ओम प्रकाश उनियाल
उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों से लोगों का पलायन बढ़ता ही जा रहा है। कई गांवों में तो उंगलियों में गिनाने लायक ही लोग रह गए हैं। जिनमें वृद्ध अधिक हैं या फिर ऐसे परिवार हैं जो अपने पहाड़ को नहीं छोड़ना चाहते हैं। बदलते समय के साथ-साथ पहाड़ के लोग भी खुद को बदलते आ रहे हैं। पलायन तो राज्य बनने से पहले से ही होता आ रहा है। फर्क इतना है कि पहले पलायन करने वालों की संख्या कम थी। पहाड़ में किसी प्रकार के रोजगार के साधन न होने के कारण गांवों से रोजगार के इच्छुक महानगरों की ही तरफ रुख करते थेे। चाहे कैसा भी रोजगार मिला जिसको जहां रोजगार मिला उसने वहीं ठिकाना बना लिया। बीच-बीच में समय मिलते ही गांव आकर अपने घर की देखभाल करने भी आना ही पड़ता था। दूसरा, सेना में भर्ती होने का विकल्प था। सेना में भर्ती होने का जज्बा पहाड़ के लोगों में काफी हुआ करता था। जो कि आज भी बरकरार है। इससे एक पंथ दो काज होते थे। बेशक सेना में अब भर्ती अग्निवीर के तौर पर होती है मगर देश सेवा की भावना भर्ती होने वाले युवाओं की भीड़ से पता चल जाती है। इसी कारण पर्वतीय क्षेत्र को सैन्य-बहुल क्षेत्र कहा जाता है। सेना से सेवानिवृत्ति के बाद गांव ही लौटना होता था। इसीलिए गांवों में लोग भी खूब नजर आते थे। राज्य बनने के बाद तो धीरे-धीरे लोग इस लीक से भी हटने लगे। अब स्थिति यह होती जा रही है कि सेवानिवृत्ति के बाद ज्यादातर शहरों की तरफ भाग रहे हैं। एक छोटा-सा आशियाना बनाने और बच्चों को अच्छी शिक्षा देने की उम्मीद को लेकर।
उत्तराखंड को चहुंमुखी विकास की जरूरत है। प्रकृति ने यहां सबकुछ उपलब्ध कराया हुआ है। बस उसका सदुपयोग यहीं के वासियों के लिए करना जरूरी है। विकास राजनीतिज्ञों के इशारे पर होता है। सत्ता में जो भी दल बैठता है वह अपने हिसाब से विकास को अंजाम देता है। उत्तराखंड के साथ राज्य बनने से पहले और राज्य बनने के बाद भी विकास के नाम पर खेल खेला जाता रहा है। अब सरकारों की नीतियों से ऊब चुके हैं उत्तराखंडवासी।
बात करें नयी पीढ़ी की तो यह तो सोचने वाली बात है कि क्या नयी पीढ़ी जिसने पहाड़ को देखा-समझा नहीं उनसे स्थायी रूप से पहाड़ लौटने की कितनी उम्मीद की जा सकती है? जो रोजगार में रहकर साठ साल में सेवानिवृत्त हो चुके हैं क्या वे पहाड़ जाकर खेतीबाड़ी कर पाएंगे?
कोरना काल में ‘रिवर्स पलायन’ जरूर हुआ था। स्थिति सामान्य होने पर कुछेक को छोड़कर पुन: अपने काम-धंधे पर लौट आए। पलायन मजबूरी है। कौन छोड़ना चाहता है अपनी मातृभूमि, खेत-खलिहान, घर-बार ? मन में टीस तो हरेक के रहती है लेकिन काल और परिस्थिति के अनुकूल ही चलना पड़ता है।
आज शहरों में बस चुके डंडा-झंडा लेकर पहाड़ से पलायन रोकने का नारा तो जोर-शोर से देते आ रहे हैं। प्रयास अच्छा है। मगर जो पलायन कर रहे हैं उनकी मनोइच्छा समझने का प्रयास किसी ने किया? वे भी सपने बुन रहे होंगे शहरों में बसने के। जहां स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाएं आसानी से उपलब्ध हो सकें।
पलायन पूरी तरह तो रोकने की बात करना हवा में तीर मारना वाली बात होगी लेकिन धीरे-धीरे ठहराव लाया जा सकता है विकास संबंधी नीतियों में धरातल पर सुधारीकरण कर।