स्त्रियों का भावनात्मक पतन : हिंसा की ओर झुकती नारी

Emotional degradation of women: Women leaning towards violence

मनीषा मंजरी

भारत भूमि स्त्रियों के उस रूप को सदा से वर्णित करती आयी है, जो करुणा, सहिष्णुता और भावनात्मक शक्ति का प्रतीक रही है। भारतीय स्त्रियां जो रिश्तों को सींचती हैं, घर को जोड़ती हैं, और अपने प्रेम, त्याग व ममता से समाज की नींव को मजबूत बनाती हैं। परन्तु हाल के वर्षों में, अखबारों और न्यूज़ चैनलों में स्त्रियों द्वारा अपने पति या प्रेमी अथवा अन्य रिश्तों की नृशंस हत्या की खबरे जिस गति से बढ़ रही है यह एक चौकाने वाला और अस्वाभाविक सामाजिक बदलाव है।

क्या हो गया है स्त्री मन को?

यह तथ्य मात्र अपराधिक नहीं है, अपितु यह मनोविज्ञान, सामाजिक दबाव, प्रेम में घात और आत्मसम्मान से सम्बंधित है। जब कभी भी स्त्री अपने अंतर्मन में ठगी जाती हैं, बार-बार होने वाले भावनात्मक शोषण का शिकार बनती हैं, या जब कभी भी उसे अपने अस्तित्व का मूल्य खोता हुआ प्रतीत होता है, तो उनकी निःशब्दिता में एक मौन आक्रोश का जन्म होता है। यह आक्रोश अधिकतम स्तर पर आत्महत्या में बदलता है, और न्यूनतम में हिंसक प्रवृति जागृत होती है।

बदलते रिश्ते और संवेदनाएं

बदलते समय के साथ रिश्तों की परिभाषाएं भी बदल चुकी है। प्रेम जो कभी त्याग और समर्पण का प्रतीक हुआ करता था, अब उसकी छवि में अधिकार, अपेक्षा और असंतोष का ग्रहण लग चूका है। ईधर स्त्रियां भी अब सहने की भूमिका में नहीं रही, क्यूंकि विकास और बौद्धिकता के स्तर पर उन्होंने भी नए आसमान को छुआ है। अब वो बोलना चाहती हैं, जीना चाहती हैं, सिर्फ औरों के लिए नहीं बल्कि स्वयं के लिए भी, वो सम्मान के साथ संबंधों में बंधना चाहती हैं, जहां सिर्फ अधिकार की तलवार नहीं बल्कि समझ की जमीन भी मिले। परन्तु जब यह स्थान छिनता प्रतीत होता है, और उसका स्थान धोखा, हिंसा या उपेक्षा ले लेती है, तो कई बार यह स्त्री भावनात्मक रूप से विखंडित हो जाती है।

जहां कुछ स्त्रियां इसे आत्म सुधार में परिवर्तित कर देती हैं वहीँ कुछ का दर्द आक्रोश बनकर फूटता है, जो अपराध का रूप ले लेता है। यह एक सामान्य प्रवृति नहीं बल्कि एक मानसिक और सामाजिक त्रासदी है।

मानसिक स्वास्थ्य और भावनात्मक उपेक्षा

भारत में मानसिक स्वास्थ्य को आज भी गंभीरता से नहीं लिया जाता, विशेषकर महिलाओं के संदर्भ में। एक स्त्री जो दिनभर घर या ऑफिस के कार्यों में लगी रहती है, अगर भावनात्मक रूप से उपेक्षित होती है, या बार-बार अपमानित होती है, तो वह एक ‘इमोशनल डेड ज़ोन’ में प्रवेश कर जाती है। वहाँ उसकी संवेदनाएँ शून्य हो जाती हैं, और वह निर्णय भी उसी शून्य भावनात्मक स्थिति में लेती है।

कई स्त्रियों को अपने जीवनसाथी से भावनात्मक हिंसा झेलनी पड़ती है, बात-बात पर तिरस्कार, उपेक्षा, मानसिक दबाव, और कभी-कभी शारीरिक उत्पीड़न भी। इन सबका मानसिक असर धीरे-धीरे उसे इस कगार तक पहुँचा देता है जहाँ वह अपनी पीड़ा का समाधान कानून या न्याय में नहीं, प्रतिशोध में ढूंढने लगती है।

