सुनील कुमार महला
युगों युगों से मिट्टी के बरतन(मृदभांड), मिट्टी की विभिन्न मूर्तियां(मृण मूर्तियां) न केवल विश्व की विभिन्न सभ्यताओं के बारे में जानने के केंद्र रहे हैं बल्कि ये हमारे संपूर्ण भारतवर्ष के इतिहास, हमारी सनातनी प्राचीन व अक्षुण्ण संस्कृति, हमारी सनातनी परंपराओं को जानने के भी बहुत ही महत्वपूर्ण अंग व साधन रहे हैं। मिट्टी के बरतनों ने देश-दुनिया पटल पर अपनी अनोखी, अद्भुत छाप छोड़ी है। वास्तव में, मिट्टी के बरतनों में भारतीय पारंपरिक विज्ञान छिपा है और यही कारण है कि युगों युगों से भारतीय संस्कृति में मिट्टी के बरतनों का उपयोग होता आया है। भारत का राजस्थान इस दृष्टि से (मिट्टी के बरतनों मृदभांड, मृणकला, टेराकोटा,पॉटरी इत्यादि के निर्माण व उनके गांव-घरों में उपयोग के मामलों में) कुछ अधिक समृद्ध व सम्पन्न रहा है। यदि हम यहां मिट्टी के बरतनों, पॉटरी, मृदभांड, मृणकला, टेराकोटा आदि के संदर्भ में बात करें तो राजस्थान में जैसलमेर जिले का पोकरण, मेवाड़(उदयपुर ) का मोलेला व गोगून्दा तथा ढूंढाड़(जयपुर) व मेवात स्थित हाड़ौता व रामगढ़ की मिट्टी की कला(मृण कला) की प्रसिद्धि देश में ही नहीं, अपितु विदेशों तक में फैली हुई है, जिनमें मिट्टी से बनी मूर्तियां ही नहीं अपितु मिट्टी के बरतन बहुत ही महत्वपूर्ण व अहम् स्थान रखते हैं। मेवाड़(उदयपुर व इसके समीप क्षेत्र) स्थित आहड़ सभ्यता, गिलूण्ड, बालाथल आदि के साथ ही हनुमानगढ़ का कालीबंगा पुरास्थल ऐसे स्थल रहे है जो पुरासम्पदा के रूप में माटी की कला, मोहरे, मृदभाण्ड(मिट्टी के बरतन) व मृणशिल्प आदि राज्य के पुरा कला वैभव की महता को रेखांकित करते रहे हैं। यहाँ मृणकला की बात मैं इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि मृणकला से ही हमारे घरों में प्राचीनकाल में इस्तेमाल किए जाने वाले मिट्टी के बरतन कहीं न कहीं जुड़े हुए हैं। वैसे मृणकला(मिट्टी से कलाकारी) को अंग्रेजी में ‘टेराकोटा आर्ट’ कहा जाता हैं। इतिहास के अध्ययन से यह जानकारी मिलती है कि नव पाषाण काल में कृषि व पशुपालन ने मानव को मिट्टी के बर्तन(मृदभांड) बनाने लिए प्रेरित व प्रोत्साहित किया। आज के युग में मृदभांडों(मिट्टी के बरतनों) की अपनी उपयोगिता व महत्व है। लेकिन बड़ी विडंबना की बात है कि जिन मृदभांडों से हमारी संस्कृति, हमारी सभ्यता की पहचान विश्व में रही है, आज हम इन मृदभांडों(मिट्टी के बरतनों) की उपयोगिता भुलाते चले जा रहे हैं। हमारी युवा पीढ़ी तो धातु युग में खुशी मना रही है, वह मिट्टी के बरतनों के चक्कर में नहीं फंसना चाहती है और न ही इनके महत्व व उपयोगिता को, इनसे होने वाले स्वास्थ्य लाभों से ही अवगत होना चाहती है। जानकारी देना चाहूंगा कि सम्भवतः नव पाषाण काल में खाद्य सामग्री की अधिकता के कारण मानव को उसे(खाद्य सामग्री) संग्रहित अथवा एकत्रित करने के लिए बर्तनों की जरूरत पड़ी होगी। वास्तव में , मानव की इसी