सुनील कुमार महला
ईंट भट्ठा मालिक था-‘सेठ दुर्गा प्रसाद’। हमेशा सफेद कुर्ता पायजामा पहनने वाला दुर्गा प्रसाद करीबन पिचहतर साल का रहा होगा। समय के साथ चेहरे पर झुर्रियां जरूर पड़ गई थीं, लेकिन था एकदम गोरा- चिट्टा, हष्ट-पुष्ट और बहुत पैसे वाला आदमी था दुर्गा प्रसाद, लेकिन कंजूस मक्खीचूस। अंतर्मुखी व्यक्तित्व वाला और दूसरों से कोई भी मतलब व सरोकार नहीं रखने वाला दुर्गा प्रसाद नेकनीयत इंसान नहीं था। उसे सिर्फ और सिर्फ धन या पैसा कमाने से ही मतलब था, अपने मतलब को निकालने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकता था। सच तो यह है कि इंसानियत नाम की कोई चीज़ नहीं थी उसमें। बेईमान, स्वार्थी व लालची दुर्गा प्रसाद ने बेईमानी, स्वार्थ व लालच से इतना धन व इतनी संपत्ति खड़ी कर दी थी कि उसकी सात पुश्तें भी रोजाना बेपनाह खर्च करें तो भी वह किसी हाल और सूरत में कम नहीं पड़ने वाली थी। उसके पुरखे भी ईंट भट्ठे चलाया करते थे, लेकिन उनके स्वभाव और दुर्गा प्रसाद के स्वभाव में रात-दिन का अंतर था। एक तरह से पुश्तैनी काम था ईंट भट्ठे का उनका, लेकिन दुर्गा प्रसाद के पिताजी सेठ घनश्याम दास एक नेक दिल , ईमानदार व कर्मठ आदमी थे। सेठ घनश्याम दास अपने बेटे दुर्गा प्रसाद को अक्सर कहा करते थे कि-‘ बेटा ईंट भट्ठे का काम अपना पुश्तैनी काम रहा है लेकिन तुम कभी भी ईंट भट्ठे का काम चलाते समय किसी गरीब, अनपढ़, आदिवासी और आर्थिक रूप से कमजोर आदमी का हक व मजदूरी कभी भी नहीं मारना, किसी का दिल कभी भी मत दुखाना, क्यों कि किसी को दुःखी करके, किसी को सताकर कोई भी कभी खुश नहीं रह सकता है।
इसलिए सबके साथ हमेशा अच्छा व नेक व्यवहार करना। भट्ठा मजदूरों को समय पर उनकी मजदूरी देना, उन्हें समय पर छुट्टी भी देना, शादी-ब्याह व किसी मुसीबत के वक्त उनकी आर्थिक सहायता भी करना और अपने साथ अपने परिवार व दूसरों का भी मान-सम्मान सदैव बनाए रखना। आखिर हम सभी को एक दिन उस परम पिता परमेश्वर को अपने प्राण देने हैं।’ लेकिन दुर्गा प्रसाद ने अपने पिताजी की एक न सुनी और उनकी मृत्यु के बाद दुर्गा प्रसाद गरीबों के लिए जैसे ‘यम’ बन गया था। वह गरीबों, अनपढ़, आदिवासी, आर्थिक रूप से कमजोर लोगों का, अपने ईंट भट्ठे पर काम करवाकर जमकर उनका खून चूसता। यहां तक कि भट्ठे पर काम करने वाले मजदूरों के साथ बंधुआ मजदूरों जैसा व्यवहार करता। न उनकी मजदूरी का हिसाब-किताब समय पर व ठीक तरह से करता और न ही महीनों-महीनों तक उनको अपने घर ही जाने दिया करता। थोड़ा-बहुत भुगतान मजदूरी का करता भी तो सीजन के अंत में ही करता था। यहां तक कि मजदूरों के राशन तक के पैसे भी वह काट लिया करता था और इस तरह से गरीबों के खून-पसीने को मिट्टी में मिलाते हुए, उनका खून चूस-चूस कर वह लगातार धनवान बनता चला गया था। ठेकेदार रामप्रसाद इस काम में दुर्गा प्रसाद की सहायता करता था और ठेकेदार रामप्रसाद एक तरह से दुर्गा प्रसाद का बांया हाथ था। वह हर साल गांवों में जाता और वहां से कई अनपढ़, गरीब मजदूरों को बहला-फुसला कर कम मजदूरी में ही भट्ठे पर सालों -साल उनसे काम करवाता। ईंट भट्ठे चलाने का सीजन आने वाला था, इसलिए दुर्गा प्रसाद ने पहले से ही इसकी सारी तैयारियां कर ली थीं। दुर्गा प्रसाद ने ईंट भट्ठे के सीजन के मद्देनजर एक दिन ठेकेदार रामप्रसाद को अपने घर पर बुलाया और कहा -‘ रामप्रसाद जल्द ही हम अपने ईंट भट्ठे को शुरू करने जा रहे हैं। तुम पिछली बार की तरह इस बार भी बिहार के उस गांव में जाओ, जहां से तुम पिछली बार भारी संख्या में भट्ठे पर काम करने के लिए मजदूर लेकर आए थे। इस बार भी तुम मजदूरों को मजदूरी करने के लिए सस्ते में जुटा लाए, तो तुम्हें मैं पिछली बार की तरह शानदार ईनाम दूंगा।’ रामप्रसाद ने हामी भरी और वह मजदूरों को लेने बिहार के उस गांव में पिछली बार की तरह आ धमका। वह गांव से 20-25 मजदूरों को दस-दस हजार रुपए एडवांस देकर भट्ठे पर काम करने के लिए ले जाने लगा। इन मजदूरों के परिवार की आर्थिक हालत बहुत खराब थी, इतनी खराब कि दो जून की रोटियां जुटाना भी इनके लिए बहुत मुश्किल हो रहा था। ये सभी मजदूर रामप्रसाद के साथ जाने के लिए तैयार हो गये थे। उस दिन अंधेरा हो गया था, इसलिए रामप्रसाद को बिहार के गांव में ही रात को रूकना पड़ा। अब उन्हें अगले दिन शहर में जाना था। इसलिए शाम के वक्त रामप्रसाद इन मजदूरों को गांव से इकट्ठा करके उनसे संवाद कर रहा था -‘ आप सभी ईंट भट्ठे पर काम करने के लिए मेरे साथ चलिए। आज अंधेरा हो चुका है, इसलिए कल हम सभी शहर चलेंगे। देखिए, सेठ दुर्गा प्रसाद जिनके यहां तुम सभी काम करने जा रहे हो, वह एक बहुत ही नेकदिल व ईमानदार इंसान हैं। अन्य ईंट भट्टा मालिकों की तरह तुमसे पूरे सीजन भट्ठे पर काम नहीं करवाया जाएगा। दिहाड़ी मजदूरी भी पूरी मिलेगी।
घर पर कुछ काम पड़ने पर समय पर छुट्टी भी दी जाएगी। मजदूरी का हिसाब-किताब भी एकदम समय पर होगा-महीने के महीने। इतना ही नहीं अन्य ईंट भट्ठा मालिकों की तरह तुम्हें अपना राशन-पानी भी निर्धारित दुकान से खरीदने की जरूरत नहीं है। आपको जहां से अच्छा लगे, आप राशन-पानी खरीद सकते हैं, तुम पर कोई बंदिश नहीं होगी। तुम्हें भट्ठे पर काम करना पसंद नहीं आए तो बीच सीजन में ही दूसरे भट्ठे पर, जहां तुम्हें लगता है कि यहां से अच्छी आमदनी/मजदूरी हो सकती हैं, बेफिक्र जा सकते हैं, मजदूरी भी पूरी और अच्छी मिलेगी। श्रम कानूनों के मुताबिक तुम्हें मजदूरी दी जाएगी। तुम्हें भट्ठे पर वास्तविक आजादी होगी। रहने के लिए तुम्हें केवल कच्ची ईंटों का छोटा कमरा ही नहीं मिलेगा, रहने की अच्छी व्यवस्थाएं होंगी।
महिलाओं के लिए शौचालय और नहाने की सभी सुविधाएं होंगी। खुले में शौच के लिए नहीं जाना पड़ेगा। ईंट भट्ठे पर काम का समय भी निर्धारित होगा। जिस तरह से तुम्हें मैंने शुरूआत में पेशगी दी है, मजदूरी के अतिरिक्त खाना खर्चा भी तुम्हें मिलेगा। मैं पेशगी देकर तुम सभी को ईंट भट्ठे के काम के लिए बांध नहीं रहा हूं, बल्कि मैं तो तुम्हें यकीं दिला रहा हूं कि हमारे मालिक दुर्गा प्रसाद कितने अच्छे और नेकदिल इंसान हैं।’ रामप्रसाद जब इन मजदूरों को जैसे-तैसे ईंट भट्ठे पर ले जाने के लिए उन्हें ललचा रहा था/ चिकनी-चुपड़ी बातें सुनाकर उन्हें लगातार प्रलोभन दे रहा था तो उसी समय उनमें से एक मजदूर सुदेश का बेटा जिसका नाम साहिल था, ठेकेदार रामप्रसाद की बातें बड़े ही ध्यान से सुन रहा था। साहिल गांव के सरकारी स्कूल में ग्यारहवीं कक्षा का छात्र था, जो पढ़ने में बहुत होशियार था। सुदेश खुद तो पढ़-लिख नहीं सका था लेकिन उसे पढ़ाई-लिखाई की वैल्यू पता थी, इसलिए उसने साहिल को जैसे-तैसे करके गांव के सरकारी स्कूल में दाखिला दिलवा दिया था। सुदेश के बेटे साहिल को ईंट भट्ठे पर काम करने वाले मजदूरों की वस्तु-स्थिति के बारे में पता था, क्यों कि उसके अध्यापक रामबीर ने एक दिन कक्षा में बच्चों को यह पढ़ाया था कि -‘देश की आजादी को लगभग सात दशक बीत चुके हैं और ईंट भट्टा मजदूर आज भी गुलामी का जीवन जीने को मजबूर हैं। सरकार मजदूरों के लिए श्रम कानूनों को तो लेकर आई है लेकिन ईंट भट्ठे के