ई-सिगरेट विवाद : क्या संसद कानून से ऊपर है?

E-cigarette controversy: Is Parliament above the law?

पिछले दिनों लोकसभा में उस समय असहज स्थिति बन गई, जब अनुराग ठाकुर ने दावा किया कि तृणमूल कांग्रेस के एक सांसद सदन की कार्यवाही के दौरान ई-सिगरेट पी रहे थे। लोकसभा में ई-सिगरेट पीने का यह मुद्दा केवल संसदीय मर्यादा का प्रश्न नहीं बल्कि उस बड़े स्वास्थ्य संकट की याद दिलाता है, जिसे 2019 में सरकार ने प्रतिबंधित किया था। जब संसद में ‘माननीय’ ही कानून तोड़ते दिखें तो पूरे समाज तक संदेश विकृत रूप में पहुंचता है। ई-सिगरेट का आकर्षण आधुनिकता की आड़ में फैल रहा एक कृत्रिम नशा है, जिसके रसायन फेफड़ों, हृदय और डीएनए तक को नुकसान पहुंचाते हैं।

योगेश कुमार गोयल

लोकसभा के शीतकालीन सत्र में पिछले दिनों उस समय असहज स्थिति बन गई, जब भाजपा सांसद अनुराग ठाकुर ने दावा किया कि तृणमूल कांग्रेस के एक सांसद सदन की कार्यवाही के दौरान ई-सिगरेट पी रहे थे। यह आरोप अपने आप में गंभीर था क्योंकि भारत में 2019 से ई-सिगरेट का उत्पादन, विक्रय, वितरण, भंडारण, यहां तक कि प्रचार-प्रसार भी पूर्णतः प्रतिबंधित है। प्रश्नकाल के बीच उठे इस मुद्दे ने विपक्षी बेंचों में हंगामा मचा दिया और स्पीकर ओम बिड़ला को हस्तक्षेप करना पड़ा। उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा कि सदन की मर्यादा और नियम सभी पर समान रूप से लागू होते हैं और यदि कोई औपचारिक शिकायत आती है तो कार्रवाई होगी। यह घटना केवल संसदीय अनुशासन का प्रश्न नहीं बल्कि उस व्यापक खतरे की भी याद दिलाती है, जिसे ‘ई-सिगरेट’ के नाम पर आधुनिक नशे के रूप में समाज के बीच पाला-पोसा जा रहा था। सवाल यह है कि जब देश के युवाओं को इस घातक प्रवृत्ति से बचाने के लिए कानून बना, तब क्या संसद परिसर में उसका उल्लंघन देश के लिए सही उदाहरण है?

ई-सिगरेट या ‘वेपिंग डिवाइस’ एक बैटरी चालित उपकरण है, जिसमें निकोटीन मिला एक तरल घोल गर्म होकर वाष्प के रूप में बाहर आता है। उपयोगकर्ता इसे कश लगाते हुए इनहेल करता है। इसमें कोई दहन नहीं होता, इसलिए इसे ‘स्मोक-फ्री’ कहा गया किंतु यह मात्र भाषाई छलावा है। ‘ई-सिगरेट’ शब्द भले ही आधुनिक लगे पर इसका मूल स्वभाव (लत, निकोटीन, और भ्रम) बेहद पुराना है। इसे धूम्रपान छोड़ने के सुरक्षित विकल्प के रूप में प्रचारित किया गया लेकिन विज्ञान ने इस भ्रम को जल्दी तोड़ दिया। इसकी भाप में निकोटीन, प्रोपलीन ग्लाइकॉल, ग्लिसरीन और दर्जनों रासायनिक फ्लेवर होते हैं। इन तत्वों की विषाक्तता पारंपरिक तंबाकू उत्पादों से कम नहीं बल्कि कई बार उससे भी अधिक खतरनाक होती है। अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ कैरोलाइना की 2018 की एक स्टडी में बताया गया कि प्रोपलीन ग्लाइकॉल और वेजिटेबल ग्लिसरीन दोनों ही मानव कोशिकाओं पर विषैला असर डालते हैं। इनसे कोशिकीय सूजन, डीएनए क्षति और फेफड़ों की संरचना में स्थायी बदलाव हो सकता है। एक अन्य अध्ययन में यह साबित हुआ कि ई-सिगरेट के वाष्प में एक्रोलिन नामक रसायन पाया जाता है, जो अस्थमा और फेफड़ों के कैंसर का कारण बनता है।

