फेड रिज़र्व ब्याज दर में कटौती: ट्रंप हताश, तो कमला को आस क्यों?

Fed Reserve cuts interest rate: Trump is desperate, so why is Kamala hopeful?

ललित मोहन बंसल, लॉस एंजेल्स से

अमेरिका के सेंट्रल बैंक ‘फेड रिजर्व’ ने बुद्धवार को आधा प्रतिशत अंक ब्याज दर में कटौती कर राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डॉनल्ड ट्रंप की नींद उड़ा दी है, वहीं डेमोक्रेट कमला हैरिस ने राहत की साँस ली है। पिछले ढाई वर्षों में क़ीमतें लगातार आसमान छू रही थीं, अमेरिका मंदी (7%) के आग़ोश में जा रहा था। इस से जन सामान्य के लिए ग्रोसरी से ले कर मकानों के मार्टगेज़ की ऊँची दरें देना मुश्किल हो रहा था। अभी एक सप्ताह पहले डॉनल्ड ट्रंप ने टीवी डिबेट में देश में इन्फ़्लेशन में निरंतर तेज़ी से बढ़ती रफ़्तार पर चिंता जताई थी और दावा किया था कि उन्होंने अपने कार्यकाल में इन्फ़्लेशन बढ़ने नहीं दिया। इसके विपरीत डेमोक्रेट कमला हैरिस ने आधा प्रतिशत अंक की कटौती किए जाने का स्वागत किया है। फेड रिज़र्व के चेयरमैन ने विश्वास जताया है कि अब मंदी के दायरे से निकल चुके हैं। अब फ़ेड रिज़र्व की कोशिश है कि सन् 2025 के अंत तक ब्याज दरों को दो प्रतिशत वार्षिक और नीचे अर्थात् 2.75 से 3 % लाने की है।

फेड रिज़र्व के निर्णय का भारतीय बाज़ार पर अनुकूल असर पड़ने की संभावनाएँ जताई जा रही हैं। इसका भारत में टेक इंडस्ट्री पर तो असर पड़ेगा ही, अमेरिका से आयातित कम्यूटर और इलेक्ट्रॉनिक साज सामान भी सस्ता होगा। ईंधन की दरों में कमी से भारत को विदेशी मुद्रा में अथाह राहत मिलेगी। फेड रिज़र्व के इस निर्णय के बाद संभव है, आरबीआई अपने रेपो रेट में आधा अथवा चौथाई प्रतिशत अंक की कटौती कर क़ीमतों में कमी लाने के लिए सरकार को एक मौक़ा दे। ऐसा होता है, तो चुनाव में इसका लाभ मौजूदा सरकारों को मिल सकता है। एशियाई स्तर पर चीन क्या निर्णय लेगा, कहना कठिन है, जापान, कोरिया और हांगकांग में इस का असर देखा जाने लगा है। प्रारंभिक स्तर पर स्टर्लिंग, यूरो और युआन की दरों में किंचित् कमी आई है जबकि वीरवार को पेट्रोल ब्रेंट क्रूड और डब्ल्यूटीआई क्रूड आयल की क़ीमतों में कमी से बाज़ार में क़ीमतें कम होने की उम्मीदें लगाई जा सकती हैं। एशिया में हांगकांग मॉनिटरी अथारिटी ने तो रातों रात रेपो रेट में .50 प्रतिशत अंक की कटौती कर दी है।

