पर्यवेक्षक समय-समय पर ईरान के परमाणु कार्यक्रम का निरीक्षण करते रहे थे, लेकिन उन्हें वहां संदिग्ध स्थिति का कभी सामना नहीं करना पड़ा। अंत में आषंकाओं से भरे इस अध्याय का पटाक्षेप तब हुआ जब अंतरराश्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी ने निगरानी के बाद यह कहा कि ईरान ऐसे किसी परमाणु कार्यक्रम का विकास नहीं कर रहा है,जिससे दुनिया का विनाष संभव हो। ओबामा ने इस समझौते में अहम् भूमिका निभाई थी। किंतु ट्रंप को पहली बार राष्ट्रपति बनने के बाद लगा कि इस समझौते में अमेरिका कुछ ज्यादा झुका है। बावजूद उसके कोई हित नहीं सध रहे हैं। ट्रंप की मंशा थी कि ईरान प्रतिबंधों से पूरी तरह बर्बाद हो जाए और अमेरिका के आगे घुटने टेक दे। लेकिन ऐसे परिणाम नहीं निकले। पश्चिमी एषियाई की राजनीति में ईरान की तात्कालिक हसन रूहानी सरकार का वर्चस्व कायम रहा। उसने रूस, चीन और भारत के साथ मजबूत द्विपक्षीय संबंध बनाए, जो ट्रंप को कभी रास नहीं आए। ट्रंप की वजह से ही कोरिया प्रायद्वीप में अमेरिका की जगहंसाई हुई।दरअसल अमेरिका अपनी षक्ति की नींव पर ही कोई संधि करने का आदि रहा है। साफ है कि अमेरिका ईरान से करार तोड़कर ऐसे प्रतिबंधों की मंषा पाले था कि ईरान उसकी ताकत के आगे नतमस्तक तो हो ही और यदि भविश्य में समझौता हो तो पूरी तरह एकपक्षीय हो।यह निर्णय इस्लाम और ईसाईयत में टकराव का कारण भी बन सकता है।

इस समझौते की प्रमुख शर्ते थी कि अब ईरान 300 किलोग्राम से ज्यादा यूरेनियम अपने पास नहीं रख सकेगा। ईरान अपनी परमाणु सेन्ट्रीफ्यूज प्रयोगशालाओं में दो तिहाई यूरेनियम का 3.67 फीसदी भाग ही रख सकेगा। यह षर्त इसलिए लगाई गई थी, जिससे ईरान परमाणु बम नहीं बना पाए। दरअसल यूरेनियम की प्राकृतिक अवस्था में 20 से 27 प्रतिशत ऐसे बदलाव करने होते हैं, जो यूरेनियम को खतरनाक परमाणु हथियार में तब्दील कर देते हैं। ईरान ने यूरेनियम में परिवर्तन की यह तकनीक बहुत पहले हासिल कर ली थी। इस षंका के चलते उसे न्यूनतम मात्रा में यूरेनियम रखने की अनुमति समझौते में दी गई थी, जिससे वह आसानी से परमाणु बम नहीं बना पाए। सबसे अहम् षर्तों में अंतरराश्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के निरीक्षकों को परमाणु सेन्ट्रीफ्यूजन के भंडार, यूरेनियम खनन एवं उत्पादन की निगरानी का भी अधिकार दे दिया गया था। यह षर्त तोड़ने पर ईरान पर 65 दिनों के भीतर फिर से प्रतिबंध लगाने की षर्त भी प्रारूप में दर्ज की गई थी। ईरान को उसे मिसाइल खरीदने की भी छूट नहीं दी गई थी। ईरान के सैन्य ठिकाने भी संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में थे। साफ है ईरान ने आर्थिक बदहाली के चलते इन षर्तों को मानने को बाध्य हुआ था। प्रतिबंध की षर्तों से मुक्त होने के बाद ईरान तेल और गैस बेचने लग गया था। भारत ने भी ईरान से बड़ी मात्रा में कच्चा तेल खरीदना षुरू कर दिया था। भारत के लिए ईरान से तेल खरीदना इसलिए लाभदायी रहता है, क्योंकि भारत के तेल षोधक संयंत्र ईरान से आयातित कच्चे तेल को परिषोघित करने के लिहाज से ही तैयार किए गए हैं। गोया, ईरान के तेल की गुणवत्ता श्रेश्ठ नहीं होने के बावजूद भारत के लिए यह लाभदायी रहता है। भारत ईरान से रुपए में तेल खरीदता है, इसलिए यह तेल डॉलर या पौंड में खरीदे जाने की तुलना में सस्ता पड़ता है।

ईरानी विदेष मंत्रालय के प्रवक्ता इस्माइल बाघेई ने कहा है कि इजरायल ईरान पर जब तक परमाणु हमले बंद नहीं करता है तब तक परमाणु वार्ता स्थगित रहेगी। क्योंकि ऐसी परिस्थितियों में उस पक्ष से बातचीत व्यर्थ है, जो आक्रमणकारी का सबसे बड़ा समर्थक है। दूसरी तरफ ईरान ने धमकी दी है कि अगर अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, इजरायल को मदद करते हैं तो वह इन देषों के हितों को नुकसान पहुंचाएगा। दरअसल अमेरिका के पष्चिम एषिया क्षेत्र के ईराक में विषेश बलों के बड़े षिविरों के अड्डे हैं। खाड़ी में अनेक सैन्य अड्डे हैं। ईरान के समर्थक सषक्त आतंकी गुट हमास और हिजबुल्ला भले ही कमजोर हो गए हों, लेकिन ईराक में इनके समर्थक मिलिषिया अभी भी मजबत है। अमेरिका को ऐसी आषंका पूर्व में ही हो गई थी, इसलिए उसने अनेक सुरक्षाबलों को वापिस बुला लिया है। बहरहाल मध्यपूर्व में बढ़ता यह तनाव कहां पहुंचेगा फिलहाल कुछ निष्चित नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि जो अमेरिका खुद के वर्चस्व के लिए युद्ध की जमीन को रक्त से सींच रहा है, अमेरिका बड़बोले ट्रंप के राश्ट्रपति बनने के बाद न तो रूस और यूक्रेन के युद्ध को रोक सका है और न ही इजरायल और फिलिपींस के बीच युद्ध विराम कर पाया है। लिहाजा ट्रंप का यह अहंकार अस्थिर होती दुनिया में वैष्विक संघर्श को बढ़ावा देने का काम कर रहा है।