आंकड़ों का अध्यन करें तो हम पाएंगे कि देश के कुल केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अन्य पिछड़ा वर्ग में केवल 5 उप-कुलपति है। अगर रजिस्ट्रार देखें तो पिछड़े समाज के तीन हैं। देश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर की तय सीटों की मात्र 4.5 प्रतिशत ही भरी गई हैं। अमूमन यही स्थिति एसोसिएट और असिस्टेंट प्रोफेसर में भी है। सीटों के खाली रहने के साथ-साथ ओबीसी के साथ क्रीमीलेयर का घटिया खेल खेलकर उनको कहीं का भी नहीं छोड़ा जा रहा है जिसकी वजह से उनकी जाति का सर्टिफिकेट तक छिना जा रहा है। छह या आठ लाख की मामूली सीमा से ओबीसी का हक़ मारकर आने वाली पीढ़ियों को पंगु बनाया जा रहा है जबकि अन्य आरक्षित वर्गों में न तो कोई क्रीमीलेयर है न कोई और बाध्यता? जिसकी वजह से इन वर्गों के बड़े-बड़े अफसरों के बच्चे भी पीढ़ियों तक आरक्षण का फायदा उठा पाएंगे। बड़े समाज को पीछे छोड़ हम अपने देश को सशक्त नहीं कर सकते। क्या यह कहना उपयुक्त नहीं है कि सारे तथ्यों को जानते हुए भी सरकारों द्वारा ओबीसी वर्ग के साथ धोखा किया जा रहा है?
डॉ सत्यवान सौरभ
सांप्रदायिकता और आरक्षण ने भारी संख्या में युवाओं का मानसिक और राजनीतिक विकास रोक दिया है। उन्हें कुंठित बना दिया है। उनकी ज़रूरत समाप्त हो चुकी है क्योंकि वे सामाजिक न्याय की मुख्यधारा से कट गए हैं। काट दिया गया है। इन दो नफ़रतों के कारण ज़रूरत ही समाप्त हो चुकी है। बेहतर है आप आरक्षण के महत्व को समझें। उसके नाम पर ख़ुद को मुख्यधारा से अलग न करें। अपने भीतर जातिगत नफ़रत को मिटाइये। थोड़ी कोशिश करेंगे तो इस नफ़रत से मुक्ति मिल जाएगी। आप अच्छा महसूस करेंगे। सभी समाज के लोगों को यह बात समझनी चाहिए कि आरक्षण के कारण अवसर ख़त्म नहीं होते हैं। अवसर ख़त्म होते हैं दूसरी नीतियों के कारण। चार पूँजीपतियों की पूँजी बढ़ती रहे इसके लिए आर्थिक नीतियों का जाल बिछाने के कारण अवसर समाप्त होते हैं। लोग यह समझ नहीं पाते हैं कि उनकी नौकरी में रुकावट आरक्षण नहीं है। अवसर की कमी है। सरकार की मूर्खतापूर्ण हरकतों के कारण अवसर समाप्त हो चुके हैं। प्राइवेट हों या सरकारी क्षेत्र में। ये आरक्षण के कारण नहीं हुआ है। चूँकि आप आर्थिक जगत के मुश्किल खेल को नहीं समझ पाते तो फिर से आरक्षण पर पहुँच जाते हैं कि इसकी वजह से नौकरी नहीं मिल रही है। जबकि जिन्हें आरक्षण मिला है उन्हें भी नौकरी नहीं मिल रही है।
अब आते हैं ओबीसी पर। केवल केंद्र सरकार के संस्थानों में शिक्षकों के ख़ाली पदों को जोड़ लें तो पता चलेगा कि ओबीसी के चालीस से साठ फ़ीसदी तक पद ख़ाली हैं। ओबीसी कोटे की 16000 मेडिकल सीटों का चले जाना किसी अपराध से कम नहीं है। यूजीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ देश भर के केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में मात्र 09 ओबीसी प्रोफ़ेसर पढ़ा रहे हैं जबकि स्वीकृत पद 304 हैं तो ओबीसी को भी वाजिब हक़ नहीं मिल रहा है। ओबीसी नेता के राज में ओबीसी को भी नौकरी नहीं मिल रही है। वर्ना केवल केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कई हज़ार ओबीसी के नौजवान लेक्चरर बन गए होते। कितना बड़ा सामाजिक बदलाव होता। इन पदों पर बहालियां होती हैं तो सभी नौजवानों को भी लाभ मिलता। आरक्षण का अभिप्राय भी प्रतिनिधित्व से ही है। यह प्रतिनिधित्व धीरे-धीरे महिला, अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग एवं दिव्यांग और हाल में आर्थिक रूप से पिछड़े समाज के लिए भी किया गया है। अब आरक्षण तो लागू हो गया लेकिन उसे जमीन पर लाने की जिम्मेदारी जिन कंधों पर थी, वह सभी जातिवादी मानसिकता से ग्रस्त, गैर-समता में विश्वास करने वाले थे। यही कारण है कि आज भी चतुर्थ श्रेणी को छोड़ कहीं पर भी आरक्षित वर्ग को प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया है। क्या उपयुक्त पद के लिए आरक्षित वर्ग के कैंडिडेट नहीं मिलते अथवा मानसिक बीमारी के कारण इस वर्ग का समावेशन नहीं किया जा रहा है।
