हर-हर गमछा, मंच-मंच गमछा

Every towel, every stage towel

विनोद कुमार विक्की

गमछा अब सिर्फ कपड़ा नहीं, बल्कि जनभावनाओं का ‘वोट-बेंडर’ और राजनीति का ब्रांड बन चुका है। एक दौर था, जब गमछा उत्तर भारतीय किसान और मजदूरों का साथी माना जाता था। यह शरीर, हाथ-मुँह पोंछने और पसीना सुखाने का सहज साधन हुआ करता था। सर्दियों में यही कान ढकता था और गर्मियों में लू से बचाने हेतु सिर पर मुरैठा बनकर तैनात रहता था। फिर दौर बदला और गमछा रंगदारों, रंगबाजों के कंधे पर जा लटका। गमछा से चेहरा ढ़ककर अंजाम दिये जाने वाले सफ़ल आपराधिक घटनाओं की लंबी फेहरिस्त है। गमछा के मुरैठा और कट्टा का तो चोली-दामन का रिश्ता रहा है। यूंँ तो सिनेमा हॉल, थियेटर, आर्केस्ट्रा आदि के लाइव प्रोग्राम में दर्शकों द्वारा भी गमछा लहराया गया। लेकिन उसकी असली उड़ान तब शुरू हुई जब राजनीति ने इसे अपने मंच पर बुला लिया। नीला,भगवा,हरा आदि अलग-अलग रंग का गमछा अलग-अलग राजनीतिक पार्टी का प्रतिनिधित्व करने लगा। आज हालत यह है कि मनोज तिवारी का “गमछा बिछाय के…” वाला भोजपुरी गाना भी राजनीतिक गमछा-नृत्य के सामने फीका पड़ गया है।

राजनीति के मंचों पर गमछा जिस शैली में लहराया जाता है, उसे देखकर लगता है मानो नेता लोग सफलता का परचम नहीं, माउंट एवरेस्ट या चाँद पर फहराया जाने वाला कोई राष्ट्रीय ध्वज संभाल रहे हों। मंच पर चढ़ते ही नेताजी गमछा ऐसे फैलाते हैं जैसे भीड़ में हर व्यक्ति का दिल उसी कपड़े में बंधा हो। भीड़ भी इसे देखकर लहालोट हो जाती है, मानो गमछा नहीं, विकास की सौगात बाँटी जा रही हो।

आज गमछा राजनीतिक पहचान का ऐसा प्रतीक बन चुका है कि नेता की लोकप्रियता का पैमाना भी गमछा की लंबाई, मोटाई और लहराने की गति से मापा जाने लगा है। मुद्दे, घोषणाएँ और बहसें बाद में,पहले गमछा का रंग, फिर जनता का ढंग!
कुल मिलाकर गमछा अब सिर्फ कपड़ा नहीं रहा, वह राजनीतिक ब्रांड, जन-संपर्क साधन और मंचीय कौशल का ऐसा सर्वगुणसंपन्न प्रतीक बन गया है, जिसे लहराते-लहराते नेता अपना भविष्य चमकाने का सपना देखते हैं और जनता ताली बजाकर उस सपने में रंग भर देती है। बहरहाल विकास लहराये, ना लहराये मंच से गमछा खुब लहराया जा रहा है।