
प्रमोद भार्गव
राजस्थान के डीग जिले के बहज गांव में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा जारी उत्खनन में 5500 से भी ज्यादा साल पुरानी प्राचीन भारतीय सभ्यता के अनेक अवशेश मिले हैं। इनमें सबसे प्रमुख ऋग्वेद में वर्णित सबसे प्रसिद्ध सरस्वती नदी प्रणाली के ठोस प्रमाण एक बार फिर मिले हैं। इस खुदाई में ब्राह्मी लिपि की मोहरों, मूर्तियों, हड्डी के औजार, षंख, मोती, चूड़ियां और सिक्कों के साथ मिट्टी के खंभों से बने भवन, ईटों की परतदार दीवारों वाली खंदकें, भट्यिं एवं यज्ञवेदियां भी मिले हैं। इन साक्ष्यों से प्रमाणित होता है कि उस समय के लोग वास्तुकला के साथ धातु विज्ञान और हथियार बनाने में दक्ष थे। ऋग्वेद में वर्णित सिंधु-सारस्वत सभ्यता में इन सब वस्तुओं और सरस्वती नदी से जुड़े अनेक मंत्र मिलते हैं। इन्हीं मंत्रों से प्राचीन आर्यावर्त का भूगोल, समाज, जीवनशैली और आर्य व अनार्यों के संघर्श से जुड़ी अनेक गाथाओं का जीवंत चित्रण है। इन अवशेशों और नदी-तंत्र को 3500 ईसा पूर्व से 1000 ईसापूर्व तक की सभ्यता के प्रमाण माना जा रहा है।
वैदिक कालीन नदी सरस्वती के अस्तित्व और उसकी भूगर्भ में अंगड़ाई ले रही जलधारा को लेकर भूगर्भशास्त्री,पुरातत्ववेत्ता और इतिहासकारों में लंबे समय से मतभेद बना रहा है। यह मतभेद सैटेलाइट मैंपिग के बावजूद कायम रहा। यहां तक कि 6 दिसंबर 2004 को भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्री ने संसद में भी यह घोषणा कर दी थी कि इस नदी का कोई मूर्त प्रमाण नहीं है। यह मिथकीय है। दरअसल ये विरोधाभास किसी शोध के निष्कर्ष से कहीं ज्यादा वामपंथी सोच को पुख्ता करने के नजरिए से सामने आते रहे हैं,जिससे भारत की प्राचीन ज्ञान-परंपरा को नकारा जा सके। किंतु अब न केवल हरियाणा के यमुनानगर जिले के आदिबद्री में सरस्वती का उद्गम स्थल खोज लिया गया है, बल्कि मुगलवाली गांव में धरातल से सात फीट नीचे तक खुदाई करके नदी की जलधारा भी खोज निकाली है। इस धारा का रेखामय प्रवाह तीन किमी की लंबाई में नदी के रूप में सामने आया था। एक मृत पड़ी नदी के इस पुनर्जीवन से उन सब अटकलों पर विराम लगा है,जो वेद-पुरणों में वार्णित इस नदी को या तो मिथकीय ठहराते थे या इसका अस्तित्व अफगानिस्तान की ‘हेलमंद‘ नदी के रूप में मानते थे।
सरस्वती की भौगोलिक स्थिति का बखान ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण महाभारत, ऐतरेय ब्राह्मण, भागवत और विष्णु पुराणों में है। ऋग्वेद में सप्तसिंधु क्षेत्र की महिमा को प्रस्तुत करते हुए जिन सात नदियों का वर्णन किया गया है, उनमें से एक सरस्वती है। अन्य छह शतद्रु;सतलुज, विपासा;व्यास, असिकिनी;चिनाव, पुरुष्णी;रावी वितस्ता;झेलम द्ध और सिंधु नदियां हैं। इनमें सरस्वती और सिंधु बड़ी नदियां थीं। सतलुज और यमुना सरस्वती की सहायक नदियां रही हैं। सरस्वती का प्रवाह पूरब से पश्चिम की ओर था, लेकिन हजारों साल पहले आए भयंकर भूकंप के कारण यमुना और सतुलज सरस्वती से अलग हो गईं। इन दोनों नदियों के मार्ग बदलने के बाद सरस्वती धीरे-धीरे अस्तित्व खोती हुई भूगर्भ में विलीन हो गई। कुछ भूगर्भशास्त्रियों का ऐसा मानना है कि 12 हजार साल पहले तक नदी स्वच्छ जलधारा के रूप में प्रवाहमान थी। लेकिन ऋग्वेद और अन्य प्राचीन ग्रंथों में सरस्वती की महिमा का गुणगान है, उससे लगता है पांच से सात हजार साल पहले तक यह नदी धरा पर बहती थी। क्योंकि नदी के धरती की कोख में समा जाने का वर्णन ऋग्वेद में नहीं है। जबकि ऋग्वेद की 60 ऋचाओं में सरस्वती का उल्लेख है। इनमें कहा गया है,सरस्वती हिमालयी पर्वतों से निकलकर,सप्तसिंधु क्षेत्र में बहती हुई कच्छ के रण में जाकर समुद्र में गिरती है। यह क्षेत्र वर्तमान में पाकिस्तान और भारत के पंजाब व हरियाणा में है।