पिछले कई वर्षो में देश भर के केंद्रीय एवं राज्य विश्वविद्यालयों में ओबीसी आरक्षित वर्ग की सीटों को नहीं भरा गया। देश के कई विश्वविद्यालय में तो अधिकतर पदों पर यह लिख दिया गया कि हमें ओबीसी आरक्षित वर्ग में कोई भी उपयुक्त अभ्यर्थी नहीं मिला। इसलिए सभी पद खाली रख लिए गए ताकि बाद में इनको सामान्य वर्ग से भर दिया जाये। अब आप सोच सकते है कि किस सोच के साथ उपयुक्त नहीं-लिख कर आरक्षित वर्ग को कमतर बताने का प्रयास किया गया है। आप देखंगे तो पाएंगे कि देश भर के संस्थानों में ओबीसी के लोगों के साथ सभी में यही हाल है। ओबीसी की अधिकतर सीटों पर एनएफएस (कोई भी उपयुक्त अभ्यर्थी नहीं मिला) लगा दिया है। आज एनएफएस को लेकर देश भर के आरक्षित वर्ग में काफी रोष है। अब सवाल यह उठता है कि पिछड़े वर्ग के अभ्यर्थियों को एनएफएस किया जाना, कुछ लोगों की जातिवादी मानसिकता का परिचायक तो नहीं है। क्या ये लोग अपने विवेक का इस्तेमाल बेईमानी के लिए करते हैं। अगर ऐसा ही चलता रहा तो ये समस्या एक दिन विकराल रूप बन जाएँगी।
आंकड़ों का अध्यन करें तो हम पाएंगे कि देश के कुल केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अन्य पिछड़ा वर्ग में केवल 5 उप-कुलपति है। अगर रजिस्ट्रार देखें तो पिछड़े समाज के तीन हैं। देश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर की तय सीटों की मात्र 4.5 प्रतिशत ही भरी गई हैं। अमूमन यही स्थिति एसोसिएट और असिस्टेंट प्रोफेसर में भी है। सीटों के खाली रहने के साथ-साथ ओबीसी के साथ क्रीमीलेयर का घटिया खेल खेलकर उनको कहीं का भी नहीं छोड़ा जा रहा है जिसकी वजह से उनका जाति का सर्टिफिकेट तक छिना जा रहा है। छह या आठ लाख की मामूली सीमा से ओबीसी का हक़ मारकर आने वाली पीढ़ियों को पंगु बनाया जा रहा है जबकि अन्य आरक्षित वर्गों में न तो कोई क्रीमीलेयर है न कोई और बाध्यता? जिसकी वजह से इन वर्गों के बड़े-बड़े अफसरों के बच्चे भी पीढ़ियों तक आरक्षण का फायदा उठा पाएंगे। देखें तो भारत में कुल आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा ओबीसी आरक्षित वर्ग से आता है लेकिन इसी वर्ग की हालत कोई खास अच्छी नहीं दिखती। जिस तरह से प्रतिष्ठित संस्थानों में जाति के आधार पर योग्य और अयोग्य होने का खेल खेला जाता है, वह शर्मनाक है।
हालांकि, ओबीसी अभ्यर्थियों के साथ किया गया यह धोखा कोई नया नहीं है। गत वर्ष यानी 2022 में शिक्षा मंत्रालय ने एक लिखित जवाब में देश के उच्च सदन राज्य सभा को बताया था कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 880 प्रोफ़ेसरों के पद सहित 3,669 आरक्षित श्रेणी के शिक्षण पद रिक्त हैं। इसमें 1761 पद ओबीसी के रिक्त हैं। संविधान में दिए गए अधिकारों के लिए जब देश के एक बड़े समाज को लड़ना पड़ेगा तो ऐसे में भारत कैसे मजबूत राष्ट्र बनेगा। सबका साथ सबका विकास के साथ सबका विश्वास होना भी जरूरी है। देश में हिस्सेदारी के सवाल पर देश के बड़े वर्ग के भीतर निस्संदेह कुछ बेचैनी और असंतोष है, जिसका समाधान सरकार के पास ही है। बड़े समाज को पीछे छोड़ हम अपने देश को सशक्त नहीं कर सकते। क्या यह कहना उपयुक्त नहीं है कि सारे तथ्यों को जानते हुए भी सरकारों द्वारा ओबीसी वर्ग के साथ धोखा किया जा रहा है?