प्रो. नीलम महाजन सिंह
पिछले 10 वर्षों के बाद उमर अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के मुख्य मंत्री बने हैं। प्रजातंत्र एक बार फिर से स्थापित हो गया है। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के सामने आने वाली चुनौतियाँ का विवरण व अध्ययन अवश्यक है। उमर अब्दुल्ला ने भले ही कश्मीर के लिए भाजपा की योजनाओं को विफल कर दिया हो, लेकिन अब उन्हें शासन करना है, जबकि केंद्रीय सत्ता के मुख्य लीवर बीजेपी के पास हैं। जम्मू-कश्मीर नैशनल कॉन्फ्रेंस के उपाध्यक्ष, उमर अब्दुल्ला हाल ही में श्रीनगर में डल झील पर ‘शिकारा’ रैली में पार्टी के झंडे फहराते हुए नज़र आये थे। उमर अब्दुल्ला यह स्वीकार करने वाले पहले व्यक्ति हैं कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव जीतना शायद आसान ही था। परंतु जम्मू-कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस (JKNC) के उपाध्यक्ष के रूप में, उन्होंने अपनी पार्टी के साथ-साथ भारत ब्लॉक पार्टनर, (I.N.D.I.A.) कांग्रेस के साथ मिलकर बहुमत हासिल करके चुनावी इतिहास रच दिया है। ऐसा करके, उन्होंने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की अपने दम पर सरकार बनाने व जम्मू-कश्मीर के इतिहास में पहली बार भाजपा के मुख्यमंत्री को नियुक्त करने की योजना को विफल कर दिया है। लेकिन उमर इस बात से पूरी तरह वाकिफ हैं कि 2008 से 2014 के बीच मुख्यमंत्री के तौर पर उनके पिछले कार्यकाल के विपरीत, जब उन्होंने जे.के.एन.सी.-कांग्रेस गठबंधन का नेतृत्व किया था, उनका दूसरा कार्यकाल बड़ी चुनौतियों से भरा है। जैसा कि वे कहते हैं, “अपनी पहली पारी में, मैं सबसे सशक्त राज्य का सीएम था। लेकिन अब जम्मू-कश्मीर देश का सबसे कम सशक्त केंद्र शासित प्रदेश है। साथ ही, जीत भले शानदार हो, लेकिन लोगों की उम्मीदें बहुत बड़ी होने के कारण, डरावनी भी हैं।” अपने घोषणापत्र में, जेकेएनसी ने 12 गारंटियां दी हैं, जिसमें अनुच्छेद 370, 35-ऐ, की बहाली, कश्मीर पर भारत-पाकिस्तान वार्ता को आगे बढ़ाना, राजनीतिक कैदियों की रिहाई सुनिश्चित करना व स्थानीय लोगों के लिए भूमि और नौकरी के अधिकार आरक्षित करने के लिए कानून बनाने शामिल हैं। उमर अबदुल्ला का कहना है कि उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता लोगों के रोज़मर्रा के मुद्दों, जैसे नौकरी, मुद्रास्फीति व नागरिक सुविधाओं का प्रावधान करना है। इसका मतलब होगा बिजली, गैस व भोजन जैसी मुफ़्त सुविधाओं के अपने वादे को लागू करना है। हालाँकि, केंद्र द्वारा राज्य में अधिकांश वित्त का वितरण व नियंत्रण करने के साथ, उमर को यह काम पूरा करने के लिए केंद्र सरकार के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखने होंगें। कश्मीर में कई लोगों का तर्क है कि यह, नेशनल कॉन्फ्रेंस के लिए मैदानी इलाकों में अपनी संभावनाओं को पुनर्जीवित करने का अवसर है। पहले आंशिक रूप से भाजपा की नीतियों और उनके परिणामों के प्रति उनका मुखर विरोध था, जिसमें राज्यों की शक्तियों में कटौती, जम्मू-कश्मीर में राज्य की भूमि को ‘लोगों से वापस लेने के लिए अतिक्रमण विरोधी अभियान’, उच्च बेरोज़गारी, बिजली बिलों में वृद्धि शामिल है – जिसने जे.के.एन.सी. को सत्ता में पहुंचा दिया है। उमर की पार्टी को मोदी सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के बाद; नई दिल्ली की नीतियों के हमलों का मुकाबला करने के लिए ढाल के रूप में भी देखा जा रहा है। देश भर में कथित मुस्लिम विरोधी पहलुओं के लिए घाटी में भाजपा को संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है। हाल ही में पेश किए गए ‘वक्फ संशोधन विधेयक’ ने विशेष रूप से तीव्र नाराज़गी पैदा की है। जम्मू में एक चुनावी रैली में भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव तरुण चुग, केंद्रीय राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह व अन्य नेताओं ने जम्मू के हितों को सुरक्षित रखने का वादा किया है। इस बीच, भाजपा सबसे अधिक वोट शेयर वाली पार्टी के रूप में उभरने का श्रेय ले सकती है। जे.के.एन.