‘मानव केंद्रित विकास से पर्यावरण का नुकसान’

विनय श्रीवास्तव

हाल ही में प्रखर वक्ता, विचारक, राजनीतिक-सामाजिक चिंतक आदरणीय श्री गोविंदाचार्य जी ने अपने जयपुर प्रवास के दौरान प्रकृति केंद्रित विकास विषयक पर प्रकृति और पर्यावरण की दोहन पर चिंता जताई। गोविंदाचार्य ने कहा कि प्रकृति केंद्रित विकास ही विकास का सही मॉडल है। भारत की असली ताकत ही प्रकृति और पर्यावरण हैं। इनकी अनदेखी करके विकास की जो कहानी लिखने की कोशिश की जाएगी, उसमें पर्यावरणीय चक्र का बिगड़ना, प्राकृतिक संतुलन खराब होना और प्राकृतिक आपदाओं का प्रकोप बढ़ना स्वाभाविक है। वर्तमान हालात में प्रकृति के संपोषण पर आधारित विकास ही समृद्धि और स्वस्थ जीवन दे सकता है। भारत में पांच लाख गांव थे और उनमें से प्रत्येक में औसतन चार से पांच छोटे-बड़े तालाब होते थे, लेकिन अब सब नष्ट हो गए हैं। उन्होंने कहा कि कोरोना काल ने इस तथ्य से एक बार फिर पूरी दुनिया को दिखा दिया है कि प्रकृति केंद्रित विकास ही विकास का सही मॉडल है।

श्री गोविंदाचार्य जी के अनुसार पिछले एक सदी में मानव केन्द्रित विकास से ही प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरण का नुकसान सबसे अधिक हुआ है। मानव केन्द्रित विकास के लिए पेड़ पौधों को काटना, पहाड़ों को नष्ट करना, तालाबों, और झरनों को बंद करना आदि मुख्य कारण रहे हैं।

उन्होंने गंगा की महत्ता और उसकी हो रही दोहन पर भी गहरी चिंता प्रकट की। उन्होंने कहा की गंगा केवल एक नदी नहीं है। यह एक जीवित निकाय है, जिसकी शरण लेकर अनगिनत प्राणी अपना जीवन चक्र पूरा करते हैं। करोड़ों भारतीय आज भी इसकी गोद में जीवन गुजार रहे हैं। गंगा किनारे चल रही अपनी गंगा संवाद यात्रा प्रसंग में गोविंदाचार्य जी ने कहा कि मैंने देखा है कि गंगा का जीवन संकट में है। इसे बचाना जरूरी है। अभी तक की सरकारी कोशिशों का धरातल पर उन्हें कोई परिणाम नहीं दिखा। वे प्रदूषण की बड़ी वजह इसकी अविरलता में पैदा की गई बाधाओं और निर्मलता में डाले जा रहे विघ्नों को मानते हैं। नदी तो खुद स्वच्छ ही रहना चाहती है पर उसे गंदा हम करते हैं। इसमें आम आदमी की भूमिका महज 10 फीसद है। 90 फीसद प्रदूषण के लिए तो औद्योगिक कचरा और सरकारी निकायों द्वारा छोड़ा जा रहा सीवरेज यानि मलमूत्र है। बांधों के कारण नदी में प्रवाह के लिए केवल 15 फीसद जल ही छोड़ा जाता हैै। नतीजतन न तो गंगा का प्रवाह अविरल बचता है और न उसकी निर्मलता। निर्मलता और अविरलता के लिए किसी भी नदी में उसके कुल जल का न्यूनतम साठ फीसद तो अंत तक प्रवाहित होने देना बेहद जरूरी है। वे मानते हैं कि गंगा नहीं बची तो अनगिनत जीवों का अस्तित्व भी खतरे में पड़ेगा। इससे पारिस्थितिकीय असंतुलन भी बढ़ेगा। सरकार के साथ यह समाज की भी जिम्मेदारी है कि गंगा को प्रदूषण से बचाया जाए। सीवरेज और औद्योगिक कचरे को शोधन के बाद ऐसे नालों में छोड़ा जाए जो गंगा को दूषित नहीं करे। सीवरेज के लिए खानापूरी को एसटीपी तो लगे हैं पर वे चलते नहीं। लिहाजा उनकी निगरानी के लिए प्रभावी तंत्र चाहिए। नदी जल की गुणवत्ता में सुधार होगा तो पेड़ पौधे, पशु पक्षी और जनजीवन सभी का लाभ होगा। समस्या यह है कि नीतियां और योजनाएं बनाने से पहले स्थानीय लोगों से परामर्श की कोई जरूरत नहीं समझता। उन्होंने यह भी कहा कि गाय, गंगा और अन्य प्रकृति संसाधनो का दोहन और शोषण होगा तो वास्तविक विकास असंभव है। हमें अपने स्तर पर प्रकृति की सरंक्षण की जिम्मेदारी लेनी ही होगी। आपको यह बता दें की श्री गोविंदाचार्य सक्रिय राजनीति से सन्यास लेकर पिछले दो दशकों से अधिक समय से प्रकृति की संरक्षण के लिए गांव गांव, शहर शहर जाकर कठिन परिश्रम और संघर्ष कर रहे हैं और समाज को जागरुक कर रहे हैं। लगभग अस्सी वर्ष की उम्र में बिना हारे, बिना थके उनका यह निस्वार्थ सेवा जारी है।