जरूरत ने मिट्टी के बर्तन बनाने की कला को जन्म दिया था। विश्व की विभिन्न सभ्यताओं में मिट्टी के बरतन मिले हैं, जिन्हें इतिहास की भाषा में ‘मृदभांड'(मिट्टी के भांड या मिट्टी के बरतन/मर्तबान) कहा जाता है। जानकारी देना चाहूंगा कि पाषाणकाल के शुरूआती 3 कालों तक हमें मृद्भांड प्राप्त नहीं होते हैं। वास्तव में, मध्य पाषाण काल, नवपाषाणकाल और ताम्र पाषाण काल के दौरान मृद्भांडों का निर्माण किया जाता था। अधिकतर पुरातत्वस्थलों से इतनी बड़ी संख्या में मृद्भांड कैसे और क्यों मिलते हैं तो इसका सटीक व सही जवाब यह है कि मिट्टी के बर्तन मजबूती में धातु के बर्तनों से कमजोर होते हैं अतः वे बड़ी आसानी से टूट जाया करते थे, उनको टूटने के बाद प्राचीन लोग उन्हें अपने आस पास ही फेंक दिया करते थे जिसके कारण हमें इतनी बड़ी संख्या में मिट्टी के बर्तन मिल जाते हैं। मोहनजोदड़ो, नौसारों,हड़प्पा एवं चन्हूदड़ों से मृदु भांड निर्माण के भठ्ठे मिले हैं। हड़प्पीयन मृदमाण्डों पर क्रमशः त्रिभुज, वृत्त, वर्ग आदि ज्यामितीय आकृतियों, पीपल की पत्ति, खजूर, ताड़, केला, आदि वनस्पतियों, वृषभ, हिरण, बारहसिंघा, मोर, सारस, बतख आदि पशु-पक्षियों एवं मछली का चित्रण विशेष लोकप्रिय था। शवाधान से प्राप्त मृदभाण्डों पर सामान्यतः हाजा पक्षी (मोर) का अंकन हुआ है। हड़प्पा के मृदभाण्डों पर जाल के साथ मछुवारे का चित्रण एवं दूध पिलाती हिरणी का चित्रण, मोहनजोदड़ो के मृदभाण्ड पर कनखजूरे का अंकन तथा लोथल के मृदभाण्ड पर प्यासा कौआ और चालाक लोमड़ी की आकृति का अंकन किया गया है। कब्रिस्तान-H से प्राप्त बर्तन पर मृगया का चित्र है। इस पर शिकारी मृग का शिकार करते हुए तथा कुत्ते को हिरन का पीछा करते हुए दिखाया गया है। मोहनजोदड़ो के एक बर्तन पर नाव का चित्र खुदा है। लोथल के अन्य मृदभाण्ड पर बारहसिंहे को पेड़ के नीचे दर्शाया गया है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार दुनिया के अब तक की सबसे प्राचीनतम मृद्भांड के अवशेष चीन से प्राप्त हुए हैं जिनकी तिथि करीब 18,000 ईसा पूर्व बताई गई है। दूसरे शब्दों में यह बात कही जा सकती है कि मिट्टी के बर्तन, खाना पकाने और भोजन परोसने और पानी ढोने के लिए इस्तेमाल होने वाले मिट्टी के बर्तनों का निर्माण कम से कम 20,000 साल पहले चीन में किया गया था। मिट्टी के बर्तन , सजावटी कलाओं में सबसे पुराने और सबसे व्यापक माने जाते हैं। यहाँ जानकारी देना चाहूंगा कि भारतीय गांवों में मिट्टी के बर्तनों का इतिहास भारत की सबसे पुरानी सभ्यता सिंधु घाटी सभ्यता से मिलता है। यहाँ हस्तनिर्मित और पहिया-निर्मित दोंनो प्रकार के बरतन मिलते हैं।नवपाषाण काल के साथ ही मिट्टी के बरतनों में काफी सुधार देखने को मिला। चाक(जिस पर मिट्टी के बरतन बनाए जाते हैं) के आविष्कार/खोज के साथ ही मिट्टी के बरतनों के अनेक स्वरूप सामने आने लगे।