रविवार दिल्ली नेटवर्क
बाप की बड़ी भूमिका होती हैं,औलाद की ज़िंदगी में वह जो हारे हुए को जीता दें और जीते हुओं को हरा दें
मुंबई : त्वमेव सर्वम लगभग आधे घंटे की एक बायोपिक फ़िल्म हैं। बहुत सीधी,सादी, संक्षिप्त।एक छोटे-से गाँव में रहने वाले ग़रीब परिवार के मूलचंद सिंह रजक अपने छोटे बेटे जीवन के बचपन से ही उसकी मेधा और प्रतिभा को पहचान लेते हैं और उसकी शिक्षा समेत उसके भविष्य को बनाने के लिए अपना सबकुछ दांव पर लगा देते हैं।गाँव, बिरादरी, परिवार और आसपास के समाज की आपत्ति और सलाहों के बावजूद।
एक बार अपने बेटे के बीमार पड़ने पर जब उन्हें डॉक्टर को अस्पताल में बुलाने के लिए ग्राम पंचायत के प्रधान और कलेक्टर तक गुहार लगानी पड़ती है, तब अपनी असहायता का बोध ही उनके उस फ़ैसले का निर्धारक मोड़ होता है, जो उनके बेटे जीवनलाल सिंह रजक का भविष्य ही नहीं, पूरे अपने समुदाय, ख़ानदान और पिछड़े और दबाए गये ग्रामीण समाज के लिए एक नयी दिशा देता है।
‘हर परिवार में एक ‘टर’ ज़रूर होना चाहिए।’ यह उनका वह सामुदायिक-सामाजिक बोध हो जाता है, जो एक दिन उनके बेटे जीवनलाल को, उसके अपने कठिन संघर्षों, लगन और मेहनत की बदौलत कई छोटी-बड़ी सफलताओं को ठुकराते हुए एक दिन कलेक्टर यानी नागरिक प्रशासन के ऊँचे पद आईएएस तक पहुँचा देता है।
यह पिता के स्वप्नों और प्रतिज्ञाओं के लिए समर्पित एक प्रतिभाशाली और परिश्रमी पुत्र और उसके उस पिता की कहानी है,जो अपनी ज़िद में सब कुछ बदल डालता है, लेकिन अपना बीस साल पुराना कटा-फटा जूता नहीं बदलता। एक इंजन वाली साइकिल (मोपेड)?ख़रीदने की उसकी आकांक्षा उसकी मृत्यु के साथ उसी दिन समाप्त हो जाती है, जिस दिन जीवनलाल सिंह रजक यूपीएससी से उत्तीर्ण होकर कलेक्टर बनते हैं।
पिछले दिनों (2023) आई विधु विनोद चोपड़ा की बहु-चर्चित ‘ट्वेल्थ फेल्ड’ या ऐसी कई बायोपिक फ़िल्मों के साथ इसकी तुलना करने की जगह इसे एक सीधे वक्तव्य के बतौर देखना चाहिए, जो बहुत कम समय में, बहुत संक्षिप्ति के साथ एक पिता और पुत्र के नये रिश्तों के सामाजिक लक्ष्यों को एक ऐसे मार्मिक कथानक के माध्यम से व्यक्त करती है, जैसे यह मुंशी प्रेमचंद की कोई आदर्श और प्रेरक कहानी हो।
उदय प्रकाश (साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकार,चर्चित कवि,कथाकार,पत्रकार और फिल्मकार)