मीडिया और वेब सीरीज का प्रभाव

आज का डिजिटल युग स्त्रियों के सामने ऐसे कंटेंट प्रस्तुत कर रहा है जहाँ प्रतिशोध, चालाकी और हिंसा को ‘एम्पॉवरमेंट’ के रूप में दिखाया जा रहा है। कुछ वेब सीरीज और सस्ते उपन्यासों में ‘स्ट्रांग वूमेन’ का मतलब यह बताया जा रहा है कि वह धोखा दे, बदला ले, और निर्दय बन जाए। यह गलत दिशा है। स्त्री को मजबूत दिखाने के लिए उसे हिंसक बनाना आवश्यक नहीं। उसकी शक्ति उसकी सहनशक्ति, उसकी बुद्धिमत्ता और उसकी करुणा में है। मीडिया को यह समझना होगा कि वे किस प्रकार की मानसिकता को बढ़ावा दे रहे हैं।

सामाजिक संरचना में भूमिका

हमारे समाज में अभी भी स्त्रियों को पूरी तरह आत्मनिर्भर नहीं समझा जाता। वे चाहे कितनी भी योग्य हों, उनका मूल्य अक्सर उनके वैवाहिक जीवन और पारिवारिक संबंधों से जोड़ा जाता है। अगर शादी में समस्या है, तो उसे दोषी ठहराया जाता है। अगर प्रेम में असफलता है, तो उसकी नीयत पर सवाल उठाए जाते हैं। जब तक हम स्त्रियों को एक स्वतंत्र, सोचने-समझने वाली, और निर्णय लेने वाली इकाई के रूप में नहीं स्वीकारेंगे, तब तक वे अपनी भावनात्मक असुरक्षाओं से लड़ने में अकेली पड़ जाएंगी। यही अकेलापन कभी-कभी उन्हें अंधकार की ओर धकेल देता है।

क्या है समाधान?

मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता: हर स्त्री को यह सिखाना होगा कि दुख, धोखा या टूटन का समाधान संवाद, थेरेपी और आत्मविश्लेषण में है, न कि हिंसा में।
भावनात्मक शिक्षा: स्कूल से ही लड़कियों और लड़कों दोनों को रिश्तों की समझ, सहानुभूति और संयम की शिक्षा देना ज़रूरी है।
मीडिया जिम्मेदारी: फिल्मों, सीरियल्स और सोशल मीडिया को यह समझना होगा कि वे किस प्रकार की मानसिकता को बढ़ावा दे रहे हैं।
समर्थन समूह: महिलाओं के लिए सुरक्षित, गोपनीय और प्रभावी सपोर्ट सिस्टम तैयार करना चाहिए जहाँ वे अपने आघात साझा कर सकें।
पारिवारिक संवाद: माता-पिता को चाहिए कि वे बेटियों से सिर्फ आदर्श बनने की अपेक्षा न रखें, बल्कि उन्हें उनकी असुरक्षाओं, आक्रोश और उलझनों पर खुलकर बात करने का अवसर दें।

स्त्री जब हिंसा की राह चुनती है, तो वह केवल कानून का उल्लंघन नहीं करती, वह अपने भीतर की उस करुणा को भी मार देती है, जो उसे विशेष बनाती है। यह एक सामाजिक चेतावनी है कि अब हमें केवल ‘महिला सशक्तिकरण’ की बातें नहीं करनी हैं, बल्कि उनके भीतर पल रही पीड़ा को समझना भी सीखना होगा। क्योंकि स्त्री जब टूटती है, तो समाज भी दरकने लगता है। हमें ऐसी दुनिया बनानी है जहाँ स्त्रियाँ अपनी असहायता को प्रतिशोध में नहीं, आत्मनिर्भरता और समझदारी में बदलें। जहाँ वे अपने दर्द से जुड़ें, उसे पहचानें, और उसके लिए सही मार्ग अपनाएं। क्योंकि जब एक स्त्री मुस्कुराती है, तो एक पूरा परिवार, एक पूरा समाज सुखी होता है।