वास्तव में मिट्टी के बरतनों को जिस स्थान पर बनाया जाता है उसे भी चाक(पॉटर) के नाम से जाना जाता है। पहले चाक को हाथ से घुमाकर मिट्टी के बरतन बनाये जाते थे और बाद में उन्हें आग में पकाया जाता था। आज चाक मशीनों की सहायता से घुमाये जाते हैं। मिट्टी के बरतन तेजी से बनने लगे हैं। जानकारी देना चाहूंगा कि चीन के अतिरिक्त भी विश्व के प्रत्येक हिस्सों में समय समय पर खुदाई के दौरान पुरातत्वविदों द्वारा मिट्टी से बने अनेक बर्तन या वस्तुएं प्राप्त की गयी हैं, और मिट्टी के बर्तनों का सबसे पुराना प्रमाण जापान में 10,000 ईसा पूर्व का है। मिट्टी के बरतनों के मामलों में चीन व जापान दोनों ही देशों का इतिहास काफी पुराना है। वैसे यह भी जानकारी मिलती है कि चीन के जियांग्शी प्रांत में जियानरेन्डोंग गुफा में भी मिट्टी के बरतन पाए गए हैं। भारत में प्राचीनतम मृद्भांड(मिट्टी के बरतन) के अवशेष लहुरदेवा से प्राप्त हुए जिसे की 7,000 ईसा पूर्व का माना जाता है। इस पुरास्थल की खुदाई डॉ राकेश तिवारी जी ने कराई थी। भारत में चाक पर मिट्टी के बर्तन मेहरगढ़ काल संख्या 2 से शुरू हुआ जिसका तिथि 5,500 ईसा पूर्व से लेकर 4,800 ईसा पूर्व है। सिन्धु सभ्यता के उदय के बाद मानो भारत में मृद्भांड(मिट्टी के बरतन) बनाने की परंपरा में एक क्रान्ति सी आ गई थी और यहाँ से अनेकों प्रकार के मिट्टी के बर्तनों(मृण पात्रों, मृदभांडों) आदि का विकास होना शुरू हुआ तथा इस काल में बर्तनों को रंगने तथा उन पर कलाकृतियाँ बनायी जानी शुरू हो सकी। मृद्भांड पर बनी कलाकृतियाँ प्राचीनकाल के समाज और संस्कृति पर प्रकाश डालने का कार्य करती हैं। जानकारी देना चाहूंगा कि मिट्टी के बर्तनों को एक कला का रूप बनाने का श्रेय यूनानियों को दिया जाता है। कुम्हारों(मिट्टी के बरतन बनाने वाले कारीगर) को शिल्पकारों की संज्ञा दी गई है। जानकारी मिलती है कि प्राचीन यूनानियों ने मिट्टी से अनेक प्रकार के बर्तन बनाए थे और भोजन पकाने या भंडारण आदि के लिए उस समय बड़े बर्तनों का उपयोग किया जाता था। लोगों के खाने-पीने के लिए छोटे कटोरे और प्याले बनाए जाते थे। यहाँ तक कि सजावट के लिए भी बर्तनों (फूलदान वगैरह) का बखूबी उपयोग किया जाता था। इसके अतिरिक्त, अंतिम संस्कार (जला) के बाद अस्थियों की राख तक को मिट्टी के बर्तनों में दबा दिया जाता था। भारत में आठ हजार ई.पू. बरतनों के इस्तेमाल किए जाने की जानकारी मिलती है। हड़प्पा सभ्यता के मिट्टी के बरतनों का रंग लाल/गेरूआ था।काली मिट्टी जो करिया मिट्टी और सफेद मिट्टी जो पौंड्रा मिट्टी कहलाती है ,बरतन बनाने के काम के लिए उपयुक्त मानी जाती हैं, लेकिन इसमें भी काली मिट्टी सबसे अच्छी व शक्तिशाली समझी जाती है,जिससे बरतन बनाये जा सकते हैं।