ललित गर्ग
भारतीय राजनीति से डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का गहरा नाता हुआ करता था। वे जम्मू कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। उस समय जम्मू कश्मीर का अलग झण्डा और अलग संविधान था। वहाँ का मुख्यमन्त्री (वजीरे-आजम) अर्थात् प्रधानमन्त्री कहलाता था। वे अखण्ड भारत के सपने को आकार देते हुए जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाकर एक देश-एक निशान-एक संविधान को लागू करने के लिये संघर्षरत रहे। उन्हें उनकी अलग विचारधारा के लिए जाना जाता था। उन्होंने हमेशा हिंदुत्व के लिए अपनी आवाज उठाई थी। अखंड भारत के संकल्प के साथ डॉ. मुखर्जी ने अपने प्राणों को आहुत किया। नरेन्द्र मोदी सरकार ने डॉ. मुखर्जी के अखण्ड भारत के सपने को आकार देते हुए जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाकर एक देश-एक निशान-एक संविधान को लागू कर राष्ट्र उन्हें वास्तविक श्रद्धांजलि दे रहा है।
डॉ. मुखर्जी भारतीय जनसंघ के संस्थापक, सच्चे अर्थों में मानवता के उपासक, कुशल राजनेता, राष्ट्रीयता के समर्थक और सिद्धान्तवादी थे। जब कभी भारत की एकता, अखण्डता एवं राष्ट्रीयता की बात होगी तब-तब डॉ. मुखर्जी द्वारा राष्ट्रजीवन में किये गए योगदान की चर्चा अवश्य होगी। अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊँगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये अपना जीवन बलिदान कर दूँगा। उन्होंने तत्कालीन नेहरू सरकार को चुनौती दी तथा अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहे। अपने संकल्प को पूरा करने के लिये वे 1953 में बिना परमिट लिये जम्मू कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े। वहाँ पहुँचते ही उन्हें गिरफ्तार कर नजरबन्द कर लिया गया। 23 जून 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी। डॉ. मुखर्जी निरन्तर राष्ट्र श्रद्धा के प्रतीकों का मान एवं रक्षण करते रहे। वे सदैव देशहित में स्वदेशी चेतना, स्वदेशी जीवन पद्धति, स्वदेशी वेशभूषा तथा स्वदेशी संस्कार के प्रकटीकरण पर बल दिया। वे सच्चे अर्थों में राष्ट्रधर्म का पालन करने वाले साहसी, निडर एवं जुझारु कर्मयोद्धा थे। जीवन में जब भी निर्माण की आवाज उठेगी, पौरुष की मशाल जगेगी, सत्य की आंख खुलेगी एवं अखण्ड राष्ट्रीयता की बात होगी, डॉ. मुखर्जी के अवदानों को सदा याद किया जायेगा।
डॉ. मुखर्जी के व्यक्तित्व के राजनीतिक आयाम पर बहुत कुछ लिखा गया है, परंतु ऐसा प्रतीत होता है कि बहुत कुछ लिखा जाना शेष है। उनका व्यक्तित्व उनके राजनीतिक जीवन से इतर भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। उनका व्यक्तित्व विराट् था। वे शिक्षाविद् थे, प्रशासक थे, समाजसेवी थे, लोकतंत्र के पुरोधा थे और राजनेता थे। अलग-अलग भूमिकाओं में उन्होंने अपना श्रेष्ठ योगदान किया। कश्मीर का आंदोलन केवल राष्ट्रीयत्व के आधार, भारत की एकता की रक्षा के लिए ही नहीं, अपितु लोकतंत्र की आत्मा नागरिक अधिकारो की रक्षा के लिए भी था। उनके बलिदान ने स्पष्ट करा दिया कि भारत के नागरिक के मौलिक अधिकार कितने सुरक्षित हैं!
