मानवस्वार्थ की बलिवेदी चढ़ता पर्यावरण संतुलन

शिशिर शुक्ला

भारतीय दर्शन की एक विशेषता जोकि इसे अपने आप में अद्वितीय रूप देती है, वह है प्रकृति प्रेम एवं प्रकृति में ईश्वर का दर्शन। भारतीय संस्कृति में प्रकृति प्रेम एवं उसके प्रति अगाध श्रद्धाभाव की जड़ें बहुत गहरी हैं। वेदों में सूर्य, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, वनस्पति, नदी इत्यादि प्रकृति के प्रत्येक रूप को पूजनीय माना गया है। “माता भूमि: पुत्रोहम पृथिव्या:” के माध्यम से पृथ्वी में मां के रूप के दर्शन किये गए हैं। भारतीय दर्शन का आध्यात्मिक पक्ष एक सुदृढ़ वैज्ञानिक नींव पर आधारित था। हमारे प्राचीन ऋषि, मुनि व मनीषी इस सत्य व मर्म से भलीभांति परिचित थे कि जीवन के अस्तित्व हेतु प्रकृति का संरक्षण नितांत आवश्यक है। इस प्रकार पर्यावरण संरक्षण की परंपरा भारतीय संस्कृति का एक अति प्राचीन अभिन्न अंग है। पर्यावरण वस्तुतः केवल एक शब्दमात्र न होकर, एक व्यापक अवधारणा है। सरल भाषा में हमारे परित: विद्यमान प्रत्येक वह कारक (जैविक अथवा अजैविक), जो प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से हमें प्रभावित करता है तथा पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति, विकास एवं विनाश से सीधा सरोकार रखता है, पर्यावरण की रचना करता है। मानव प्रकृति की सबसे बुद्धिमान, चिंतनशील एवं संवेदनशील रचना है। प्रकृति की श्रेष्ठतम कृति मानव है, ऐसा कहना सर्वथा उचित प्रतीत होता है। नीलिमायुक्त ग्रह पर मानव के प्रादुर्भाव के उपरांत शनैः शनैः मानव सभ्यता का विकास प्रारंभ हुआ। विकास के इस क्रम में जब तक भारतीय दर्शन मानव के संरक्षक की भूमिका का निर्वहन करता रहा, तब तक मानव प्रकृति से अपने गहरे संबंध को गंभीरतापूर्वक आत्मसात करते हुए प्रकृति का पूजन व पोषण करता रहा। दुर्भाग्यवश धीरे धीरे पाश्चात्य भौतिकवादी दृष्टिकोण ने मनुष्य पर हावी होकर उसके नैतिक मूल्यों को पतन की ओर अग्रसर कर दिया। दुष्परिणाम यह हुआ कि मानव अब प्रकृति पर विजय पाने का मूर्खतापूर्ण प्रयास करने लगा। पश्चिमी चकाचौंध ने उसे इस कदर अपने वश में किया, कि उसे यह भी आभास होना बंद हो गया कि वह वृक्ष की जिस शाखा पर बैठा है, धीरे-धीरे उसी को काट रहा है।

वस्तुतः पर्यावरण में असंतुलन का मूल कारण है- पृथ्वी से अनावश्यक छेड़छाड़। पृथ्वी अपनी कोख में असीमित संसाधनों का कोष समाहित किए हुए है, किंतु पृथ्वी केवल हमारी जरूरतों को पूरा कर सकती है, हमारे लोभ को नहीं। मानव सभ्यता के विकास के क्रम में विज्ञान व तकनीकी ने मानव जीवन में अपना दखल दिया। तकनीकी निस्संदेह मानव के लिए एक वरदान साबित हुई किंतु उसने मानव की मानसिकता में भी आमूलचूल परिवर्तन कर दिया। मानव की प्रवृत्ति परिवर्तित होकर स्वार्थपरक एवं प्रकृतिविरोधी हो गई। नतीजतन मानव इस सत्य को भी भूल गया, कि सुखी, शांत व आपदारहित जीवन की प्रथम शर्त उस पर्यावरण का संरक्षण है जो प्रकृति ने अपने अमूल्य खजानों को खोलकर निर्मित किया है। प्रकृति से छेड़छाड़ करते हुए मानव ने उसका निर्मम दोहन प्रारंभ कर दिया। इस अतिदोहन का परिणाम यह हुआ, कि पर्यावरण का असंतुलन आज एक वैश्विक समस्या व चुनौती के रूप में हमारे समक्ष खड़ा है। प्रकृति की अपनी एक आचारसंहिता है। यह विभिन्न चक्रीय प्रक्रमों के द्वारा अमूल्य संसाधनों को मानव के लिए संरक्षित रखती है। मानव द्वारा स्वार्थवश की गई गतिविधियों के अनेक गंभीर दुष्प्रभाव हमें आज प्रत्यक्ष रुप से दिखाई देते हैं। ग्लोबल वार्मिंग के रूप में एक अभिशाप, विलासितापूर्ण जीवन हेतु मानवीय अनियंत्रित गतिविधियों के फलस्वरूप ही मिला है। इसके अतिरिक्त जलवायु परिवर्तन, ओजोन क्षरण, अतिवादी मौसम, जैवविविधता पर प्रतिकूल प्रभाव, विलुप्त होती जीवों की प्रजातियां, पारिस्थितिकीय असंतुलन, खाद्यान्न संकट आदि अनेक ऐसे दुष्प्रभाव हैं जो स्वयं मानवजनित हैं। एक आंकड़े के अनुसार 21वीं सदी के अंत तक पृथ्वी के ताप में 4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि का अनुमान है।