यह भी जानकारी मिलती है कि मिट्टी के बर्तन, खाना पकाने, भोजन परोसने और पानी ढोने के लिए इस्तेमाल होने वाले मिट्टी के बरतनों का निर्माण कम से कम 20,000 साल पहले चीन में किया गया था। यह आश्चर्यजनक बात नहीं है कि प्रागैतिहासिक मानव ने मिट्टी के उपयोगी गुणों की खोज कर ली थी। जापान होंशू द्वीप से मिट्टी के प्राचीन बरतन मिलें हैं। भारतीय सभ्यता संस्कृति अपने आप में अनूठी रही है और यहाँ बहुत ही प्राचीन समय से ऋषि-मुनियों के समय से ही मिट्टी के बरतनों का उपयोग होता आया है। प्राचीन काल में और आज भी कहीं कहीं गांवों, ढ़ाणियों में मिट्टी के बर्तनों का बहुत ज्यादा प्रयोग किया जाता है इन बर्तनों में क्रमशः मटका या घड़ा, परात, तवा , सुराही, गुल्लक, हांडी ढकणी या ढाकणी, बिलौना(दूध बिलौने के लिए इस्तेमाल), दीपक, कुल्हड़, तावणी, कुंडा, कटोरा, पारी, सिकोरा(पक्षियों के पानी पीने के लिए) शामिल किए जा सकते हैं। आज राजस्थान के बहुत से गांवों में मिट्टी के जल पात्र यथा मांग्या, तपक्या, तौलडी, मटका-मटकी, माट, झाल, मूण, सुराही, लोटिया, घड़ा व घडिया आदि को चाक पर बनाकर अपनी परम्पराओं, सभ्यता-संस्कृति का निर्वाह कर रहे हैं। भोजन पकाने व परोसने के लिए हांडी, सांदकी, घामला, कडकल्ला, कूंडी, कूंडा, चामली, चापटी, धीलडी, कढ़ावणी, बिलोवणी, तवा, सकोरा, कुल्लड़, करवा, कूलडा, कूलडी, झावा, सिराई, करी तथा झोलवा आदि मृण पात्रों को बनाया जाता है। इतिहास के अध्ययन से पता चलता है कि वैदिक लोग 4 प्रकार के मिट्टी के बर्तनों से परिचित थे – काले और लाल बर्तन, काले-स्लिप्ड बर्तन, चित्रित ग्रे बर्तन और लाल बर्तन। हमारे देश के राज्य उत्तर प्रदेश के जिले बुलंदशहर जिले का खुर्जा देश में इस्तेमाल होने वाले चीनी मिट्टी के एक बड़े हिस्से की आपूर्ति करता है, इसलिए इसे कभी-कभी सिरेमिक सिटी भी कहा जाता है।यह मिट्टी के बरतनों के लिए बहुत ही प्रसिद्ध है। वैसे हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा जिले के गांव काले मिट्टी के बर्तनों के लिए विख्यात हैं और राजस्थान में जैसलमेर के पोखरण में नक्काशीदार सजावटी पैटर्न के साथ शैलीगत रूप हैं। राजस्थान के दौसा जिले के बसवा कस्बे के मिट्टी के बर्तन भी खास पहचान रखते हैं। राजस्थान के बीकानेर जिले के भी मिट्टी के बरतन काफी प्रसिद्ध हैं। राजस्थान के सवाईमाधोपुर में फूलडोल मेले के दौरान् मिट्टी के बरतने खरीदने की बरसों पुरानी परंपरा है। कहते हैं कि यहाँ 150 सालों सेगर्मी की शुरुआत से पहले आस-पास के गांव के लोग मिट्टी के बर्तन खरीदने आते है। राजस्थान के नागौर केचेनार गांव के कुम्हार मिट्टी के बर्तन व मूर्तियां बनाने और उन पर चित्रकारी के लिए प्रसिद्ध हैं। चेनार गांव में मिट्टी को सबसे पहले चक्की के माध्यम से पीसकर महीन बनाया जाता है। फिर उस मिट्टी को पानी में भिगोकर गेहूं के आटे की तरह गोंदा (गूंथा) जाता है और इसके बाद चाक के माध्यम से अलग-अलग प्रकार के बर्तन बनाए जाते हैं तथा विभिन्न प्रकार के बर्तन जैसे परात, गमले, देगची बनाई जाती है। राजस्थान के बूंदी जिले के ठिकरदा गांव में आज भी पुरानी संस्कृति जिंदा है। यहां पर करीब 