भारत सरकार ने सितंबर 2019 में ‘इलैक्ट्रॉनिक सिगरेट निषेध अधिनियम, 2019’ लागू किया था, जिसके तहत उत्पादन, आयात, बिक्री, भंडारण और विज्ञापन सभी को अपराध घोषित किया गया। पहली बार अपराध करने पर एक वर्ष की जेल या एक लाख रुपये तक जुर्माने का प्रावधान है जबकि बार-बार अपराध करने पर तीन वर्ष तक कारावास और पांच लाख रुपये तक का दंड तय किया गया। यह कानून अचानक नहीं आया था। इसके पीछे भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर), एम्स और टाटा रिसर्च सेंटर जैसे शीर्ष संस्थानों की चेतावनियां थी। 2019 में जारी आईसीएमआर के श्वेत पत्र में कहा गया था कि ई-सिगरेट स्वास्थ्य के लिए साधारण सिगरेट जितनी ही हानिकारक है और यह भ्रांति फैलाना कि ई-सिगरेट सुरक्षित विकल्प है, पूरी तरह झूठा और व्यावसायिक प्रचार का हिस्सा है।

ई-सिगरेट कंपनियों ने इसे धूम्रपान छोड़ने के साधन के रूप में पेश किया पर मेडिकल शोध यह बताते रहे हैं कि ई-सिगरेट धूम्रपान छुड़ाने में सहायक नहीं बल्कि नई लत का प्रवेश द्वार है। अमेरिकी स्कूलों में 10वीं से 12वीं कक्षा के छात्रों में ई-सिगरेट की लत 77 प्रतिशत तक बढ़ी। वे किशोर, जो कभी सिगरेट के करीब नहीं गए थे, उन्होंने भी ‘वेपिंग’ के नाम पर इसे अपनाना शुरू किया। भारत में भी यही प्रवृत्ति देखी गई। बबलगम, चॉकलेट, मिंट, कॉटन कैंडी इत्यादि अलग-अलग फ्लेवर के माध्यम से बच्चों और किशोरों को आकर्षित किया गया। यहां तक कि ‘कैंडी वेप पेन’ के नाम पर इसे खिलौनों की शक्ल में बाजार में उतारा गया। यह व्यापार नशे के नए ग्राहक बनाने का औजार बन गया। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2020 में अपनी रिपोर्ट में बताया कि ई-सिगरेट उद्योग दुनियाभर में तंबाकू विरोधी अभियान को कमजोर करने के लिए काम कर रहा है। डब्ल्यूएचओ ने स्पष्ट कहा कि ‘ई-सिगरेट पारंपरिक सिगरेट के समान हानिकारक है। इसमें निकोटीन के साथ कई कार्सिनोजेनिक (कैंसरकारक) तत्व होते हैं।’

