- क्रांतिकारी युवती उषा मेहता के चरित्र के साथ सारा अली खान ने न्याय किया…
- पहली बार किसी हिंदी फिल्म में डॉक्टर राममनोहर लोहिया के चरित्र को भी प्रस्तुत किया गया …
- डॉ लोहिया का किरदार निभाकर इमरान हाशमी ने अपने सारे ‘पाप’ धो लिए!..
गिरीश पंकज
देश की आजादी की लड़ाई के समय कुछ लोग जो शहीद हो गए, उन पर तो अनेक फिल्में बन गई लेकिन जो आजादी की लड़ाई लड़ते हुए कुछ वर्षों तक जेल में रहे, पुलिस की यातनाएं भी सही और आजादी के बाद सामाजिक जीवन में भी एक जागरुक देशभक्त के रूप में सक्रिय रहे, उन पर नहीं के बराबर फिल्में बनी। लेकिन भला हो मशहूर फ़िल्म निर्माता करण जौहर का, जिसने डॉ उषा मेहता के जीवन पर आधारित फिल्म ‘ए वतन मेरे वतन’ बनाने के लिए बड़ी रकम खर्च की। और एक शानदार दर्शनीय फिल्म तैयार हो गई। फ़िल्म इसी वर्ष 9 मार्च, 2024 को रिलीज हुई। नई पीढ़ी के युवक-युवतियों को शायद इस फिल्म के माध्यम से पता चले कि सन 1942 में जब महात्मा गांधी ने पूरे देश को ‘करो या मरो’ और ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का नारा दिया तो उस नारे से प्रभावित होकर 22 वर्षीय उषा मेहता ने भी कंधे-से-कंधा मिलाकर नारा लगाया। हालांकि उषा बाल्य काल से ही महात्मा गांधी से प्रभावित थी। उषा मेहता (सारा अली खान) के पिता हरिप्रसाद मेहता (सचिन खेडेकर) अंग्रेज़ों जज थे। जिनसे वे समय-समय पर उपकृत होते रहते थे इसलिए नहीं चाहते थे कि उनकी बेटी आजादी के संघर्ष में इस तरह भाग ले । एक बार पिता उसे कमरे में बंद कर देते हैं लेकिन उषा खिड़की के रास्ते निकल भागती है और खादी वस्त्र पहनकर अपने साथियों के साथ आजादी की लड़ाई में सक्रिय भाग लेने लगती है । महात्मा गांधी के कारण ही उषा ब्रह्मचर्य का व्रत भी ले लेती है,जिसे उनका एक साथी पसन्द नहीं करता। लेकिन बाद में उसे बात समझ में आती है और वह भी आंदोलन में सक्रिय भाग लेने लगता है । उषा अपने दो साथियों के साथ करो या मरो के नारे के साथ देश की आजादी के लिए भिड़ जाती है। उनके साथ दो मित्र भी जुड़ जाते हैं फहाद (स्पर्श श्रीवास्तव) और कौशिक (अभय वर्मा) उषा मेहता गुप्त रूप से एक रेडियो संचालित करती थीं, जिसे ‘कांग्रेस रेडियो’ का नाम दिया गया। उस रेडियो के सहारे उस समय के युवा क्रांतिकारी डॉ राममनोहर लोहिया भी समय-समय पर अपने संदेश प्रसारित किया करते थे और गुप्त रूप से बैठकर करके उषा मेहता और उनके साथियों का मार्गदर्शन किया करते थे। हालांकि यह गुप्त रेडियो तीन महीने तक ही चल पाया उषा मेहता पुलिस की छापेमारी से बचने के लिएबार-बार स्थान बदल लेती थीं लेकिन अंतत पुलिस उन्हें गिरफ्तार कर लेती है । हालांकि प्रसारण बहुत लंबे समय तक नहीं चला, लेकिन चंद महीने में पूरे देश में एक वातावरण तो बन ही गया । लोगों में देश प्रेम का जज्बा तैयार हुआ। लोग वंदे मातरम और करो या मरो का नारा लगाते हुए सड़कों पर उतरे। स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेज पुलिस की गोलियाँ और लाठियां खाई। फिल्म में पुलिस के गोली चालन और लाठी प्रहार के दृश्य को मानों जीवंत कर दिया। कुछ दृश्य तो द्रवित कर देते हैं । उषा मेहता के रूप में सारा अली खान ने अपने चरित्र से पूरा न्याय किया है ।