500-1000 घर ऐसे हैं, जहां मिट्टी के बर्तनों को बनाने का काम किया जाता है। जानकारी देना चाहूंगा कि राजस्थान के बांसवाड़ा जिले के रतलाम मार्ग पर स्थित बोरतलाब गांव की पहचान मिट्टी के बर्तन बनाने के नाम से होती है। इस गांव में पिछले 40-45 साल से प्रजापत समाज के लोग मिट्टी के मटके व बर्तन बना रहे हैं। राजस्थान के जयपुर, बीकानेर, जैसलमेर, अलवर और सवाई माधोपुर मिट्टी के बरतनों के लिए प्रसिद्ध हैं।जयपुर से सटे चौमूं कस्बे के समीप बसा हाड़ौता गांव की कलागत पहचान माटी की कला के रूप में रही है तथा आज भी यहां पारम्परिक मृणपात्रों को बनाने की परम्परा के विकसित रूप को देखा जा सकता है। प्रमुख रूप से यहां पर घरेलू उपयोग में आने वाले माटी के बर्तन तो बनते ही हैं, बड़े आकार के मृद भाण्ड व सजावटी उपादानों के लिए भी हाड़ौता के मृण कलाकार प्रसिद्ध रहे हैं। कहावत भी हैं कि हाड़ौता में दो ही चीजे प्रसिद्ध हैं- ऊँट लड्डे तथा माटी के बरतन। जयपुर की ब्लू पॉटरी तो प्रसिद्ध है ही। गोगुन्दा के कुंभकार दैनिक जीवन में उपयोग में आने वाले मृण पात्रों के साथ ही कृषि कर्म, तीज-त्यौहार पर विशेष मृण पात्रों को बनाते हैं। यहाँ के आदिवासी समाज आज भी अपने दैनिक उपयोग के बर्तनों के रूप में गोगून्दा में बने माटी के पात्रों को खरीद कर ही परम्परा का निर्वाह कर रहे हैं। कुएं से जल निकालने का मृण पात्र ’’गेड’’ भी यहीं के कुंभकार बनाते हैं। मिट्टी के पात्रों में कुंजा, कुण्डी, परात, गिलास,खरल, कुलड़ी, सुराही, कुल्लड़(सिकोरा) व लोटे सम्मलित होते हैं। उत्तर प्रदेश के निजामाबाद जिले के गांव भी चांदी के पैटर्न वाली काली मिट्टी के बर्तनों के लिए काफी प्रसिद्ध हैं। इस प्रकार के मिट्टी के बर्तन आंध्र प्रदेश के बीदर के काम से मिलते जुलते हैं। मनुष्य के विकास से लेकर आज तक भी मिट्टी के बरतन किसी न किसी रूप में हमारे साथ रहे हैं लेकिन यह बात अलग है आज के समय में जब हम आधुनिकता के रंगों में लगभग लगभग रंग चुके हैं, मिट्टी के बरतनों का साथ हमने लगभग लगभग छोड़ सा ही दिया है। चाक के आविष्कार से पहले हाथ से मिट्टी के बरतन बनाये जाते थे। मिट्टी के बरतन हाथ से बनाकर उन्हें आग व धूप में सुखाया जाता था। आग व धूप में सुखाने से बरतन टिकाऊ व पक्के बनते थे। वास्तव में पहले के जमाने में मिट्टी के पिंडों को वांछित आकार की वस्तुओं में बनाकर उन्हें उच्च तापमान में पकाकर काम में लिया जाता था। आज के युग में मिट्टी के बरतनों में खाना बनाने का प्रचलन नहीं है, अथवा बहुत कम है, क्यों कि हम आधुनिकता की आड़ में मिट्टी के बरतनों की उपयोगिता, इनके विशेष फायदों को पूरी तरह से भुला चुके हैं और इन बरतनों में खाना बनाना हमें झंझट सा लगने लगा है, क्यों कि एक तो ये आसानी से आज के जमाने में उपलब्ध नहीं हो पाते हैं, जैसा कि पहले की तुलना में मिट्टी का अभाव(कंक्रीट के जंगलों के कारण),कारीगरों का अभाव हो गया है। मिट्टी के बरतनों को बनाने में परिश्रम भी बहुत लगता है और इन्हें धातु के बरतनों की तुलना में अधिक संभाल कर भी रखना पड़ता है, क्योंकि ये नाजुक होते हैं और टूट सकते हैं।