ई-सिगरेट को ‘इलैक्ट्रॉनिक निकोटीन डिलीवरी सिस्टम्स’ कहा जाता है। इसमें निकोटीन-युक्त तरल घोल को गर्म करने पर उत्पन्न एरोसोल में सीसा, तांबा, सिलिकेट और कैडमियम जैसी भारी धातुएं पाई जाती हैं। ये कण सीधे श्वसन तंत्र और रक्त प्रवाह में प्रवेश कर मस्तिष्क तथा फेफड़ों को प्रभावित करते हैं। वैज्ञानिकों ने पाया है कि निकोटीन रक्तचाप को असामान्य रूप से बढ़ाता है, ब्लड क्लॉट की संभावना को दोगुना कर सकता है और हृदयाघात का खतरा 56 प्रतिशत तक बढ़ा देता है। ई-सिगरेट का अधिक सेवन करने वाले लोगों में इंसुलिन रेसिस्टेंस और मेटाबॉलिक सिंड्रोम जैसी नई समस्याएं सामने आई हैं। भारत के अलावा मालदीव, भूटान, नेपाल, ब्राजील, सिंगापुर, थाईलैंड, लेबनान, सीरिया, मॉरीशस, ऑस्ट्रेलिया इत्यादि लगभग तीन दर्जन देशों में ई-सिगरेट पर पूर्ण प्रतिबंध है। अमेरिका में इसे 18 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों तक सीमित रखा गया है लेकिन कई राज्यों में वहां भी प्रतिबंध लागू है। इन देशों ने सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा को प्राथमिकता देते हुए वेपिंग उद्योग के खिलाफ सख्त रुख अपनाया है।
अब प्रश्न है देश के प्रतिबंध के बाद भी हमारी संसद के भीतर ही ‘माननीयों’ द्वारा ई-सिगरेट का उपयोग करने की तो यदि संसद के भीतर ही कोई इसका उपयोग करता है तो यह न केवल कानून का उल्लंघन है बल्कि राष्ट्रीय नैतिकता पर भी चोट है। संसद वह स्थान है, जहां कानून बनते हैं, सामाजिक आचरण की मर्यादा तय होती है। यदि वहीं से कानून तोड़े जाएं तो इसका पूरे देश में क्या संदेश जाएगा? भारत की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा 18-30 वर्ष के बीच है। यही वर्ग ‘वेपिंग कल्चर’ के सबसे अधिक जोखिम में है। सोशल मीडिया और विज्ञापनों ने इसे ‘कूल’ और ‘सुरक्षित’ दिखाने की चाल चली लेकिन असल में यह फेफड़ों की बीमारी, हृदय समस्याओं और कैंसर जैसी बीमारियों की नई लहर का कारण बन सकती है। कैंसर रिसर्च कंसोर्टियम के विशेषज्ञ इसे भारत जैसे विकासशील देशों के लिए टाइम बम करार देते रहे है। उनका कहना है कि ई-सिगरेट निकोटीन निर्भरता का नया रूप है, जो लोगों को पारंपरिक तंबाकू से नहीं बचाता बल्कि एक अलग ‘इंस्ट्रूमेंटल नशे’ के जाल में फंसाता है। देशभर में कई स्थानों पर ई-सिगरेट अब भी अवैध रूप से बेची जाती हैं। ऑनलाइन प्लेटफॉर्म, विदेशी आयात और छोटे दुकानों में यह व्यापार जारी है। इसलिए केंद्र व राज्य सरकारों को इस कानून के पालन पर सख्त निगरानी करनी होगी। यदि संसद जैसी सर्वोच्च संस्था में ई-सिगरेट का प्रयोग हो सकता है तो सड़कों पर इसकी रोकथाम की उम्मीद कमजोर पड़ जाती है। इसलिए जरूरी है कि इस मुद्दे को केवल संसदीय मर्यादा का नहीं बल्कि जनविश्वास का भी मामला माना जाए।

ई-सिगरेट केवल एक इलैक्ट्रॉनिक उपकरण नहीं, उस सामाजिक प्रवृत्ति का उदाहरण है, जो आधुनिकता के भ्रम में स्वास्थ्य को गिरवी रख देती है। तकनीक मानव कल्याण के लिए बनी लेकिन जब तकनीक नशे के व्यापार से जुड़ती है तो वह विनाशकारी बन जाती है। निकोटीन चाहे धुएं के रूप में मिले या वाष्प के, उसका अंत एक ही है, नशे की निर्भरता, शारीरिक क्षति और मानसिक जकड़न। युवाओं को यह समझना होगा कि ‘वेपिंग’ केवल धूम्रपान का नया फैशन नहीं बल्कि स्वास्थ्य-ध्वंस का इलैक्ट्रॉनिक संस्करण है। ई-सिगरेट लत, भ्रम और बाजार, इन तीन स्तंभों पर टिकी एक कृत्रिम बीमारी है। इसे सुरक्षित विकल्प बताने वाले न केवल विज्ञान बल्कि समाज के स्वास्थ्य के साथ भी धोखा कर रहे हैं।

बहरहाल, 2019 में भारत ने जब ई-सिगरेट पर प्रतिबंध लगाया तो यह सिर्फ स्वास्थ्य नीति नहीं, भविष्य की पीढ़ियों की सुरक्षा का संकल्प था। लोकसभा में उठी नवीनतम घटना इस संकल्प की याद दिलाती है। यह आवश्यक है कि संसद स्वयं उदाहरण बने, न कि अपवाद क्योंकि जब नीति-निर्माता नियम तोड़ेंगे, तब कानून की विश्वसनीयता गिरती है और समाज का नैतिक संतुलन डगमगाने लगता है। इसलिए अब वक्त है कि ई-सिगरेट के खिलाफ सरकार के कठोर रुख को व्यवहार में दिखाया जाए। कृत्रिम नशे के इस रासायनिक इंतजाम से भारत को बचाना न केवल जरूरी है बल्कि यह आने वाली पीढ़ियों की सेहत के प्रति हमारी सामूहिक जिम्मेदारी भी है।