इस फिल्म से बॉलीवुड की इस लोकप्रिय अदाकारा की एक अलग छवि उभरी है। इस फिल्म के लिए अगर सारा अली खान को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का खिताब दिया जाए तो यह अतिरंजित बात न होगी । जो काम जापान में बैठकर नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने किया, उसका छोटा स्वरूप ‘रेडियो कांग्रेस’ को कह सकते हैं । उषा द्वारा गुप्त रूप से रेडियो का संचालन करना बेहद कठिन काम था इसलिए पुलिस की छापामारी से बचने केलिए उषा मेहता और उनके दो साथी स्थान बदल लेते थे। लेकिन अंतत: उषा मेहता गिरफ्तार होती हैं। उन्हें बर्फ की सिल्लियों पर लिटाया जाता है। उनके चेहरे को जूते से कुचला जाता है। उनके साथ मारपीट की जाती है। लेकिन वह हर बार वंदे मातरम का जय घोष करती रहती हैं।बाद में उन्हें यरवदा जेल भेज दिया जाता है, जहां वे चार साल तक कैद में रहती हैं। 1946 में जब मोरारजी देसाई के नेतृत्व में अंतरिम सरकार बनी तब वह रिहा हो सकीं। हुई यह फिल्म युवा उषा मेहता के संघर्ष के लिए तो याद की जाएगी। लेकिन इसलिए भी याद की जाएगी कि आजादी के पिछले 75 वर्षों में यह पहली बार हुआ है कि समाजवाद के अप्रतिम नायक विचारक और प्रखर स्वतंत्रता सेनानी डॉक्टर राममनोहर लोहिया को पहली बार परदे पर उतारा गया है । जहां तक मुझे ज्ञात है किसी भी हिंदी फिल्म में आज तक राम मनोहर लोहिया का नाम तक नहीं लिया गया। लेकिन इस फिल्म में राममनोहर लोहिया एक सशक्त पात्र के रूप में सामने आते हैं । और उनके किरदार को निभाने का काम एक ऐसे कलाकार ने किया है, जिसे हम सब इमरान हाशमी के रूप में जानते हैं। जो चुंबन के दृश्यों के लिए ज्यादा कुख्यात हैं। लेकिन इस फिल्म में उन्होंने डॉक्टर राममनोहर लोहिया के व्यक्तित्व को जीने की भरपूर कोशिश की है। फिल्म में डॉक्टर लोहिया बने इमरान हाशमी को देखकर मुझे लगा है कि डॉक्टर राम मनोहर लोहिया का किरदार निभा कर इमरान हाशमी ने अब तक के अपने सारे ‘पाप’ धो लिए। फहाद के रूप में स्पर्श श्रीवास्तव ने भी विशेष प्रभाव छोड़ा। कई जगह तो उनका अभिनय रुला देता है। पोलियोग्रस्त युवक के रूप में उसने दमदार अभिनय किया है। इसके पहले स्पर्श फिल्म जामताड़ा और लापता लेडीज़ में धूम मचा चुके हैं। फिल्म निर्देशक कन्नन अय्यर ने अपनी प्रतिभा का भरपूर इस्तेमाल किया है। फिल्म का गीत संगीत बहुत अधिक प्रभावित तो नहीं करता लेकिन कहीं-कहीं लगता है फिल्म को गति प्रदान करने के लिए कुछ सहायक बन रहा है। अंग्रेजों की भूमिका में विदेशी कलाकारों ने भी अपने अभिनय से उसे समय के अंग्रेजो की क्रूरता को जीवंत कर दिया है। कुल मिलाकर यह फिल्म सभी भारतीयों को देखनी चाहिए। और खासकर युवा पीढ़ी को और उसमें भी युवतियों को। उस दौर में जब लड़कियों पर सौ तरह के प्रतिबंध रहते थे, तब उषा मेहता नामक युवती जज पिता से बगावत करती है और आजादी की लड़ाई में कूद पड़ती है।
अब चलते-चलते एक और बात कहना चाहता हूँ। मन की बात। काश, भविष्य में डॉक्टर राममनोहर लोहिया के जीवन पर भी कोई बायोपिक बने । हालांकि यह एक यक्ष प्रश्न है लेकिन हो सकता है कभी किसी के मन में यह ख्याल आ जाए और उसके पास भरपूर बजट भी हो । दीपेंद्र हुड्डा ने इसी साल वीर सावरकर भी पर एक साहसिक फिल्म बनाई । बड़ी मेहनत करके अपने आप को उनके कैरेक्टर में ढाला भी । उम्मीद की जा सकती है कि भविष्य में डॉक्टर लोहिया पर विभिन्न बनेगी। उनका जीवन भी संघर्षपूर्ण रहा। आजादी के पहले वह प्रखर स्वतंत्रता सेनानी थे। उन्होंने भी जेल की यातनाएँ सही और आजादी के बाद जन प्रतिनिधि के रूप में उन्होंने संसद में अपनी जैसी वैचारिक उपस्थित दर्ज की वैसी उपस्थित बहुत कम नेता दे सके। उनका प्रगतिशील राजनीतिक, सामाजिक और भाषाई चिंतन आज भी हम जैसे अनेक लोगों को लेखन की सही दिशा प्रदान करता रहता है।