
डॉ. योगिता राघव
आज देश उस काले अध्याय की पचासवीं बरसी पर खड़ा है, जिसे भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में “आपातकाल” (Emergency) के नाम से जाना जाता है। आज से पचास वर्ष पूर्व, 25 जून 1975 को, भारत में एक ऐसा अध्याय शुरू हुआ जिसने देश के लोकतांत्रिक ताने-बाने को झकझोर कर रख दिया। यह 21 महीने की अवधि न केवल राजनीतिक उथल-पुथल, सेंसरशिप और मौलिक अधिकारों के निलंबन के लिए जानी जाती है, बल्कि इसने भारतीय समाज के हर वर्ग को प्रभावित किया, जिसमें महिलाएं भी शामिल थीं। यह अवधि सिर्फ राजनीतिक दमन की ही नहीं, बल्कि महिलाओं पर हुए अत्याचारों और मानवाधिकार हनन की एक दुखद गाथा भी है। आपातकाल के पचास वर्ष बाद, यह आवश्यक है कि हम इस दौर में महिलाओं की भूमिका और अनुभवों पर एक व्यापक दृष्टि डालें, जो दमन, प्रतिरोध और अंततः सशक्तिकरण की एक जटिल गाथा है।
आपातकाल का शिकंजा और महिलाएँ: आपातकाल के दौरान, सरकार द्वारा थोपे गए कठोर नियमों का महिलाओं पर गहरा प्रभाव पड़ा। राजनीतिक विरोधियों की पत्नियों, माताओं और बहनों को अक्सर निशाना बनाया गया, उन्हें बेवजह हिरासत में लिया गया, धमकाया गया और प्रताड़ित किया गया। कई महिला कार्यकर्ताओं, जैसे कि जॉर्ज फर्नांडिस की पत्नी लैला फर्नांडिस, मधु लिमये की पत्नी पुष्पा लिमये को बिना किसी आरोप के जेल में डाल दिया गया। मीसा (आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम) के तहत हजारों गिरफ्तारियों में बड़ी संख्या में महिलाएं भी शामिल थीं, जिन्हें अक्सर पुरुष रिश्तेदारों की अनुपस्थिति में घरों से उठा लिया जाता था।
सेंसरशिप का प्रभाव केवल सूचना तक पहुंच पर ही नहीं पड़ा, बल्कि इसने महिलाओं के दैनिक जीवन को भी प्रभावित किया। प्रेस पर प्रतिबंधों के कारण लैंगिक हिंसा, घरेलू दुर्व्यवहार और महिलाओं के खिलाफ अन्य अपराधों की रिपोर्टिंग लगभग असंभव हो गई, जिससे वे और भी अधिक असुरक्षित हो गईं। परिवार नियोजन कार्यक्रम के तहत थोपी गई नसबंदी के अभियान ने भी महिलाओं को बुरी तरह प्रभावित किया। जहां पुरुषों को जबरन नसबंदी का सामना करना पड़ा, वहीं महिलाओं को भी इस अभियान का शिकार बनाया गया, अक्सर बिना उनकी सहमति के या उन्हें पर्याप्त जानकारी दिए बिना। यह उनके शारीरिक स्वायत्तता का घोर उल्लंघन था। आपातकाल में जिन समुदायों को सबसे ज्यादा दमन झेलना पड़ा, उनमें दलित, आदिवासी और विशेषकर गरीब और हाशिये पर खड़ी महिलाएं भी थीं। पुलिसिया उत्पीड़न, सामूहिक बलात्कार, झूठे केसों में फंसाना और हिरासत में अमानवीय व्यवहार, ये घटनाएं उस दौर के काले सच को बयां करती हैं। हाशिए पर खड़ी इन महिलाओं को न्याय तक पहुंचने का कोई रास्ता नहीं था, क्योंकि न्यायपालिका भी तब सत्ता के आगे झुकी हुई थी।
प्रतिरोध की आवाज़ें: इस दौर में जहां अधिकांश लोग डर और दमन के चलते चुप थे, वहीं कई महिलाओं ने साहसिक नेतृत्व दिखाया। दमन के इस अंधकार में भी प्रतिरोध की मशालें जलीं। महिलाएं भूमिगत आंदोलनों का हिस्सा बनीं, गुप्त बैठकों, साहित्य वितरण और विरोध आयोजनों में उन्होंने बड़ी भूमिका निभाई। कई महिलाएं पत्रकारों और कार्यकर्ताओं के लिए संदेशवाहक बनीं और जोखिम उठाकर लोकतंत्र की लौ जलाए रखी। जेलों के भीतर भी महिलाओं ने प्रतिरोध की भावना बनाए रखी। उन्होंने राजनीतिक कैदियों के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई, भूख हड़ताल की और एकजुटता प्रदर्शित की। इंदिरा गांधी की नीतियों के खिलाफ सबसे मुखर आवाज़ों में से कुछ महिलाएँ थीं, जिन्होंने खुले तौर पर सरकार की आलोचना की, भले ही उन्हें इसके गंभीर परिणाम भुगतने पड़े।
