मानव सभ्यता का शिखर एवं रिश्तों का स्वर्ग है परिवार

Family is the pinnacle of human civilization and the heaven of relationships

ललित गर्ग

वैश्विक परिवार दिवस दुनिया भर के लोगों में प्यार, सद्भाव, एकता को प्रोत्साहित करने के लिए समर्पित विश्व उत्सव है। संयुक्त राष्ट्र ने परिवारों के महत्व और उनके सामने आने वाली चुनौतियों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए इस दिन की स्थापना की। परिवार हमें एकसूत्रता में बांधता है, रिश्तों की अहमियत को गहराई से समझाता है, सभी पारिवारिकजनों में प्यार बढ़ाता है। हमें एक व्यक्ति के रूप में विकसित होने और हमारे भावनात्मक संबंधों को मजबूत करते हुए बेहतर इंसान बनाने में करता है। संयुक्त राष्ट्र ने माना कि बदलती आर्थिक और सामाजिक संरचनाएं दुनियाभर में पारिवारिक इकाइयों को प्रभावित कर रही हैं, इसलिए, 1993 में इसने आधिकारिक तौर पर 15 मई को अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस के रूप में घोषित किया। जैसाकि दुनिया दोहा, कतर में 4-6 नवंबर 2025 में सामाजिक विकास के लिए दूसरे विश्व शिखर सम्मेलन की तैयारी कर रही है, तब अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस सतत विकास को आगे बढ़ाने में परिवार-उन्मुख नीतियों की महत्वपूर्ण भूमिका पर प्रकाश डालेगा, जो गरीबी उन्मूलन, सभ्य कार्य और सामाजिक समावेशन के प्रति प्रतिबद्धताओं को मजबूत करने का एक महत्वपूर्ण अवसर होगा। ‘सतत विकास के लिए परिवार-उन्मुख नीतियांः सामाजिक विकास के लिए दूसरे विश्व शिखर सम्मेलन की ओर’ थीम के तहत आयोजित इस कार्यक्रम में राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पहलों से महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि को उजागर किया जाएगा, जिसमें सतत विकास के लिए प्रौद्योगिकीय परिवर्तन, जनसांख्यिकीय बदलाव, शहरीकरण, प्रवासन और जलवायु परिवर्तन जैसी बड़ी प्रवृत्तियों से निपटने के लिए राष्ट्रीय विकास एजेंडा में परिवार-केंद्रित नीतियों को एकीकृत करने के महत्व पर जोर दिया जाएगा। परिवार में रिश्तों की एक मज़बूत डोर होती है, सहयोग के अटूट बंधन होते हैं, एक-दूसरे की सुरक्षा के वादे और इरादे होते हैं। हमारा यह फ़र्ज़ है कि इस रिश्ते की गरिमा को बनाए रखें। हमारी संस्कृति एवं परंपरा में पारिवारिक एकता पर हमेशा से बल दिया जाता रहा है। प्राणी जगत एवं सामाजिक संगठन में परिवार सबसे छोटी इकाई है। परिवार के अभाव में मानव समाज के संचालन की कल्पना भी दुष्कर है, प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी परिवार का सदस्य होकर ही अपनी जीवन यात्रा को सुखद, समृद्ध, विकासोन्मुख बना पाता है। उससे अलग होकर उसके अस्तित्व को सोचा नहीं जा सकता है। हमारी संस्कृति और सभ्यता अनेक परिवर्तनों से गुजर कर अपने को परिष्कृत करती रही है, लेकिन परिवार संस्था के अस्तित्व पर कोई भी आंच नहीं आई। वह बने और बन कर भले टूटे हों लेकिन उनके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता है। हम चाहे कितनी भी आधुनिक विचारधारा में पल रहे हो लेकिन अंत में अपने संबंधों को विवाह संस्था से जोड़ कर परिवार में परिवर्तित करने में ही संतुष्टि एवं जीवन की परिपूर्णता-सार्थकता अनुभव करते हैं। परिवार का महत्व न केवल भारत में बल्कि दुनिया में सर्वत्र है।

आधुनिक समाज में परिवार का विघटन आम बात हो चुकी है। ऐसे में परिवार न टूटे इस मिशन एवं विजन के साथ अंतरराष्ट्रीय परिवार दिवस मनाया जाता है। परिवार के बीच में रहने से आप तनावमुक्त व प्रसन्नचित्त रहते हैं, साथ ही आप अकेलेपन या डिप्रेशन के शिकार भी नहीं होते, यही नहीं परिवार के साथ रहने से आप कई सामाजिक बुराइयों से अछूते भी रहते हैं। परिवार दो प्रकार के होते हैं- एक एकल परिवार और दूसरा संयुक्त परिवार। एकल परिवार में पापा-मम्मी और बच्चे रहते हैं। संयुक्त परिवार में पापा-मम्मी, बच्चे, दादा दादी, चाचा, चाची, बड़े पापा, बड़ी मम्मी, बुआ इत्यादि रहते हैं। संयुक्त परिवार टूटने एवं बिखरने की त्रासदी को भोग रहे लोगों के लिये यह दिवस बहुत महत्वपूर्ण है। वास्तव में मानव सभ्यता की अनूठी पहचान है संयुक्त परिवार और वह जहां है वहीं स्वर्ग है। रिश्तों और प्यार की अहमियत को छिन्न-भिन्न करने वाले पारिवारिक सदस्यों की हरकतों एवं तथाकथित आधुनिकतावादी सोच से जहां बुढ़ापा कांप उठता है, वहीं बच्चों की दुनिया को भी बहुत सारे आयोजनों से बेदखल कर दिया है। दुख सहने और कष्ट झेलने की शक्ति जो संयुक्त परिवारों में देखी जाती है वह एकल रूप से रहने वालो में दूर-दूर तक नहीं होती है। आज के अत्याधुनिक युग में बढ़ती महंगाई और बढ़ती जरूरतों को देखते हुए संयुक्त परिवार समय की मांग कहे जा सकते हैं।