मालिक इन श्रम कानूनों की सरेआम धज्जियां उड़ाते हैं। आज भी मजदूरों को अपनी इच्छा से काम करने की ठीक से आजादी नहीं है। आज भी मजदूरों को बहुत सी योजनाओं का पूर्ण लाभ तक नहीं मिलता है। प्रवासी मजदूरों का ईंट भट्टा मालिकों द्वारा घोर शोषण किया जाता है। ठेकेदार मजदूरों को अच्छी तनख्वाह, सुविधाओं का लालच देकर उन्हें अपने यहां ले जाते हैं, लेकिन न तो मजदूरों को अपनी मजदूरी के बारे में यह पता होता है कि उन्हें कितनी मजदूरी मिलेगी और कब मिलेगी। भट्ठों पर काम करने का कोई हाजरी रजिस्टर, काम व मजदूरी का हिसाब संबंधी कोई भी दस्तावेज तक भी नहीं होता है। बुनियादी सुविधाओं की तो बात ही छोड़िए, कुछ भी नहीं मिलता है। इतना ही नहीं,मजदूर वोट देने के अपने संवैधानिक अधिकार से भी ज्यादातर बार वंचित ही रहते हैं, क्योंकि यह मजदूर अक्सर बाहर के राज्यों में ही काम करते हैं। ऐसे में जब चुनाव होते हैं तब मतदान के समय भट्ठे मालिक इन मजदूरों को घर नहीं जाने देता है ताकि उसके काम का किसी प्रकार से नुकसान न हो। मजदूरों के रहने ठहरने की भी माकूल व्यवस्थाएं भी ईंट भट्ठों पर अक्सर नहीं होतीं हैं। मजदूर बदहाली का जीवन जीते हैं। हमें ऐसे ठेकेदारों के बहकावे में आने से बचना चाहिए और अपने हक-हकूक के लिए काम करना चाहिए।’ ठेकेदार रामप्रसाद और मजदूरों के बीच आपसी संवाद खत्म होते ही मजदूर सुदेश का बेटा साहिल उस स्थान पर आया और उसने ठेकेदार रामप्रसाद से कहा-‘ रामप्रसाद जी, आप मेरे पिताजी व गांव के मजदूरों को बेवकूफ न बनाइए। ये सभी अनपढ़, आदिवासी, गरीब हैं, आपके बहकावे में आ गए हैं लेकिन मुझे आप जैसे ठेकेदारों की सारी असलियत के बारे में बखूबी पता है, क्यों कि हमारे टीचर ने हमें एक दिन क्लास में इस बारे में पढ़ाया था कि किस प्रकार से तुम्हारे जैसे ठेकेदार गरीब लोगों को एडवांस पेशगी का लालच देकर गांव से मजदूरी करने सस्ते में ले जाते हैं और उनका जमकर शोषण करते हैं। मैं अपने पिताजी को तुम्हारी इस गर्त में कतई नहीं फंसने दूंगा।’
रामप्रसाद उसकी(साहिल) की बातें सुनकर अचंभित हो गया। पास खड़े सभी मजदूर भी सुदेश के बेटे साहिल की बातें बड़े ही ध्यान से सुन रहे थे। वे साहिल के पढ़ा-लिखा होने की आपस में भूरी-भूरी तारीफ भी कर रहे थे। साहिल के कारण मजदूर अपने हक-हकूक के बारे में अच्छी तरह से जान चुके थे कि उनके जीवन के लिए पढ़ना लिखना आखिर क्यों इतना महत्वपूर्ण है। उन्हें इस बात का अच्छी तरह से भान हो गया था कि शिक्षा ही व्यक्ति को ज्ञान, कौशल और समझ प्रदान करती है। यह हमें अपने आसपास की दुनिया को समझने और उसमें सफल होने में मदद करती है। शिक्षा ही वह माध्यम है जो दुनियादारी के विभिन्न विषयों और मुद्दों के बारे में जानने में हमारी बहुत मदद करती है। सारे मजदूर आज सुदेश के बेटे साहिल के कारण यह जान चुके थे कि ‘शिक्षा एक अनमोल रत्न है।’ मजदूर यह भी जान चुके थे कि शिक्षा व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक विकास, भावनात्मक समझ, समाजसेवा की भावना, व्यक्तिगत उत्थान और आर्थिक स्वावलंबन का मार्ग भी तय करती है। इसके बाद मजदूरों ने सारी वस्तुस्थिति समझते हुए रामप्रसाद के साथ शहर में भट्ठे पर काम करने के लिए जाने से पूर्णतया मना कर दिया और सभी ने एडवांस पेशगी भी रामप्रसाद को वापस लौटा दी।ठेकेदार रामप्रसाद मजदूरों के मुंह से भट्ठे पर काम करने न जाने की बात सुनकर व पेशगी वापस लौटाए जाने पर अगले दिन सुबह ही अपना-सा मुंह लेकर गांव से शहर सेठ दुर्गादास के पास उल्टे पैर दौड़ गया।