किंतु सरस्वती का जो वर्णन महाभारत में है, उसमें इस नदी के विलोप होने के संकेत मिलते हैं। महाभारत के अनुसार सरस्वती समुद्र में समाने से पहले राजस्थान के रेगिस्तान विनसन में ही लुप्त हो जाती है। विष्णु पुराण में नदी के सिमटने के संकेत कवश नाम के एक मल्लाह द्वारा सरस्वती की वंदना करने की कथा के रूप में मिलते हैं। इस कथा के अनुसार पृथु द्वारा कराए जा रहे यज्ञ में जब कवश ने हिस्सा लेने की कोशिश की तो ऋषियों ने उसे बाहर कर दिया। निराश कवश ने मरुस्थल में जाकर सरस्वती की स्तुति की। फलतः सरस्वती की जलधार उसके चारों और फूट पड़ी। इस चमत्कार से प्रभावित होकर ऋृशियों ने कवश को यज्ञ में भागीदारी करने की अनुमति दे दी। यही कथा ऐतरेय ब्रह्मण और भागवत पुराण में भी कही गई है।
कॉर्बन डेटिंग भी इस तथ्य की पुष्टि करती है कि 2000 से 1800 वर्ष ईसा पूर्व यह नदी विलुप्त हुई। महाभारत,विष्णु पुराण,भागवत पुराण और ऐतरेय ब्राह्मण ग्रंथों की रचना लगभग इसी समय हुई बताई जाती है। साफ है, प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में सरस्वती का जो वर्णन है, वह कपोल कल्पित न होते हुए,वास्तविक है। नदी के सूखने के बाद हड़प्पा-मोहनजोदड़ो संस्कृति के उपासक गंगा यमुना के मैदानों की और पलायन कर गए। चूंकि इन लोगों की स्मृति में सरस्वती जीवंत थी,इसलिए इन्होंने प्रयाग में त्रिवेणी स्थल पर गंगा और यमुना के साथ सरस्वती के अंतसलिला होने की कथा गढ़ ली। सिंधु घाटी सभ्यता का नाम,हालांकि सिंधु नदी के नाम पर पड़ा था। इसे ही सरस्वती संस्कृति, सरस्वती सभ्यता और सिंधु सरस्वती सभ्यता के नामों से जाना जाता है। इसी सभ्यता में हड़प्पा संस्कृति फली-फूली थी। ऋग्वेद में हड़प्पा दुर्ग की गाथा हरियूपिया नाम से मंत्रों में कही गई है।
प्राचीन ग्रंथों में दर्ज सरस्वती के अस्तित्व को लेकर देशी-विदेशी भूविज्ञानी और भारतीय संस्कृति के अध्येता इसकी षोध और जमीनी खोज में जुटे रहे हैं। फ्रांस के भूविज्ञानी विवियेन सेंट मार्टिन ने ‘वैदिक भूगोल‘ की रचना की थी। 1860 में लिखी इस पुस्तक में सरस्वती के साथ घग्गर और हाकड़ा की भी पहचान की थी। इसके बाद 1886 में अंगेजी हुकूमत ने भारत का भौगोलिक सर्वेक्षण कराया था। इसके अधीक्षक आरडी ओल्ढ़म की रिपोर्ट बगांल के एशियाटिक सोसायटी जर्नल में छपी थी। इस रिपोर्ट में सरस्वती के नदी तल और इसकी सहायक नदियों, सतुलज व यमुना के पथ रेखांकित किए गए है। 