सुरेश हिन्दुस्थानी
राष्ट्रपति के चुनाव की मतगणना के पश्चात देश ने नए राष्ट्रपति के रूप में जनजातीय समाज की प्रतिभा द्रौपदी मुर्मू को चुन लिया गया है। राष्ट्रपति के रूप में उनका चयन निश्चित ही एक ऐसा संदेश प्रवाहित कर रहा है, जिसमें एक उम्मीद है, एक विश्वास है। जो उस समाज में आगे बढऩे का हौसला प्रदान कर रहा है, जिसको अभी तक वंचित माना जाता रहा है। भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनवाकर स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव को सार्थकता प्रदान की है। यहां उल्लेखनीय तथ्य यह है कि द्रौपदी मुर्मू उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं, जो एकात्म मानव दर्शन के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय के चिंतन से निकले शब्दों में समाज का अंतिम छोर है। केंद्र की मोदी सरकार ने आज पंडित दीनदयाल जी के सपने को साकार करने की अभिनव पहल की है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी कहते थे कि जिस दिन समाज के अंतिम छोर पर रहने वाला व्यक्ति मुख्य धारा में नहीं आएगा, तब तक राष्ट्र विकसित नहीं कहा जा सकता। वर्तमान केंद्र सरकार की अवधारणा ही सबका साथ सबका विकास वाली है।
भारतीय जनता पार्टी ने समर्थन देकर अभी तक तीन राष्ट्रपति बनाने में सफलता प्राप्त की है। जिसमें भारत रत्न और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी के शासन काल में डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम और वर्तमान केन्द्र सरकार के समय पहले रामनाथ कोविंद और अब द्रौपदी मुर्मू राष्ट्रपति के लिए निर्वाचित हो चुकी हैं। राजनीतिक गुणा भाग कैसे लगाए जाते हंै, यह भारतीय जनता पार्टी के नेताओं से अच्छा शायद की कोई जानता हो। भाजपा ने पहले राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए जनजातीय समाज की द्रौपदी मुर्मू का नाम चयन करके देश के राजनीतिक दलों को चौंकाया, वहीं कई राजनीतिक दलों के लिए एक ऐसी विवशता पैदा कर दी, जिससे उन्हें यह तय करने में काफी कठिनाई का सामना करना पड़ा कि अब क्या किया जाए। अब भाजपा ने उपराष्ट्रपति पद के लिए भी पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ के नाम का चयन करके फिर से चौंकाने वाला कार्य किया है। उल्लेखनीय है कि अभी तक जिन नामों पर कयास लगाए जा रहे थे उनमें से कोई भी नाम नहीं आया। अगर इसे सामाजिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो यही कहा जाएगा कि अभी तक जनजातीय वर्ग से कोई भी व्यक्ति या महिला राष्ट्रपति पद तक नहीं पहुंचा है, इसी प्रकार से जाट समुदाय का व्यक्ति उपराष्ट्रपति पद तक नहीं पहुंचा।
भली भांति जानते हैं कि स्वतंत्रता के बाद देश का चित्र ऐसा ही दिखाई देता था कि प्रधानमंत्री का बेटा प्रधानमंत्री, कलेक्टर का बेटा कलेक्टर और शासकीय बड़े पदों पर बैठे अधिकारियों का बेटा उसी लाइन पर चलता था, यह उसकी व्यक्तिगत योग्यता न होकर पारिवारिक पृष्ठभूमि से मिली विरासत के आधार पर ही तय किया जाता था। इससे देश में उन प्रतिभाओं को बहुत पीछे किया गया जो वास्तव में कुछ पाने का अधिकार रखती थी। यह बात सही है कि जनजातीय समाज की कोई राजनीतिक पहुंच नहीं थी, इसका आशय यही है कि पूर्व में राजनीतिक पहुंच वाले व्यक्ति ही उच्च पदों पर पहुंच पाते थे और यही व्यक्ति सरकारी सम्मानों को प्राप्त करने में सफल हो जाते थे, लेकिन केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद इसमें व्यापक परिवर्तन दिखने लगा है। हम यह भी जानते हैं कि विगत कुछ वर्षों से सरकार की ओर से दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान में अब वह व्यक्ति नहीं आते जो सरकारी कृपा पर जीवित रहते थे या फिर जिनकी राजनीतिक पहुंची थी, बल्कि यह सम्मान वहां तक पहुंचे हैं, जिन्होंने धरातल पर काम किया है, जो समाज के हित के लिए काम कर रहे हैं। ऐसे समाज की ओर सरकार की दृष्टि जाना निश्चित रूप से यह सिद्ध करता है कि देश उचित दिशा की ओर कदम बढ़ा रहा है।
देश की 70 वर्षों की राजनीति का अध्ययन किया जाए तो यही कहा जाना समुचित है कि स्वतंत्रता के बाद समाज के अंतिम छोर पर रहने वाले व्यक्तियों का जो विकास होना चाहिए था, वह इससे वंचित रहा। स्वतंत्रता केवल राजनीतिक शक्तियों और पैसों वालों के यहां कैद होकर रह गई थी। वास्तव में देखा जाए तो आजादी केवल उन्हीं को मिली थी जो सरकार के आसपास था। ग्रामीण परिवेश में और वनवासी अंचलों में निवास करने वाला समाज इस आजादी की किरण से बहुत पीछे रहा, उसे पता ही नहीं था कि आजादी क्या होती है। आज केंद्र की सरकार ने आजादी की पोस्ट किरण को समाज के अंतिम छोर पर पहुंचाने का कार्य किया है जो निश्चित ही स्वागत योग्य है।
इसी प्रकार एक बात और मेरे मन में आ रही है। एक बार राष्ट्रपति चुनाव को लेकर एक प्रसिद्ध समाचार चैनल पर बहस चल रही थी। उसमें एक पक्ष द्वारा यह प्रश्न किया गया कि दोनों व्यक्ति यानी कि द्रोपदी मुर्मू और यशवंत सिन्हा में से योग्यता के आधार पर किस को राष्ट्रपति होना चाहिए? यहां पर किया गया यह प्रश्न प्रथम दृष्टया इसलिए भी गलत है, क्योंकि योग्यता केवल कागजों के आधार पर नहीं आती, उसे अनुभव द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है। एक अनपढ़ व्यक्ति भी कुशल प्रबंधक हो सकता है और एक पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी गलत दिशा की ओर भी जा सकता है। इसलिए यह प्रश्न किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। आप केवल आदिवासी समाज की महिला के नाते उसे अयोग्य करार दे दें, यह सोच का तरीका ठीक नहीं है। वनवासी समाज में भी कई प्रतिभाएं हैं। वह पूरे मन से भारत की रीति-रिवाजों का पालन भी करते हैं।