
ललित गर्ग
केरल भारत का पहला राज्य बन गया है जिसने वरिष्ठ नागरिकों के लिए आयोग स्थापित करने के लिए एक कानून पारित किया है। यह एक सराहनीय एवं स्वागत योग्य पहल होने के बावजूद एक बड़ा सवाल भी खड़ा करती है कि आखिर भारत के बुजुर्ग इतने उपेक्षित एवं प्रताड़ित क्यों है? केरल जैसे शिक्षित राज्य में ही इस आयोग को बनाने की जरूरत क्यों सामने आयी? केरल में क्यों सामाजिक सुरक्षा, स्नेह, सुरक्षा की वह छांव लुप्त होती जा रही है, जिसमें बुजुर्ग खुद को सुरक्षित महसूस कर सकें। क्यों केरल में ही बुजुर्ग सर्वाधिक अकेलेपन एवं एकाकीपन का संत्रास झेलने को विवश हो रहे है? केरल में कई बुजुर्ग लोगों को युवा पीढ़ी के हाथों गरीबी और दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ रहा है। इस प्रांत में कई गांव ऐसे हैं जहां केवल बुजुर्ग ही बचे हैं, प्रश्न है कि ऐसा क्यों हो रहा है? यूं तो समूचे देश में बुजुर्गों की लगभग यही स्थिति बन रही है, जो सामाजिक व्यवस्था पर एक बदनुमा दाग है।
केरल योजना बोर्ड के आंकड़ों के अनुसार, दक्षिणी राज्य पूरे भारत की तुलना में अधिक तेजी से वृद्ध हो रहा है। 1961 में, केरल में 60 वर्ष से अधिक आयु के लोगों की संख्या कुल जनसंख्या का 5.1 प्रतिशत थी, जो राष्ट्रीय औसत 5.6 प्रतिशत से थोड़ा कम थी। हालांकि, 1980 के दशक तक, राज्य ने बाकी राज्यों को पीछे छोड़ दिया। 2001 तक यह हिस्सा बढ़कर 10.5 प्रतिशत हो गया, जबकि राष्ट्रीय औसत 7.5 प्रतिशत था। 2011 में यह 12.6 प्रतिशत था, जबकि राष्ट्रीय औसत 8.6 प्रतिशत था। केरल के योजना बोर्ड के अनुसार, 2015 में यह बढ़कर 13.1 प्रतिशत हो गया, जबकि राष्ट्रीय औसत 8.3 प्रतिशत था। अब, दक्षिणी राज्य में 60 वर्ष और उससे अधिक आयु के लगभग 4.8 मिलियन लोग हैं। इसके अलावा, बुज़ुर्ग समूह का 15 प्रतिशत 80 वर्ष से अधिक आयु का है, जो इसे बुज़ुर्ग लोगों के बीच सबसे तेज़ी से बढ़ने वाला आयु समूह बनाता है। 60 से अधिक आयु वर्ग में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या अधिक है और उनमें से अधिकांश विधवाएं हैं। मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने बुधवार को पारित इस कानून की सराहना करते हुए कहा कि यह नया आयोग बुजुर्गों के अधिकारों, कल्याण और पुनर्वास पर ध्यान केंद्रित करेगा।
देश में बुजुर्गों की हालत दिन-ब-दिन जटिल होती जा रही है। केरल देश के सबसे शिक्षित राज्यों में शुमार होता है तो बुजुर्गों के प्रति बरती जा रही उपेक्षा, उदासीनता एवं प्रताड़ना में भी सबसे आगे है। लगभग 94 फीसदी साक्षरता वाले इस राज्य में बुजुर्ग शिक्षित युवाओं के पलायन का संत्रास झेल रहे हैं। राज्य के करीब 21 लाख घरों में युवाओं के पलायन करने के कारण सिर्फ बुजुर्ग बचे हैं। गांव के गांव पलायन का दंश झेलते हुए वीरान हो चुके हैं। लाखों घरों में सिर्फ ताले लटके नजर आते हैं। खाड़ी के देशों में जाकर सुनहरा भविष्य तलाशने की होड़ में इसी प्रांत के सर्वाधिक युवा है। भले ही इस प्रांत ने सर्वाधिक शिक्षा से प्रगतिशील सोच दी है, लेकिन अंतहीन भौतिक लिप्साओं को भी जगाया है, जिससे ही बुजुर्गों की उपेक्षा या उनको उनके हाल पर छोड़ देने की विकृत मानसिकता एवं त्रासदी उभरी है। वृर्द्धों की उपेक्षा देशभर में देखने को मिल रही है, हाल के वर्षों में केरल के बाद पंजाब-हरियाणा में भी नजर आ रही है। वैसे तो यह हमारे नीति-नियंताओं की नाकामी का भी परिणाम है कि हम युवाओं को उनकी योग्यता-आकांक्षाओं के अनुरूप रोजगार देश में नहीं दे पाए। उन्हें न अपनी जन्मभूमि का सम्मोहन रोकता है और न ही यह फिक्र कि उनके जाने के बाद बुजुर्ग माता-पिता का क्या होगा? एकाकीपन का त्रास झेलते केरल के इन गांवों में बुजुर्गों के पास पैसा तो है मगर समाधान नहीं है। कुछ वृद्धों के पास तो धन का अभाव भी इस समस्या को विकराल रूप दे रहा है। राज्य में वृद्ध लोगों की संख्या बढ़ने के साथ ही बुजुर्गों के अधिकारों पर लगातार हमले हो रहे हैं।