आज का युग धातुओं का युग है। इसलिए घरों में भी हम सभी अधिकतर धातुओं से बने बरतनों का ही उपयोग करते हैं। सच तो यह है कि आधुनिकता की चकाचौंध में और पाश्चात्य संस्कृति के रंग में रंगकर हम मिट्टी के बरतनों को लगभग लगभग बिसरा चुके हैं। आज घरों से मिट्टी के बरतन नदारद हैं और धातु के बरतनों का भंडार है। मसलन स्टील, एल्युमिनियम, तांबा, पीतल, कांसा,चांदी,लोहा आदि धातुओं के बरतन ही आज हमारे रसोईघरों में दिखते हैं। इनमें भी ज्यादातर हम स्टील, पीतल, तांबे,लोहे और एल्युमिनियम का ही उपयोग अधिक करते हैं। कांसे के बरतन,तांबे व पीतल,चांदी व लोहे जैसी धातुओं के बरतन भी कम ही घरों में आजकल दिखते हैं। हमारे घरों में एल्युमिनियम का उपयोग लगातार बढ़ रहा है, क्योंकि प्रेशर कुकर ज्यादातर इसी धातु के बने होते हैं और एल्युमिनियम धातु को स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं माना जाता है। विशेषज्ञों का मानना है कि एल्युमीनियम के बर्तन भोजन के 80 प्रतिशत से ज्यादा पोषक तत्व समाप्त कर देते हैं। वैसे, बरतनों में चांदी, लोहा,पीतल, स्टील, कांसा सबसे अच्छे माने जाते हैं, इनमें भी कांसा और चांदी सबसे अच्छे होते हैं। कांसे के बरतन तो अब गांव घरों में ही पाये जाते हैं और युवा पीढ़ी तो इस धातु के बारे में ठीक तरह से जानती भी नहीं है। यदि हम यहाँ कांसा धातु की बात करें तो काँसा (संस्कृत कांस्य) संस्कृत कोशों के अनुसार श्वेत ताँबे अथवा घंटा बनाने की धातु को कहते हैं। विशुद्ध ताँबा लाल होता है; उसमें राँगा मिलाने से सफेदी आती है। इसलिए ताँबे और राँगे की मिश्रधातु को काँसा या कांस्य कहते हैं। इन सभी धातुओं के बीच आज हमारे घरों के रसोईघरों से जो चीज नदारद हो गई है, वह है मिट्टी से बने बरतन। हमारी सनातन भारतीय संस्कृति हमेशा से महान थी और रहेगी भी, जहाँ ऋषि मुनियों ने जीवन जीने के उत्तम तरीके बताये थे जिससे ना केवल हमारी आयु बढ़ती थी, बल्कि हम हमेशा के लिए शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ भी रहते थे। उसी में से एक था हमेशा मिट्टी के बने बर्तनों में भोजन बनाना। किंतु समय के साथ-साथ हमारे ऊपर पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव बढ़ता गया व आजकल लगभग हर घर में एल्युमीनियम के बर्तनों में खाना बनाया व खाया जाने लगा हैं जो हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत अधिक हानिकारक हैं। आज घरों में धातुओं के बरतन के अधिक इस्तेमाल के कारणों में यह भी एक प्रमुख कारण है कि धातु से बने बर्तनों के टूटने का खतरा भी नही होता हैं जबकि मिट्टी के बर्तन गिरते ही टूट जाते हैं।