1893 में इस रिपोर्ट ने प्रसिद्ध भूवैज्ञानिक सीएफ ओल्ढ़म को प्रभावित किया। ओल्ढ़म ने इसी जर्नल में सरस्वती के भूगर्भ में उपस्थित होने की पुश्टि की है। साथ ही घग्धर और हाकड़ा के सूखे पथों का भी ब्यौरा दिया है। ये नदियां पंजाब में बहती थीं। पंजाब की लोकश्रुतियों में आज भी ये नदियां विद्यमान हैं। इन्हीं नदियों के पथ पर एक समय सरस्वती बहती थी। इसके बाद 1918 में टैसीटोरी,1940-41 में औरेल स्टाइन और 1951-53 में अमलानंद घोष ने सरस्वती की खोज में अहम भूमिका निभाई। इन सब विद्वानों ने अपने निष्कर्षों में सिद्ध किया कि सरस्वती के विलोपन का मुख्य कारण सतलुज और यमुना की धार बदलना था। सतलुज की धार सरस्वती से अलग होकर सिंधु में जा मिली। लगभग इसी समय यमुना ने भी अपनी धारा का प्रवाह बदल दिया और वह पश्चिम अपने बहने का रुख बदलकर पूर्व में बहकर गंगा में जा मिली। नतीजतन सरस्वती सूखती चली गई।
बाद में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने इस विलुप्त नदी को खोजने की पहल की। 15 जून 2002 को केंद्रीय संस्कृति मंत्री जगमोहन ने सरस्वती के नदीतलों का पता लगाने के लिए खुदाई की घोषणा की। इस खोज को संपूर्ण वैज्ञानिक धरातल देने की दृष्टि से इसमें इसरो के वैज्ञानिक बलदेव साहनी,पुरातत्वविद् एस कल्याण रमन हिमशिला विशेषज्ञ वाईके पुरी और जल सलाहकार माधव चितले को शामिल किया गया। हरियाणा में आदिबद्री से लेकर भगवान पुरा तक पहले चरण में और भगवान पुरा से लेकर राजस्थान सीमा पर स्थित कालीबंगा की खुदाई प्रस्तावित थी। यह खोज कोई ठोस परिणाम दे पाती इससे पहले राजग सरकार गिर गई और डॉ मनमोहन के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने 6 दिसंबर 2004 को संसद में यह बयान देकर कि इस नदी का कोई मूर्त रूप नहीं है, इसे मिथकीय नदी ठहरा दिया। नतीजतन वाजपेयी सरकार की पहल अधूरी रह गई।
लेकिन राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के दर्शन लाल जैन ‘सरस्वती शोध संस्थान‘ की अगुवाई में नदी की खोज की सार्थक पहल करते रहे। उन्होंने अपनी खोज के दो प्रमुख आधार बनाए। एक विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन में प्राचीन इतिहास विभाग के प्राध्यापक रहे डॉ विष्णु श्रीधर वाकणकर की सरस्वती खोज पदयात्रा और दूसरा 2006 में आए तेल एवं प्राकृतिक गैस आयोग के सर्वे खुदाई को। वाकणकर की यात्रा आदि बद्री से शुरू होकर गुजरात के कच्छ के रण पर जाकर समाप्त हुई। ओएनजीसी ने डॉ एमआर राव के नेतृत्व में सरस्वती के पथ व नदीतलों के पहले तो उपग्रह-मानचित्र तैयार किए, फिर धरातलीय साक्ष्य जुटाए। हिमाचल प्रदेश में सिरमौर जिले के काला अंब के पास सरस्वती टियर फाल्ट का गंभीर अध्ययन किया। अध्ययन के परिणाम में पाया कि हजारों साल पहले आए भूकंप के कारण यमुना और सतलुज ने अपने मार्ग बदल दिए थे। यमुना पूरब में बहती हुई दिल्ली पहुंच गई और सतलुज पश्चिम होते हुए सिंधु नदी में जा मिली। जबकि पहले इन दोनों नदियों का पानी सरस्वती में मिलकर हरियाणा, राजस्थान व गुजरात होते हुए कच्छ में मिलता था।
अवशेशीय अध्ययन के बाद ओएनजीसी ने राजस्थान के जैसलमेर से सात किलोमीटर दूर जमीन में करीब 550 मीटर तक गहरा छेद किया। यहां 7600 लीटर प्रति घंटे की दर से स्वच्छ जल निकला। इस प्रमाण के बाद ओएनजीसी ने भारत विभाजन के बाद भारतीय पुरातत्व संस्थान द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण का भी अध्ययन किया। इससे पता चला कि हरियाणा व राजस्थान में करीब 200 स्थलों पर सरस्वती के पानी के निशान हैं। डीग में एक बार फिर सरस्वती के नए प्रमाण मिलने से इसके ऋग्वैदिक अस्तित्व को प्रामाणिकता मिली है।