शहरीकरण और औद्योगीकरण की अंधी दौड़ में हमने प्रकृति की सुषमा के रूप में विद्यमान वृक्षों को इस कदर काटा है, कि आज हम विकास के बजाय विनाश के मुहाने पर खड़े हैं। 1988 की वन नीति के अनुसार देश के 33% भाग को वनाच्छादित करने का लक्ष्य आज तक पूरा नहीं हुआ है और वर्तमान परिस्थितियों के आधार पर यही कहा जा सकता है कि यह लक्ष्य कदापि पूरा नहीं होगा। कारण यह है कि हमने वनों को उजाड़ा तो एक सीमा से अधिक है किंतु बसाने के नाम पर हमारा योगदान शून्य है। हम शायद भूल जाते हैं, कि आज हम किसी भी ओर नजर दौड़ाएं, किसी न किसी रूप में वनों व उनके उपकार की झलक हमें देखने को मिल ही जाती है। बढ़ती जनसंख्या, मानव द्वारा अनियंत्रित कत्लेआम के अतिरिक्त वनों को एक और अभिशाप लगा है जो है- दावाग्नि, जिसके कारण एक झटके में कितना कुछ खत्म हो जाता है, इसका अनुमान लगाना असंभव है। अपनी सुविधा हेतु किये गए गैरनैसर्गिक क्रियाकलापों का ही नतीजा भीषण जल संकट के रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है। वह दिन दूर नहीं जब सदैव सदानीरा रहने वाली सरिताएं, रेत के ढेर में तब्दील हो जाएंगी। आज जल,वायु, मृदा आदि सभी आधारभूत संसाधन मानव के क्रियाकलापों के परिणामस्वरूप विकृत हो चुके हैं।पर्यावरण के संबंध में कुछ ताजा रिपोर्ट व आंकड़े चौंकाने वाले हैं। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक वनाग्नि की घटनाओं में सदी के अंत तक 50 प्रतिशत की वृद्धि का अनुमान जताया जा रहा है, जिस हेतु “फायर रेडी फार्मूला” अपनाने की सिफारिश की गई है। फ्रंटियर्स रिपोर्ट 2022 के अनुसार उत्तर प्रदेश का मुरादाबाद जिला विश्व के दूसरे सबसे प्रदूषित शहरों में है। दूसरी खास बात यह कि सूची में 13 में से 5 शहर भारत के हैं।

मानव ने जब अपनी अति से, प्रकृति को सहनशीलता की सीमा के पार कष्ट देना प्रारंभ किया तो आहत प्रकृति ने भी पलटवार करके विभिन्न आपदाओं जैसे सूखा, भूकंप, सुनामी, बाढ़ इत्यादि के रूप में अपनी चेतावनी देना शुरू कर दिया। यह निश्चित है कि जब मनुष्य व प्रकृति के बीच संघर्ष होगा, तो प्रकृति क्रूर, संहारक व विनाशकारी रूप धारण करेगी। पर्यावरण की कीमत पर विकास की छलांग लगाने का स्वप्न पालने वाले मानव को, प्रकृति के कोप का दुष्परिणाम अपनी जाति के विनाश के रूप में भुगतना होगा। अतः आज आवश्यकता है कि हम अपनी जीवनशैली में बदलाव करें, भोग विलासिता पर अंकुश लगाएं, अपनी दौड़ने की लालसा को प्रकृति की मंजूरी की सीमा तक ही सीमित रखें एवं राजनीतिक प्रपंचों के स्थान पर पर्यावरण संरक्षण हेतु व्यावहारिक व ठोस पहल प्रारंभ करें। हमें यह शपथ लेनी चाहिए कि हम पृथ्वी को पुनः आग के गोले में तब्दील होने से बचाने के लिए प्रकृति की गोद में एवं वेदों की शिक्षा की ओर पुनः लौटने का दृढ़निश्चय करेंगे।