कुछ लोग इसे अपनी ख्याति से भी जोड़कर देखते हैं और सोचते हैं कि मिट्टी के बर्तनों में खाना पकाना निर्धन लोगों का कार्य हैं और यह कहीं न कहीं उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा से जुड़ जाता है। एक कारण यह भी है कि आज बड़ी बड़ी नेशनल व मल्टीनेशनल कंपनियों के द्वारा जो बर्तन बनाये जाते हैं वही बर्तन सभी को दुकानों, शॉपिंग माल्स, ऑनलाइन वेबसाइट पर आसानी से मिल जाते हैं व साथ ही उनमें कई तरह के डिजाईन भी मिलते जिस कारण लोग उन्हीं को खरीदने में अपनी रूचि दिखाते हैं।आज कोई अपने घर में मिट्टी से बने बरतन रखता है तो उसे पिछड़ा हुआ समझा जाता है लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि मिट्टी के बरतन स्वास्थ्य की दृष्टि से सबसे अच्छे व बेहतरीन माने जाते हैं। आज भी बहुत से गांवों में दूध-दाल,सब्जी-भात,रोटी,चूरमा बनाने के लिए मिट्टी के बरतनों का उपयोग किया जाता है। पानी पीने के मटके तो आपको प्राचीन प्याऊं में मिल जायेंगे। मिट्टी के बरतनों में पका खाना सेहत के लिए वरदान है। आज बड़े बड़े शहरों में लोग मिट्टी के बरतनों का खाना खाने के लिए विभिन्न रेस्टोरेंट, ढ़ाबों,होटलों में जाते हैं। आप देखिए कि आज तमाम बड़े बड़े तीन- पांच और सात सितारा होटलों में मिट्टी के बर्तनों में पका खाना बहुत स्पेशल माना जाता है। इसके लिए चार्जेज भी स्पेशल होते हैं। आज संसाधनों के अभाव में हम ऐसा करते हैं, गांवों में भी अब मिट्टी नहीं रही,आधुनिकता के चलते कुम्हार भी अब मिट्टी के बरतनों में कम ही रूचि दिखाते हैं, क्योंकि धातुएं आ गई हैं और कोई इन्हें खरीदता भी नहीं है। हमारे पास समय का भी अभाव है, लेकिन आज मिट्टी के बर्तन में बना खाना संसाधनों की कमी का नहीं बल्कि सम्पन्नता का प्रतीक है। आज शहरों में कामकाजी महिलाओं के पास खाना बनाने के लिए अधिकतम एक घंटे का समय होता है, उसी में उन्हें कई कई किस्म का खाना बनाना होता हैं बल्कि साथ ही साथ सबके टिफिन पैक करने होते हैं और भागमभाग में यह भी ध्यान रखना होता है कि खाने ऐसे न हों जिसे खाते समय अतिरिक्त सावधानी बरतने की जरूरत पड़े। इसलिए आज जब खाना बनता है, उसमें स्वाद के साथ साथ समय और कहीं भी किसी भी तरह की स्थितियों में उसे खा लेने की सहूलियत शामिल होती है। मिट्टी के बर्तनों में खाना बनाने के लिए बहुत ज्यादा समय चाहिए। कई गुना ज्यादा एनर्जी चाहिए और इस खाने का लुत्फ उठाने के लिए बहुत ज्यादा समय चाहिए, जो कि इस भागदौड़ व धूप भरी जिंदगी में शायद किसी के पास नहीं है। आपने महसूस किया होगा कि पहले लोग गांवों में बड़े चाव से मिट्टी के बरतनों में बना खाना खाते थे और कम बीमार पड़ते थे और सौ-सौ साल तक जीते थे, लेकिन आज ऐसा क्या हो गया है कि आदमी जल्दी जल्दी बीमार पड़ रहा है और पैंसठ-सत्तर की उम्र भी बमुश्किल पकड़ रहा है। आज प्राकृतिक चिकित्सक मिट्टी के बरतनों में खाना खाने के लिए हम सभी को सलाह देते हैं तो उसका प्रमुख कारण यह है कि मिट्टी के बरतनों में पकाये जाने