जेपी आंदोलन में युवा छात्राओं से लेकर गृहिणियों तक की सक्रिय भागीदारी देखी गई। सुचित्रा कृपलानी, अरुणा आसफ अली, उमा भारती, मीनाक्षी मुखर्जी जैसी महिलाएं उस समय सरकार के विरुद्ध स्पष्ट और दृढ़ विरोध की प्रतीक बनीं। समाजसेवी और कार्यकर्ता मृणालिनी साराभाई जैसी कई महिलाओं ने कला और संस्कृति के माध्यम से विरोध व्यक्त किया। उन्होंने नृत्य, नाटक और लेखन के माध्यम से आपातकाल की ज्यादतियों को उजागर किया और लोगों को जागरूक करने का प्रयास किया। ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में भी महिलाओं ने अपने पारंपरिक तरीकों से, जैसे कि लोकगीतों और कहानियों के माध्यम से, असंतोष व्यक्त किया। इस काल में हजारों महिलाओं को जेल में डाल दिया गया। इन जेलों में उन्होंने जो कठिनाइयाँ सहीं, उनका वर्णन आज के लोकतांत्रिक मूल्य को समझने में सहायक है। इला भट्ट, मधु लिमये की पत्नी पुष्पा जैसी महिलाओं ने जेल से बाहर आकर आपातकाल की क्रूरता का दस्तावेजीकरण किया।
आपातकाल के बाद: चेतना से सशक्तिकरण तक: आपातकाल के अनुभवों ने महिलाओं में राजनीतिक और सामाजिक चेतना को नई धार दी। आपातकाल समाप्त होने के बाद, महिलाओं के अधिकारों और सशक्तिकरण के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण बदलाव देखे गए। उन्होंने महसूस किया कि उनके मौलिक अधिकार कितने नाजुक हो सकते हैं, और उन्हें अपने अधिकारों की रक्षा के लिए संगठित होने की आवश्यकता है। आपातकाल के बाद महिलाओं के मुद्दों पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा। महिलाओं के अधिकारों के लिए कई नए संगठन बने और मौजूदा संगठनों ने अपनी गतिविधियों को तेज किया। लैंगिक समानता, घरेलू हिंसा और कार्यस्थल पर उत्पीड़न जैसे मुद्दों पर सार्वजनिक बहस शुरू हुई। सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तनों में से एक कानूनी सुधारों की दिशा में प्रयास थे। महिलाओं के खिलाफ अपराधों से संबंधित कानूनों की समीक्षा की गई और कई नए कानून बनाए गए या मौजूदा कानूनों को मजबूत किया गया। यह आपातकाल के दौरान हुए अनुभवों का सीधा परिणाम था, जिसने महिलाओं के लिए कानूनी सुरक्षा की आवश्यकता को रेखांकित किया।
आपातकाल ने भारतीय महिलाओं को यह सिखाया कि दमन के बावजूद, प्रतिरोध संभव है और सामूहिक कार्रवाई से परिवर्तन लाया जा सकता है। इसने उन्हें राजनीतिक और सामाजिक रूप से अधिक सक्रिय होने के लिए प्रेरित किया। आज, हम देखते हैं कि महिलाएं भारतीय राजनीति, व्यापार, विज्ञान और कला के हर क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। आपातकाल का अनुभव एक कठोर अनुस्मारक के रूप में कार्य करता है कि लोकतंत्र कितना कीमती है और इसे बनाए रखने के लिए निरंतर सतर्कता और महिलाओं सहित सभी नागरिकों की सक्रिय भागीदारी कितनी आवश्यक है।
सबक और प्रेरणा: आपातकाल का कालखंड भले ही दमन और अन्याय का प्रतीक रहा हो, लेकिन महिलाओं के संदर्भ में यह प्रतिरोध, आत्मबल और बदलाव की एक प्रेरक गाथा भी है। यह अनुभव बताता है कि जब लोकतंत्र खतरे में होता है, तब महिलाएं सिर्फ पीड़िता नहीं होतीं, वे संघर्ष की अग्रिम पंक्ति में होती हैं। यह वह दौर था जिसने भारतीय महिलाओं को न केवल अपनी आवाज उठाने के लिए प्रेरित किया, बल्कि उन्हें एक ऐसे भविष्य की ओर धकेला जहां वे अपने अधिकारों के लिए लड़ सकें और समाज में अपनी जगह बना सकें। आपातकाल की विरासत आज भी हमें याद दिलाती है कि एक जीवंत लोकतंत्र के लिए महिलाओं की स्वतंत्रता, समानता और भागीदारी कितनी अपरिहार्य है।
आज, जब हम लोकतंत्र के 75 वर्षों का उत्सव मना रहे हैं, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि महिलाओं की स्वतंत्रता और समान भागीदारी के बिना कोई लोकतंत्र पूर्ण नहीं हो सकता। आपातकाल की स्मृति हमें इसी सच्चाई की याद दिलाती है।
डॉ. योगिता राघव
लेखिका अखिल भारतीय विधार्थी परिषद, गुरुग्राम महानगरअध्यक्ष