भारत गांवों का देश है, परिवारों का देश है, शायद यही कारण है कि न चाहते हुए भी आज हम विश्व के सबसे बड़े जनसंख्या वाले राष्ट्र के रूप में उभर चुके हैं और शायद यही कारण है कि आज तक जनसंख्या दबाव से उपजी चुनौतियों के बावजूद, एक ‘परिवार’ के रूप में, जनसंख्या नीति बनाये जाने की जरूरत महसूस नहीं की। ईंट, पत्थर, चूने से बनी दीवारों से घिरा जमीं का एक हिस्सा घर-परिवार कहलाता है जिसके साथ ‘मैं’ और ‘मेरापन’ जुड़ा है। संस्कारों से प्रतिबद्ध संबंधों की संगठनात्मक इकाई उस घर-परिवार का एक-एक सदस्य है। हर सदस्य का सुख-दुख एक-दूसरे के मन को छूता है। प्रियता-अप्रियता के भावों से मन प्रभावित होता है। घर-परिवार जहां हर सुबह रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, चिकित्सा की समुचित व्यवस्था की जुगाड़ में धूप चढ़ती है और आधी-अधूरी चिंताओं का बोझ ढोती हुई हर शाम घर-परिवार आकर ठहरती है। कभी लाभ, कभी हानि, कभी सुख, कभी दुख, कभी संयोग, कभी वियोग, इन द्वंद्वात्मक परिस्थितियों के बीच जिंदगी का कालचक्र गति करता है। आदमी की हर कोशिश ‘घर-परिवार’ बनाने की रहती है। सही अर्थों में घर-परिवार वह जगह है जहां स्नेह, सौहार्द, सहयोग, संगठन सुख-दुख की साझेदारी, सबमें सबक होने की स्वीकृति जैसे जीवन-मूल्यों को जीया जाता है। जहां सबको सहने और समझने का पूरा अवकाश है। अनुशासन के साथ रचनात्मक स्वतंत्रता है। निष्ठा के साथ निर्णय का अधिकार है। जहां बचपन सत्संस्कारों में पलता है। युवकत्व सापेक्ष जीवनशैली से जीता है। वृद्धत्व जीए गए अनुभवों को सबके बीच बांटता हुआ सहिष्णु और संतुलित रहता है। ऐसा घर-परिवार निश्चित रूप से पूजा का मंदिर बनता है।

परिवार एक संसाधन की तरह होता है। फिर क्या कारण है कि आज किसी भी घर-परिवार के वातायन से झांककर देख लें-दुख, चिंता, कलह, ईर्ष्या, घृणा, पक्षपात, विवाद, विरोध, विद्रोह के साये चलते हुए दीखेंगे। अपनों के बीच भी परायेपन का अहसास पसरा हुआ होगा। विचारभेद मनभेद तक पहुंचा देगा। विश्वास संदेह में उतर आएगा। ऐसी अनकही तनावों की भीड़ में आदमी सुख के एक पल को पाने के लिए तड़प जाता है। कोई किसी के सहने/समझने की कोशिश नहीं करता। क्योंकि उस घर-परिवार में उसके ही अस्तित्व के दायरे में उद्देश्य, आदर्श, उम्मीदें, आस्था, विश्वास की बदलती परिधियां केंद्र को ओझल कर भटक जाती हैं। विघटन शुरू हो जाता है। भारतीय परिवार में परिवार की मर्यादा और आदर्श परंपरागत है। विश्व के किसी अन्य समाज़ में गृहस्थ जीवन की इतनी पवित्रता, स्थायीपन, और पिता-पुत्र, भाई-भाई और पति-पत्नी के इतने अधिक व स्थायी संबंधों का उदाहरण प्राप्त नहीं होता। विभिन्न क्षेत्रों, धर्मों, जातियों में सम्पत्ति के अधिकार, विवाह और विवाह विच्छेद आदि की प्रथा की दृष्टि से अनेक भेद पाए जाते हैं, किंतु फिर भी ‘संयुक्त परिवार’ का आदर्श सर्वमान्य है। अधिकतर परिवार में तीन पीढ़ियों और कभी कभी इससे भी अधिक पीढ़ियों के व्यक्ति एक ही घर में, अनुशासन में और एक ही रसोईघर से संबंध रखते हुए सम्मिलित संपत्ति का उपभोग करते हैं और एक साथ ही परिवार के धार्मिक कृत्यों तथा संस्कारों में भाग लेते हैं। मुसलमानों और ईसाइयों में संपत्ति के नियम भिन्न हैं, फिर भी संयुक्त परिवार के आदर्श, परंपराएं और प्रतिष्ठा के कारण इनका सम्पत्ति के अधिकारों का व्यावहारिक पक्ष परिवार के संयुक्त रूप के अनुकूल ही होता है। संयुक्त परिवार का कारण भारत की कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था के अतिरिक्त प्राचीन परंपराओं तथा आदर्श में निहित है। रामायण और महाभारत की गाथाओं द्वारा यह आदर्श जन-जन में संप्रेषित है। इंसानी रिश्तों एवं पारिवारिक परम्परा के नाम पर उठा जिन्दगी का यही कदम एवं संकल्प कल की अगवानी में परिवार के नाम एक नायाब तोहफा होगा।