डॉ. मुखर्जी के पद चिन्हों पर चलते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब से देश की बागडोर अपने हाथों में ली है, तब से कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बनाने, भारतीय संस्कृति की शिक्षा एवं संस्कार को आधार मानते हुए सारे विश्व में इसके प्रसार के लिए वे अग्रदूत की भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। मोदी न केवल भारतीय संस्कृति के ज्ञान को माध्यम बनाकर विश्व समुदाय को जीवन जीने का नवीन मार्ग बता रहे हैं, बल्कि भारत को एक बार फिर जगतगुरु के रूप में स्थापित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। यह बात हाल ही में की गयी अमेरीका एवं मिस्र की यात्रा में बढ़-चढ़कर उजागर हुई।डॉ. मुखर्जी के दृष्टिकोण एवं संकल्पों को श्री मोदी ने ‘माय आइडिया ऑफ इंडिया’ के रूप में कई बार संसार के समक्ष भी रखा है। मोदी ने डॉ. मुखर्जी के व्यापक दृष्टिकोण एवं भारत को लेकर उनके सपनों को निष्पक्षता एवं पारदर्शिता से प्रस्तुति दी है। देश और दुनिया में उनकी विचारधारा एवं सपनों को प्रभावी ढंग से न केवल प्रस्तुति दी है बल्कि उन अधूरों सपनों को पूरा भी करने की ओर डग भरे हैं।
डॉ. मुखर्जी इस धारणा के प्रबल समर्थक थे कि सांस्कृतिक दृष्टि से हम सब एक हैं। इसलिए धर्म के आधार पर वे विभाजन के कट्टर विरोधी थे। वे मानते थे कि विभाजन सम्बन्धी उत्पन्न हुई परिस्थिति ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों से थी। वे मानते थे कि आधारभूत सत्य यह है कि हम सब एक हैं। हममें कोई अन्तर नहीं है। हम सब एक ही रक्त के हैं। एक ही भाषा, एक ही संस्कृति और एक ही हमारी विरासत है। परन्तु उनके इन विचारों को अन्य राजनैतिक दल के तत्कालीन नेताओं ने अन्यथा रूप से प्रचारित-प्रसारित किया। बावजूद इसके आमलोगों के दिलों में उनके प्रति अथाह प्यार और समर्थन बढ़ता गया। अगस्त, 1946 में मुस्लिम लीग ने जंग की राह पकड़ ली और कलकत्ता में भयंकर बर्बरतापूर्वक अमानवीय मारकाट हुई। उस समय कांग्रेस का नेतृत्व सामूहिक रूप से आतंकित था।
डॉ. मुखर्जी द्वारा प्रदत्त महान् विचार एवं संकल्प तेजस्वी भारत राष्ट्र की परिकल्पना की सृष्टि करता है। डॉ. मुखर्जी का जीवन बहुत संघर्षभरा रहा, अपनी राष्ट्रवादी नीतियों के कारण उन्हें बहुत से विरोध एवं उपेक्षाओं का सामना करना पड़ा, लेकिन वे अपने संकल्प पर अडिग रहे। उनके अनुसार भारत कर्मभूमि, धर्मभूमि एवं पुण्यभूमि है, यहां का जीवन विश्व के लिये आदर्श है। भारत राज्य नहीं, सर्व प्रभुता सम्पन्न राष्ट्र है। इसे राष्ट्र बनाया नहीं, अपितु यह तो सनातन राष्ट्र है। डॉ. मुखर्जी में राजनीतिक शक्ति ही नहीं बल्कि आध्यात्मिक शक्ति भी प्रबल थी। वे निरन्तर भारत को शक्तिशाली एवं समृद्ध बनाने के लिये प्रतिबद्ध रहे। यही कारण है कि वे सावरकर के राष्ट्रवाद के प्रति आकर्षित हुए और हिन्दू महासभा में सम्मिलित हुए। मुस्लिम लीग की राजनीति से बंगाल का वातावरण दूषित हो रहा था। वहाँ साम्प्रदायिक विभाजन की नौबत आ रही थी। साम्प्रदायिक लोगों को ब्रिटिश सरकार प्रोत्साहित कर रही थी। ऐसी विषम परिस्थितियों में उन्होंने यह सुनिश्चित करने का बीड़ा उठाया कि बंगाल के हिन्दुओं की उपेक्षा न हो। अपनी विशिष्ट रणनीति से उन्होंने बंगाल के विभाजन के मुस्लिम लीग के प्रयासों को पूरी तरह से नाकाम कर दिया।
डॉ. मुखर्जी गांधीजी और सरदार पटेल के अनुरोध पर भारत के पहले मंत्रिमंडल में शामिल हुए। उन्हें उद्योग जैसे महत्वपूर्ण विभाग की जिम्मेदारी सौंपी गयी। संविधान सभा और प्रान्तीय संसद के सदस्य और केन्द्रीय मन्त्री के नाते उन्होंने शीघ्र ही अपना विशिष्ट स्थान बना लिया। किन्तु उनके राष्ट्रवादी चिन्तन के चलते अन्य नेताओं से मतभेद बराबर बने रहे। फलतः राष्ट्रीय हितों की प्रतिबद्धता को अपनी सर्वाेच्च प्राथमिकता मानने के कारण उन्होंने मन्त्रिमण्डल से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने एक नई पार्टी बनायी जो उस समय विरोधी पक्ष के रूप में सबसे बड़ा दल था। अक्टूबर, 1951 में भारतीय जनसंघ का उद्भव हुआ।
डॉ. मुखर्जी महान् शिक्षाविद् थे, उनका छात्र जीवन से ही अटल विश्वास था कि अध्यात्म तथा विज्ञान से युक्त शिक्षा के द्वारा ही भारत ‘जगत गुरु’ के रूप में निरन्तर विश्व में आगे बढ़ सकता है। उनके जीवन की विशेषता यह है कि उनमें अध्यात्मवाद, सहनशीलता, मानवीय गुणों, वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं गहरी समझ के साथ सुन्दर समन्वय हो गया था। यह विशेषता शिक्षाविद् और संसदविद् के रूप में उनके पूरे जीवन में परिलक्षित होती रही। मानव मात्र की सेवा को ही वह ईश्वर की सच्ची पूजा मानते थे। डॉ. मुखर्जी का सम्पूर्ण जीवन विशेषताओं एवं विलक्षणताओं का समवाय था। वे सिर्फ 33 साल की उम्र में कलकत्ता यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर बन गए। करीब 20 से ज्यादा यूनिवर्सिटीज में इन्होंने कन्वोकेशन एड्रेस किया। वे जितने सक्षम राजनेता थे, उतने ही प्रभावी लेखक भी थे, उनका प्रचूर साहित्य आज भी भारत का पथ-दर्शन कर रहा है। समानता के पक्षधर एवं राष्ट्रवाद के सच्चे महानायक को उनकी जन्म जयन्ती पर विनम्र नमन्!