अमेरिका में चुनाव की दृष्टि से रिपब्लिकन और डेमोक्रेट में रेपो रेट में कटौती से एक राजनैतिक बहस छिड़ गई है। फेड रिज़र्व इस बहस को निरर्थक मानता है। फेड रिज़र्व के चेयरमैन जेराम पावेल ने फेड रिज़र्व के निदेशक मंडल की बैठक में निर्णय के पश्चात् प्रेस कॉन्फ़्रेंस में कहा,’’ बोर्ड की नज़र में फेड रिज़र्व एक स्वायत्शासी निकाय है। वह न तो राजनीति से प्रभावित होता है और न ही राजनीति को हावी ही होने देता है। पिछले ढाई वर्ष से क़ीमते बढ़ रही थीं। मंदी की आशंकाएँ बढ़ती जा रही थीं। इस पर अंकुश लगाने के लिए लगातार प्रयास किए जा रहे थे। अर्थशास्त्री समूह में एक वर्ग बड़े स्तर पर उम्मीद कर रहे थे कि चौथाई अंक प्रतिशत रेपो रेट में कमी किया जाना श्रेयस्कर होगा। लेकिन क़ीमतों में कमी नहीं आने से कारपोरेट स्तर पर रोज़गार क्षेत्र प्रभावित हो रहा था। फेड का तर्क था कि भले ही वित्तीय डाटा ज्यादा प्रतिकूल नहीं थे, लेकिन रोज़गार को किसी भी स्थिति में उजड़ने का जोखिम नहीं उठाया जा सकता था।

उन्होंने कहा कि, ‘ हम अपनी इकानमी की हेल्थ और स्ट्रेंथ बनाए रखने के लिए कटिबद्ध हैं। इसके लिए प्रशासनिक स्तर आगे आने वाले समय में क्या किया जा सकता है, इसके लिए फेड रिज़र्व ने राजनैतिक स्तर पर भी एक रूपरेखा बना कर प्रेषित की थी। इसके लिए वित्तीय और रोज़गार के डाटा पर विचार किया गया था। कारपोरेट क्षेत्र से रोज़गार सिमट रहा था, जो किसी भी क़ीमत पर सहनीय नहीं था। रोज़गार मार्केट की ताक़त बनाए रखने के लिए आधा अंक प्रतिशत दर की कटौती ज़रूरी समझी गई। एक सवाल के जवाब में जेराम पावेल ने कहा कि उनके फेड रिज़र्व के कार्यकाल में उनका यह चौथा चुनाव है, और वह दावे के साथ कह सकते हैं कि इस बीच फेड रिज़र्व कभी राजनीति अथवा राजनीतिज्ञों से प्रभावित नहीं हुआ। फेड रिज़र्व चुनाव से पहले अथवा बीच में जब कोई निर्णय लेते हैं, वह मौजूदा डाटा के आधार पर ही निर्णय लेता है। हालाँकि इस निर्णय के विरुद्ध फेड गवर्नर मिशेल बोमन ने असहमती व्यक्त की। वह चौथाई प्रतिशत अंक के पक्षधर थीं। मिशेल की नियुक्ति डॉनल्ड ट्रंप ने 2018 में की थी।

बता दें, अमेरिका में चुनाव से पूर्व पिछले पाँच दशक में ऐसा शायद ही कोई मौक़ा आया होगा, जब रेपो रेट में कमी नहीं की गई होगी। वर्ष 1976 और 1984 में चुनाव से मात्र दस सप्ताह से भी कम समय में ब्याज दरों में कटौती की गई। इस बार बैंक ब्याज दरें अपनी सभी हदें पार कर चुका था। लोगों को घरों के मॉर्टगेज और कॉलेज स्टूडेंट को बैंक ऋण की बढ़ी हुई दरों के कारण ट्यूशन फ़ीस चुकाना मुश्किल हो रहा था, कारपोरेट जगत ने छँटनी शुरू कर दी थी। इन दिनों अमेरिका में प्राय: बैंकों जमा राशि पर ही ब्याज दर 4.75 से 5% है, जबकी ऋण पर इस से एक डेढ़ प्रतिशत ज्यादा 6.2 % है। यह बैंक ब्याज दर पिछले दो दशक में उच्चतम स्तर पर थी। इस से रोज़गार क्षेत्र भी प्रभावित हो रहा था।