वाला खाना विभिन्न औषधीय तत्वों से सरोबार रहता है, उसके पोषण तत्व हमेशा बने रहते हैं और वे जल्दी नष्ट नहीं होते। मिट्टी के बरतनों में बने खाने में भरपूर आयरन,फास्फोरस, कैल्शियम और मैग्नीशियम मौजूद होते हैं जो हमारे स्वास्थ्य को हमेशा अच्छा रखने में अपनी भूमिका निभाते हैं। मिट्टी के बरतनों में छोटे छोटे असंख्य छिद्र होते हैं, जिससे उनमें पकने वाले भोजन को आग और नमी हर तरफ़ से बराबर मिलती रहती है। अधिक तेल व वसा को मिट्टी के बरतन कुछ हद तक सोख लेते हैं। याद रखिए कि मिट्टी के बरतनों में खाना पकता है, गलता नहीं है। हमारे शरीर को 18 प्रकार के सूक्ष्म पोषक तत्व चाहिए होते हैं जो मिट्टी के बर्तनों से नष्ट नहीं होते हैं। साथ ही मिट्टी में किसी भी प्रकार का रसायन या अन्य हानिकारण तत्व भी नहीं मिला होता है जिससे भोजन हमेशा ताजा व उत्तम ही रहता है। अन्य बर्तनों की अपेक्षा मिट्टी के बर्तन में खाना जल्दी से ठंडा नही होता क्योंकि मिट्टी अधिक समय तक गर्म रहती हैं व अंदर का तापमान भी जल्दी से नीचे नहीं गिरता। इसलिए मिट्टी के बर्तनों में पके खाने को फिर से गर्म करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। भोजन को जब हम फिर से गर्म करते हैं तो उसके ज्यादातर पोषक तत्व खत्म हो जाते हैं जो मिट्टी के बर्तन में नहीं होता।मिट्टी के बर्तन की यह भी सबसे बड़ी उपलब्धि है कि ये हमारे भोजन को स्वास्थ्यवर्धक बनाने के साथ-साथ उसे हमारे लिए स्वादिष्ट व सुगंधित भी बनाते हैं। वास्तव में सेहत को अच्छा व दुरस्त बनाने के लिए मिट्टी के बरतनों में खाना बनाना अच्छा ही नहीं अपितु सर्वोत्तम माना जाता है। लोहे के बरतनों में भोजन पकाना स्वास्थ्य के लिहाज से अच्छा है,पीतल के बरतन में भोजन पकाने से हमारे शरीर को कई प्रकार के पोषक तत्व मिलते हैं, कांसे के भी अनेक लाभ है और स्टील भी ठीक है लेकिन खाना पकाने के लिहाज से एल्यूमीनियम धातु के बरतनों को सबसे खराब माना जाता है। आज हमारे ज्यादातर घरों में इस धातु के बर्तन मिल जाते हैं। एल्यूमिनियम बॉक्साइट का बना होता है, इसमें बने खाने से शरीर को सिर्फ नुकसान होता है। आयुर्वेद के अनुसार यह आयरन और कैल्शियम को सोखता है, इसलिए इससे बने पात्रों का उपयोग नहीं करना चाहिए। ब्रास,नॉनस्टिक, एल्युमिनियम व स्टील ने आज हमारे रसोईघरों में अपना सिक्का जमा लिया है लेकिन अब फिर से बदलते दौर में मिट्टी के बर्तनों का चलन वापिस ट्रेंड में आ रहा है। इन दिनों बाजार में मिट्टी से बने कुल्हड़ में चाय, पिज्जा, लस्सी, जूस आदि का जायका खूब लिया जा रहा है। हम हमारी सनातनी सभ्यता-संस्कृति की ताकत को पुनः पहचान रहे हैं। अंत में यही कहूंगा कि -‘देश की मिट्टी से गहरा रिश्ता रखते हैं। हम भारतीय है। ये गर्व से कहते हैं, हम सनातनी संस्कृति, संस्कारों और परंपराओं में बहते हैं।’
(आर्टिकल का उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है।)