सी. के 23.4 प्रतिशत व कांग्रेस के 12 प्रतिशत की तुलना में भाजपा को 25.6 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए हैं। यह जम्मू में नागरिक और विकास संबंधी मुद्दों पर, क्षेत्र में स्पष्ट असंतोष के बावजूद 29 सीटें जीतने से, भाजपा उत्साहित हो सकती है। चुनाव के शांतिपूर्ण संचालन को सुनिश्चित करने के लिए मोदी सरकार व चुनाव आयोग प्रशंसा के पात्र हैं, जिसमें अधिकांश निर्वाचन क्षेत्रों में 65 से 80 प्रतिशत से अधिक मतदान हुआ। जम्मू में, भाजपा ने नए चेहरों के लिए जगह बनाने के लिए अपने कई दिग्गजों को चतुराई से हटा दिया था। इस बात पर भी व्यापक रूप से अभियान चलाया गया कि, कैसे अनुच्छेद 370 के निरस्त होने से क्षेत्र में शांति आई है और केवल भाजपा ही घाटी की इसकी बहाली की मुखर मांग को विफल कर सकती है। इस तर्क ने नागरिक मुद्दों की चिंताओं को दरकिनार कर दिया व भाजपा को जम्मू में बड़ी जीत मिली। जम्मू-कश्मीर की विशेषज्ञ होने के नाते, मैं यह कह सकती हूं कि भाजपा ने निश्चित रूप से क्षेत्र में शांति लाने में सराहनीय भूमिका निभाई है। भाजपा भाग्यशाली थी कि कांग्रेस ने प्रशासन के ख़िलाफ लोगों के गुस्से के बावजूद खराब प्रदर्शन किया। लेकिन नतीजे भाजपा और मोदी सरकार दोनों के लिए झटका हैं।
आखिरकार, उन्होंने पिछले पांच सालों से जम्मू-कश्मीर में सत्ता के सभी संस्थाओं को नियंत्रित किया था। परिसीमन प्रक्रिया के माध्यम से, वे जम्मू में सीटों की संख्या छह से बढ़ाने में सक्षम थे; 37 से 43 तक, जबकि कश्मीर को केवल एक अतिरिक्त सीट देकर, संख्या 46 से 47 हो गई। परिसीमन प्रक्रिया में जम्मू में 9 निर्वाचन क्षेत्रों को भी अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित किया गया। इसके साथ ही, भाजपा ने पहाड़ी समुदाय को आरक्षित श्रेणी में शामिल करके उन्हें अपने पक्ष में करने की कोशिश की। लेकिन मुस्लिम आदिवासी मतदाताओं को लुभाने के पार्टी के प्रयासों के बावजूद, यह कोई प्रभाव डालने में विफल रहा। जे.के.एन.सी. व कांग्रेस गठबंधन ने सात सीटें जीतीं। एस.सी. व एस.टी. के लिए आरक्षित दो अन्य सीटें निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीतीं। जे.के.एन.सी. के वोट में कटौती करने के लिए गुलाम नबी आज़ाद ने जम्मू-कश्मीर में अपनी पार्टी, ‘डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव आज़ाद पार्टी (डीपीएपी)’ बनाई, जो प्रॉक्सी के अलावा कोई कामयाबी नहीं पा सकी। इस चुनाव का एक और झटका पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की अध्यक्षता वाली पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पी.डी.पी.) का पूर्ण सफाया है। 90 सीटों वाली विधानसभा में पी.डी.पी. तीन सीटों पर सिमट गई, जिसमें केवल कुपवाड़ा, पुलवामा और त्राल में ही जीत हासिल हुई। एन.सी. ने दक्षिण कश्मीर में जीत हासिल की, जिसे पीडीपी का गढ़ माना जाता था, और अनंतनाग ज़िले की सभी चार सीटें जीत लीं। इनमें मुफ़्ती परिवार का गढ़, श्री गुफ़वारा – बिजबेहरा निर्वाचन क्षेत्र भी शामिल है, जहाँ से महबूबा की बेटी, इल्तिजा मुफ़्ती ने अपना चुनावी पदार्पण किया, लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा। 37 वर्षीय इल्तिजा जे.के.एन.सी. नेता बशीर अहमद वीरी से हार गईं, जिससे इस सीट पर 1996 से मुफ़्ती परिवार का तीन दशक पुराना, राजनीतिक वर्चस्व समाप्त हो गया। सारांंशार्थ हमें याद रखना चाहिए कि जम्मूमू-कश्मीर भारत का ताज है। साथ ही भारत की सीमाएँ पाकिस्तान के साथ मिली हुई हैं। इसलिए उप-राज्यपाल मनोज सिन्हा को भी उमर अब्दुल्ला सरकार को सहयोग देना चाहिए, ताकि जम्मू-कश्मीर में शांति के फूल खिले और आतंकवाद की बेड़ियों को तोड़ा जाए। हालाँकि, सभी राजनीतिक खिलाड़ियों को अब जम्मू-कश्मीर को बारूदी सुरंग क्षेत्र नहीं बनाना चाहिए व इस संवेदनशील सीमा क्षेत्र में शांति और विकास सुनिश्चित करने के लिए तुच्छ राजनीतिक विचारों से ऊपर उठना चाहिए। वैसे उमर अब्दुल्ला पीएम अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में विदेश मंत्रालय के राज्य मंत्री रह चुके हैं। “गर फिरदौस, बर रूहे ज़मीन अस्त, हमीं अस्तो, हमीं अस्त, हमीं अस्त।” (अगर इस धरती पर कहीं स्वर्ग है, तो वह यहीं है, यहीं है, यहीं है”); कवि अमीर खुसरो द्वारा विस्मय में बोले गए ये शब्द, कश्मीर घाटी में आज भी इसी भावना को जागृत करते हैं।
(वरिष्ठ पत्रकार, राजनीतिक विश्लेषक, दूरदर्शन व्यक्तित्व, सॉलिसिटर फॉर ह्यूमन राइट्स संरक्षण व परोपकारक)