भारत में बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार, उपेक्षा एवं उदासीनता एक बढ़ती चिंता का विषय है, उनका एकाकीपन एवं अकेलापन उससे बड़ी समस्या है। केरल के वृद्ध-संकट को महसूस करते हुए वहां की सरकार ने वरिष्ठ नागरिक आयोग बनाया है, जो एक सूझबूझभरा कदम है। लेकिन यह वक्त बताएगा कि भ्रष्ट अफसरशाही व घुन लगी व्यवस्था में ये आयोग कितना कारगर होगा? लेकिन फिर भी जिस राज्य में हर पांचवें घर से एक व्यक्ति विदेश चला गया है, वहां ऐसा आयोग एक सीमा तक तो समस्या के समाधान की दिशा में रोशनी बनेगा। जरूरत है सरकारी अधिकारी संवेदनशीलता एवं इंसानियत से बुजुर्गों की समस्याओं का समाधान करने के लिये आगे आये। केरल की सामाजिक न्याय मंत्री आर. बिंदु के अनुसार आयोग समृद्ध और निम्न आय वाले दोनों ही परिवारों के वृद्ध व्यक्तियों के शोषण की समस्या का महत्वपूर्ण समाधान करेगा। जो वरिष्ठ नागरिकों की देखभाल, उनकी गरिमा, कल्याण और जीवन की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए आवश्यक है। उम्र बढ़ने के साथ-साथ लोगों को अक्सर स्वास्थ्य में गिरावट, अकेलेपन और वित्तीय असुरक्षा जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। आवश्यक सहायता प्रदान करने से अधिक समावेशी और दयालु समाज बनाने में मदद मिलती है।
निस्संदेह, बुजुर्गों की आवश्यकताएं सीमित होती हैं। लेकिन उनका मनोबल बढ़ाने की जरूरत है। सबसे ज्यादा जरूरी उनकी स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं दूर करना है। बेहतर चिकित्सा सेवा व घर-घर उपचार की सहज उपलब्धता समस्या का समाधान दे सकती है। वैसे अकेले रह रहे बुजुर्गों को भी इस दिशा में पहल करनी होगी। सामाजिक सक्रियता एवं मनोबल इसमें सहायक बनेगा। नीति-नियंताओं को सोचना होगा कि अगले दशकों में देश युवा भारत से बुजुर्गों का भारत बनने वाला है। वर्ष 2050 तक भारत में साठ साल से अधिक उम्र के 34.7 करोड़ बुजुर्ग होंगे। क्या इस चुनौती से निपटने को हम तैयार हैं? क्या केरल की तरह अन्य राज्यों की सरकारें एवं केन्द्र सरकार लगातार बुजुर्गों से जुड़ी समस्याओं के लिये ठोस कदम उठायेगी? वसुधैव कुटुम्बकम् की बात करने वाला देश एवं उसकी नवपीढ़ी आज एक व्यक्ति, एक परिवार यानी एकल परिवार की तरफ बढ़ रहे हैं, वे अपने निकटतम परिजनों एवं माता-पिता को भी बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं, उनके साथ नहीं रह पा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी गतदिनों हाईकोर्ट के अनेक फैसलों को पलटते हुए सराहनीय पहल की है। जिनमें अब बुजुर्ग माता-पिता से प्रॉपर्टी अपने नाम कराने या फिर उनसे गिफ्ट हासिल करने के बाद उन्हें यूं ही छोड़ देने, वृद्धाश्रम के हवाले कर देने, उनके जीवनयापन में सहयोगी न बनने की बढ़ती सोच पर विराम लगेगा, क्योंकि यह आधुनिक समाज का एक विकृत चेहरा है।
संयुक्त परिवारों के विघटन और एकल परिवारांे के बढ़ते चलन ने वृद्धों के जीवन को नरक बनाया है। बच्चे अपने माता-पिता के साथ बिल्कुल नहीं रहना चाहते। ऐसे बच्चों के लिए सावधान होने का वक्त आ गया है, सुप्रीम कोर्ट ने इसको लेकर एक ऐतिहासिक फैसला में कहा है कि अगर बच्चे माता-पिता की देखभाल नहीं करते हैं, तो माता-पिता की ओर से बच्चों के नाम पर की गई संपत्ति की गिफ्ट डीड को रद्द किया जा सकता है। यह फैसला माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम के तहत दिया गया है, जिससे वृद्धों की उपेक्षा एवं दुर्व्यवहार के इस गलत प्रवाह को रोकने में सहयोग मिलेगा। नये विश्व की उन्नत एवं आदर्श संरचना बिना वृद्धों की सम्मानजनक स्थिति के संभव नहीं है। वर्किंग बहुओं के ताने, बच्चों को टहलाने-घुमाने की जिम्मेदारी की फिक्र में प्रायः जहां पुरुष वृद्धों की सुबह-शाम खप जाती है, वहीं वृद्ध महिला एक नौकरानी से अधिक हैसियत नहीं रखती। यदि इस तरह परिवार के वृद्ध कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे हैं, रुग्णावस्था में बिस्तर पर पड़े कराह रहे हैं, भरण-पोषण को तरस रहे हैं तो यह हमारे लिए वास्तव में लज्जा एवं शर्म का विषय है। ऐसे शर्म को धोने के लिये ही केरल सरकार का वरिष्ठ नागरिकों के लिए आयोग बनाना एवं सुप्रीम कोर्ट का संवेदनशील होना एक उजाला बना है, जिससे जीवन की संध्या को कष्टपूर्ण होने से निजात मिलने की उम्मीदें जगी है।