डॉनल्ड ट्रंप का दावा: ट्रंप दावा कर रहे हैं कि उनके कार्यकाल में इन्फ़्लेशन पर अंकुश था, बाज़ार में वस्तुओं और सेवाओं के दाम कम और स्थिर रहने से सामान्य वर्ग सुखी था। इसके लिए ट्रंप ने फेड रिज़र्व के निर्णय को अनुचित बताया है। इसके विपरीत कमला हैरिस ने फेड रिज़र्व के निर्णय को स्वागत योग्य बताया है और कहा है कि इस से आम जन को बढ़ी हुई क़ीमतों से राहत मिलेगी। ट्रंप ने कहा है कि प्रेज़िडेंट का फेड रिज़र्व पर अंकुश होना चाहिए जब कि कमला हैरिस ने अहा है कि फेड रिज़र्व की स्वायत्तता क़ायम रखी जानी चाहिए। कांग्रेस में निचले सदन में हाउस वित्तीय समिति के अध्यक्ष रिपब्लिकन पैट्रिक मेकेनरी ने कहा है कि फेड रिज़र्व को राजनीतिक शोर-शराबे की चिंता नहीं करनी चाहिए। उन्हें वित्तीय डाटा के आधार पर निर्णय लेना चाहिए। यह भी कह दिया था कि उसे निर्भीक और स्वतंत्र हो कर फ़ैसला करना चाहिए। उनका कहना था कि फेड रिज़र्व के इस निर्णय से जन साधारण को लगेगा कि इकानमी वास्तव में ख़राब स्थिति में है। हुआ यह कि फेड निर्णय के एक दिन पहले रेपोरेट में कटौती को लेकर तीन डेमोक्रेट सीनेटर एलिज़ाबेथ वारेन, .75 प्रतिशत अंकों की कटौती की गुहार लगा चुकी थीं।

डाटा क्या कहते हैं: पिछले पाँच चुनाव में रेपो रेट में बढ़ोतरी हुई और छह में कटौती। ऐसे पाँच मौजूदा प्रेज़िडेंट ने फेड रिज़र्व की नीतियों के बल पर दोबारा चुनाव जीते हैं। हाँ सन् 2000 में डेमोक्रेट उपराष्ट्रपति अल गोर और रिपब्लिकन जार्ज बुश चुनाव जीत गये। तब फेड रिज़र्व ने चुनाव से ठीक पहले एक प्रतिशत अंक में बढ़ोतरी की थी। बता दे, कोविड की मार झेलते हुए फेड रिज़र्व ने सन् 2020 में ब्याज दर क़रीब शून्य कर दी थीं, इसके बाद 2021 में ब्याज दरें बढ़ाईं, पर थोड़े समय रहीं। इसके बाद ऐसा दौर आया कि ज़्यादातर ग्लोबल बैंकों ने इन्फ़्लेशन के मद्देनज़र अनुसरण किया। फिर रुस की और से यूक्रेन पर हमले से ऊर्जा के दाम बढ़ने से ज़रूरी जिंसों के दाम बढ़ गए। यह स्थिति 1970 में आई थी, जब फेड रिज़र्व ने धीरे धीरे अपर्याप्त कदम उठाए थे, ताकि माँग पर अंकुश लगे और क़ीमतें स्वत : नियंत्रण में आ जाएँ।

और अंत में ऐसा क्या हुआ कि जेराम पावेल को लगा कि रोज़गार मार्केट जिस तरह बिफर रही थी कि वह वित्तीय डाटा से भी ज्यादा विचलित करने वाली हो गई थी। जून जुलाई के महीने रोजगार मार्केट 3.7 % से 4.2 %पर आ गई थी। इस पर फेड रिज़र्व की जुलाई मीटिंग में साफ़ तौर पर एक बड़ी कटौती पर असहमति व्यक्त की गई । लेकिन अर्थ शास्त्रियों का एक दूसरे समूह का कथन है कि मार्केट में रोज़गार की स्थिति ऐसी भी नहीं थी, जो ख़तरे की घंटी हो। इकनॉमिक डाटा पर नज़र दौड़ाएँ तो वित्तीय मार्केट की स्थिति देखते हुए इतनी बड़ी कटौती की ज़रूरत नहीं थी। ऐसे में चौथाई अंक रेपो रेट में कमी काफ़ी थी।